युद्ध किसी का भला नहीं करते। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की सबसे भीषण त्रासदी के रूप में यूक्रेन और रुस के मध्य चल रहे युद्ध को माना जा रहा है।
अगर ताकत और कद की बात करे तो दोनों राष्टों के बीच कोई मेल नहीं और यह समझा भी जा रहा था कि रुस यूक्रेन को चींटी की तरह मसल देगा, मगर आज भी यूक्रेन का टिके रहना, रुस को चुनौती भी दे रहा है और कुछ बड़ा एंव दुर्भाग्य पूर्ण निर्णय लेने को उकसा भी रहा है।
पहले ये मान लिया गया था कि अगर युद्ध हुआ भी तो ये एकतरफा ही रहेगा, मगर यूक्रेन के देशभक्ति के ज़ज्बे को कमतर आंका गया। उनका एक नारा आम जनता की भी आवाज़ बन गया है कि मर जायेगे, हार जायेगे मगर झुकेगे नहीं।
इस चुनौती के भयावह नतीजे निकल रहे हैं। इसके पीछे महज यूक्रेन का असीम मनोबल ही नहीं, बल्कि कई देशों की मदद भी शामिल है जो अप्रत्यक्ष रुप से यूक्रेन के साथ खड़े हैं।
इस सबके बावजूद जमीनी हकीकत देखे तो तबाही का खौफनाक मंजर यूक्रेन ही भुगत रहा है और इसका खामियाजा उसके आम नागरिक उठा रहे हैं। यूक्रेन में पढ़ने गए छात्रों और उनके परिवारों के लिए ये परिस्थिति किसी दुःस्वप्न से कम नहीं। कर्नाटक के नवीन की असमय इति, हालातों की विभीषिका को बयान कर रही है।
यूक्रेन के कुछ शहर पूरी तरह तबाह कर दिए गए हैं। बावजूद इसके कई जगहों से रुस अपने कदम पीछे ले रहा है। यूक्रेन इसे अपनी जीत भले ही समझ रहा हो पर अपनी इतनी तबाही के बाद भी उसे यह समझ नहीं आ रहा कि ये रुस की कोई रणनीति भी हो सकती है।
जब नाटो द्वारा लगे कड़े प्रतिबंधों के आगे रुस नहीं झुका तो यह समझ लिया जाना चाहिए कि एक महाशक्ति किसी भी परिस्थिति में अपने को कमतर साबित नहीं करेगी और इसके लिए वह अपनी पूरी ताकत, चाहे वह अंतिम विकल्प के रुप में परमाणु हथियार ही क्यों न हो, लगा देगी। अब बात अहम तक आ गई है।
कल भले ही कोई बीच का रास्ता निकले या कोई कुटनीतिक दांव-पेंच से स्थिति काबू में आए, मगर ये जल्द ही करना होगा और यह समझना होगा कि दो महाशक्तियों की इस अप्रत्यक्ष लड़ाई में घुन की तरह बाकी देश खासकर युक्रेन पीस रहा है।
अपार जन और धन हानि के बाद युद्ध की इति हो भी जाए तो क्या? शासक क्या मृत राष्ट्र पर शासन करने के लिए कृतसंकल्प है? ज़मीर, आत्मसम्मान और अहंकार के बीच का ये खेल जल्दी खत्म हो। अहम के इस खेल ने दुनिया को परमाणु युद्ध के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है और हम तीसरे युद्ध की भंयकर त्रासदी सहने के लिए मजबूर होते जा रहे है।
पूरी सभ्यता लोप होने की दिशा में बढ़ रही है। क्या ये समय बिना किसी अंहकार के कोई मध्य का रास्ता निकालने का नहीं है? भारत मध्यस्थता का मार्ग अपना रहा है। सभी देशों के प्रति उसका दोस्ताना रवैया है और ये कुटनीतिक और आज के हालात देखते हुये एकदम सही फैसला भी है।
देखना ये है कि भारत का ये रुख दुनिया में अमन ला पायेगा या नहीं? जन संहार या विध्वंस किसी भी समस्या का हल नहीं। हल केवल बातचीत से संभव है, वह भी अहम से अलग, खुले मन से एक दूसरे की बात को मान देते हुए।