समान नागरिक संहिता प्रगतिशील और न्यायपूर्ण समाज की दिशा का बड़ा कदम है

अवधेश कुमार
Uniform Civil Code: उत्तराखंड सरकार द्वारा कॉमन सिविल कोड या समान नागरिक संहिता विधेयक पारित करना कायदे से ऐतिहासिक घटना मानी जानी चाहिए। गोवा में समान नागरिक संहिता की पृष्ठभूमि तथा प्रकृति अलग है। संविधान की स्वीकृति के समय से राष्ट्रीय स्तर पर जिस समान नागरिक संहिता की मांग की जा रही थी, उस दिशा में कदम बढ़ाने वाला उत्तराखंड पहला राज्य बना है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके उत्तराधिकारी सत्तारूढ़ भाजपा, समान नागरिक संहिता की बात अवश्य करते थे किंतु  उसकी रूपरेखा सामने नहीं थी। पहली बार भाजपा की एक राज्य सरकार ने समान नागरिक संहिता का प्रारूप रख दिया है। इसके बाद अन्य भाजपा शासित राज्य और केंद्र द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर समान नागरिक संहिता पारित कर लागू करने की संभावना बलवती हुई है।
 
विरोधियों की बात मानें तो यह भाजपा द्वारा अपना एजेंडा लागू करना है जिसका मूल उद्देश्य एक धर्म और उसकी मान्यताओं के अनुरूप समाज और व्यवस्था का निर्माण है। भाजपा के एजेंडा की बात समझ में आती है, पर इसे किसी रीलिजन, पंथ या मजहब को जोड़ने जैसे आरोप किसी दृष्टिकोण से सत्यापित नहीं होते।
 
कुल 192 पृष्ठ और 392 धाराओं वाली इस संहिता में कहीं नहीं लिखा गया है कि फलां रीलिजन या पंथ के लोग ऐसा नहीं कर सकते या कर सकते हैं। किसी भी धार्मिक, पंथिक, मजहबी, सांस्कृतिक मान्यताओं, परंपराओं, रीति-रिवाजों पर इसका असर नहीं होगा। इनमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं जिससे खान-पान, पूजा-पाठ, इबादत, वेशभूषा, रहन-सहन पर कोई प्रभाव पड़े। इसी तरह कोई किस तरीके से शादी करे, शादी-विवाह-निकाह कौन कराए इसके प्रावधान नहीं है। 
 
कहने का तात्पर्य कि समान नागरिक संहिता को लेकर अभी तक किया गया प्रचार झूठा साबित हुआ है कि इससे हिंदुओं के अलावा दूसरे रिलिजन के लोग अपनी परंपरा, रीति-रिवाज के अनुसार शादी-विवाह या अन्य कर्मकांड नहीं कर पाएंगे।
 
वास्तव में यह प्रगतिशील व्यवस्था और समाज निर्माण की दिशा का बड़ा कदम है। कोई प्रगतिशील व्यवस्था किसी की धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताओं, परंपराओं और रीति-रिवाजों को प्रतिबंधित करने या उन पर अंकुश लगाने जैसा विधान स्वीकार नहीं कर सकती। ऐसी कट्टरवादी संकीर्ण सोच के लिए सभ्य समाज में स्थान नहीं हो सकता। इसलिए मुस्लिम संगठनों, मजहबी नेताओं, या राजनीतिक दलों का विरोध केवल विरोध के लिए है। विरोधियों को परंपरागत दुराग्रह से बाहर आकर संहिता से वैसे प्रावधान सामने लाने चाहिए जिनसे वाकई संविधान प्रदत्त धार्मिक अधिकारों पर आघात किया गया हो। सारे विरोध और आरोप तब के हैं जब सामने ड्राफ्ट नहीं था। अब तो बात केवल प्रावधानों पर होनी चाहिए।
 
समान नागरिक संहिता जीवन के केवल पांच क्षेत्रों- विवाह, तलाक, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और गोद लेना या दत्तकग्रहण के लिए है। उत्तराखंड समान नागरिक संहिता के चार खंड हैं, विवाह और विवाह विच्छेद या तलाक, उत्तराधिकार, सहवासी संबंध या लीव इन रिलेशनशिप और विविध। इसमें विवाह के लिए लड़कियों की न्यूनतम आयु 18 व लड़के की न्यूनतम 21 वर्ष रखी गई है तो बहु विवाह व बाल विवाह का निषेध है। सगे रिश्तेदारों से संबंध निषेध तो है पर यह उन पर लागू नहीं होगा जिनकी प्रथा या रूढ़ियां ऐसे संबंधों में विवाह की अनुमति देती है। इन सबसे किसका विरोध होगा और क्यों? 
 
हम जन्म और मृत्यु का पंजीकरण कराते हैं तो विवाह के पंजीकरण की अनिवार्यता क्यों नहीं होनी चाहिए? इसके ज्यादातर प्रावधान आपको सभी धर्म की महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता पर आधारित न्यायपूर्ण प्रगतिशील समाज के निर्माण का ही संदेश देते हैं।

उदाहरण के लिए पुरुष और महिला दोनों को तलाक के समान अधिकार होंगे तो पति या पत्नी में से किसी के जीवित रहने पर दूसरे विवाह की अनुमति नहीं होगी और महिला के द्वारा विवाह में कोई शर्त नहीं होगी। किसी को एक से अधिक विवाह करने का उन्माद हो या पुरुषों के समान महिलाओं को तलाक के अधिकार से समस्या तो उनको समान नागरिक संहिता से समस्या होगी। 
 
तलाक की याचिका लंबित रहने पर भरण पोषण और बच्चों की अभिरक्षा से संबंधित प्रावधानों पर उन्हें ही आपत्ति हो सकती है जो सामाजिक न्याय नहीं चाहते। धार्मिक मान्यताओं से परे किसी व्यक्ति को पुनर्विवाह या तलाक के मामले में स्वच्छंदता नहीं दी जा सकती।
 
समान नागरिक संहिता की प्रगतिशील प्रकृति का एक प्रमाण संपत्ति में पुरुषों के समान महिलाओं को समान अधिकार दिया जाना है। इससे किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि किसी भी परिवार के जीवित बच्चे, पुत्र अथवा पुत्री संपत्ति में बराबर के अधिकारी होंगे।
 
हालांकि लिव इन रिलेशनशिप संबंधित प्रावधानों से भाजपा एवं संघ परिवार के अंदर थोड़ी असहजता भी महसूस हुई है। लिव-इन रिलेशनशिप को पंजीकरण कराने और न करने पर दंड तथा उस अवधि में पैदा होने वाले बच्चों को वैध संतान की मान्यता या पुरुष द्वारा लिव इन की महिला को छोड़ने पर महिला को भरण पोषण की मांग के अधिकार से आशंका पैदा हुई है कि ऐसे संबंध विस्तारित हो सकते हैं। 
 
समाज और परिवार के मान्य बंधन कायम रहे इस दृष्टि से विवाह के समान ही संबंधों पर लिविंग में रहने की अनुमति नहीं दी गई है। हां, जहां की रुढ़ियां या प्रथाएं ऐसे संबंधों में विवाह की अनुमति देते हैं उन पर लागू नहीं होगा पर ये रूढ़ियां और प्रथाएं लोक नीति और नैतिकता के विपरीत नहीं होने चाहिए।

हाल के वर्षों में देखा गया है की परिवार और रिश्तेदारी के ऐसे संबंधों में लिव इन या शादी के मामले बढ़े हैं जिनको मानता नहीं थी और इससे समस्याएं पैदा हुई है। परिवार व्यवस्था की मर्यादा को बनाए रखने के लिए यह प्रावधान आवश्यक है। वैसे लिव इन प्रावधान भी महिलाओं के पक्ष में हैं। लव जिहाद की बढ़ती घटनाओं की दृष्टि से ऐसे कानून की मांग की जा रही थी जिनकी शिकार लड़कियों और महिलाओं तथा उनसे पैदा हुए बच्चों को सुरक्षा और संरक्षण प्राप्त हो। पर इसके खतरों को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 
 
कुल मिलाकर समान नागरिक संहिता स्वतंत्रता के बाद समाज के सभी अंगों पुरुष स्त्री बच्चों के लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करती है। यह प्रगतिशील लोकतांत्रिक और परस्पर सम्मान पर आधारित समाज के निर्माण के सपने को पूरा करने का विधान है। यह कहना भी गलत है कि इसे अचानक लाया गया है।

धामी सरकार द्वारा गठित न्यायमूर्ति रंजना देसाई समिति ने इस पर विस्तार से कार्य किया है। अन्य देशों की संहिताओं, संविधान सभा में हुई बहस आदि का अध्ययन किया गया, लोगों से सुझाव मांगे और जगह-जगह बैठकें की। राज्य स्तर पर लोगों से मिलने के बाद जिला स्तर तक गए और करीब 75 सभायें की। समिति को ढाई लाख से अधिक सुझाव‌ प्राप्त हुए। किसी भी व्यक्ति, समूह, संगठन या संस्था को समिति से मिलकर राय देने का निषेध नहीं था। इनमें राजनीतिक दल और नेता भी शामिल हैं। 
 
संविधान निर्माण के समय से ही समान नागरिक संहिता पर बहस चलती रही है। इसके विरोध का कारण झूठ और दुष्प्रचार तथा मजहब के नाम पर गैर मजहबी पुरुष मनमानी व्यवस्था को बचाए रखने की मानसिकता रही है जिसका कोई उपचार नहीं। इसे संघ और भाजपा का एजेंडा बताने वाले भूल रहे हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों तथा समाजवादियों के घोषित एजेंडा में समान नागरिक संहिता लागू करना शामिल रहा है।

डॉ. राम मनोहर लोहिया इसके प्रबल पैरोकार थे। विडंबना देखिए कि आज कम्युनिस्टों और समाजवादियों की मुखर आवाज भी इसके विरुद्ध है। इससे साबित होता है कि विरोध के पीछे ईमानदारी और नैतिकता नहीं है। संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में संपूर्ण भारत के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता देने की क्या कदम बढ़ाने की अपेक्षा की गई है। तो उसे अपेक्षा को पूरा करने की शुरुआत हो गई है।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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