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गोल-गोल रानी..... मनु ! कितना बचा है पानी...?

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शैली बक्षी खड़कोतकर

“मम्मा....! पानी......” मनु फ्रिज से बॉटल निकाल कर गटागट पानी पी रहा है। 
 
“मनु, ग्लास से.... और सीधे धूप से आकर पानी नहीं पीते, बेटा। ”

 
“तब तक तो पॉपकॉर्न बन जाएगा, मेरा। देखो तो, बाहर कितनी गर्मी है। कल 45 था, आज 50 हो गया होगा, टेम्परेचर।”
 
सचमुच..! कुम्हला-सा गया है, बच्चा। उफ़! इस बार तो गर्मी मानो कहर बन कर टूट रही है। अब सभी महसूस कर रहे हैं  कि ग्लोबल वॉर्मिंग किसी दूसरी दुनिया का शब्द नहीं, हमारे आज की सच्चाई है। 
 
मम्मा ने फटाफट कैरी पना निकाला। 
 
“मम्मा ऐसा लगता है, जैसे सूरज का किसी के साथ भयंकर टाइप का झगड़ा हुआ है, वहां तो बोलती बंद हो गई होगी, गर्मी हमको दिखा रहा है। अहा, कुछ तो राहत मिली। ” मनु कूलर के सामने ठन्डे कैरी पने की चुस्कियां ले रहा है।         
“हां बेटा, झगड़ा तो हुआ है। बल्कि चल ही रहा है, मनुष्य का प्रकृति के साथ और सिर्फ सूरज ही क्यों, हवा, पानी, पेड़-पौधे, सब हमसे रूठ गए हैं। ”
 
   ‘सचमुच! हम तो कसाई से भी बदतर है। ’ मम्मा सोच रही है. .....कैसे नोंच-खसोंट दिया है, हमने अपनी ही धरा को।  धरती और जीवन के लिए अनिवार्य संसाधनों को हम अपने ही हाथों नष्ट कर रहे हैं। चाहे हवा हो, पानी या वनस्पति।  हम तो मनमानी कर लेते हैं पर जब प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखाती है, तो असहाय हो जाते हैं। महाराष्ट्र ने इस बार आने वाले कल की चेतावनी दे दी है। कितने ही आलिशान मकान, जगमगाते दफ्तर या पांच सितारा रिसोर्ट खड़े कर लें, अगर सांस लेने के लिए ताज़ी हवा नहीं होगी, शुद्ध पेयजल नहीं होगा, पर्याप्त प्राकृतिक भोजन नहीं होगा तो यह सारी विलासिता किस काम की? कल यही बच्चे या इनकी संतति हमें कटघरे में खड़ा करेंगी तो क्या जवाब होगा हमारे पास...?
 
“मम्मा, देखों क्यारी में कितनी लाल चीटियां हैं। ” मनु को छुट्टियों में पौधों को पानी देने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। पूरे आंगन में टाइल्स लगाने के बाद एक छोटा-सा कोना ही तो रह गया है, जहां मम्मा ने अपनी फुलवारी सजाई है, तुलसी, मीठा नीम के अलावा मोगरा, गुलाब, आबोली जैसे कुछ पौधे। 
      
 “गर्मी के कारण मिट्टी के ऊपर आ गई हैं, बेटा। छेड़ना नहीं, अपने आप चली जाएंगी।”
 
“आप तो सबको घर में ही रख लो। ” मनु ने उलाहना दिया। 
 
“घर होता ही है, सबका। उसमें बैक्टेरिया से लेकर गोरैया तक सबका हिस्सा होता है और हमारी तो संस्कृति ही सहजीवन की रही है। हमारे पूर्वजों को पेड़ों और जीवों के महत्व का पूरा अंदाजा था। तभी तो पेड़ों की पूजा करना, गाय और कुत्ते का रोज़ रोटी देना, पक्षियों को दाना डालना, इन सबको परम्परा से जोड़ दिया। क्योंकि ये सब जैव-विविधता के लिए जरुरी हैं।”
 
“हां, बायो-डाइवर्सिटी पर चैप्टर था साइंस में।”
 
आजकल बच्चा-बच्चा इसके बारे में जानता है। स्कूली किताबें, अख़बार, न्यूज़ चैनल हर जगह चर्चा होती है। फिर भी अपेक्षित परिणाम क्यों नहीं दिखते?
 
रात को भी हवा में गर्माहट है। खाने के बाद मनु मम्मा-पापा के साथ टहलने निकला है। 
 
“पापा, आप मम्मा को एनिवर्सरी पर क्या गिफ्ट दोगे? इस बार एक अच्छा-सा परफ्यूम देना। अच्छा, मम्मा बताओ, आपको कौन-सी खुशबू पसंद है?”
 
“बताऊं? मुझे तो किसी भी परफ्यूम से ज्यादा पसंद है, मिट्टी की सौंधी सुगंध। दिन भर की तपन के बाद जब मिट्टी के आं गन-बरामदों में पानी का छिड़काव किया जाता, तो सारा वातावरण इस सुगंध से महक उठता और गर्मी कहां छु-मन्तर हो जाती पता भी नहीं चलता।”
 
“अरे यार .. मम्मा तो सुबह से एक्टिविस्ट हो गई है बस यही बातें कर रही हैं”
 
“मनु, वैसे मैं भी मम्मा की बात से सहमत हूं। मैं क्या हम सब उस मिट्टी की महक को तरसते हैं। पर शिकायत किससे करें? बड़ी-बड़ी इमारतें,पक्के आंगन और सीमेंट की सड़कें तो हमने ही बनवाई है।”
 
“पापा, इन सब के लिए साइंटिस्ट इतनी रिसर्च कर रहे हैं, तो कोई न कोई सोल्युशन तो निकल ही आएगा”
 
“हां, बेटा.... लेकिन इससे हमारी जिम्मेदारी ख़त्म तो नहीं होती। प्रयास तो सबको करने होंगे”
 
“पापा, ऐसा हम कई बार ट्राई कर चुके हैं पर फिर कंटिन्यू नहीं रख पाते हैं।”
 
“बिलकुल सही मनु! दरअसल यही समस्या है। बहुत से लोग सोचते हैं पर संकल्प पर दृढ़ नहीं रह पाते हैं” मम्मा ने समर्थन किया। 
 
“जैसे, सामने वाले शर्मा अंकल। हमेशा कहते हैं, पानी बचाओ और खुद रोज़ दो बार बरामदा धोते हैं। सड़क पर पानी बहता रहता है। पता है, हमारी साइंस टीचर ने बताया था कि हमारे पास जो 1% पीने लायक पानी है, उसमें से 70% 2025 तक खत्म होने का डर है।”
 
“मनु, पहले हम खुद को देखें”
 
“पर हम तो इस तरह पानी नहीं बहाते”
 
“हा, पर तुम कई बार फैन और लाइट ऑफ करना भूल जाते हो.. अच्छा, ऐसा करते हैं, अगर तुम ये भूले, तो तुम्हारी नेक्स्ट आइसक्रीम कैन्सल।”
 
“अरे वाह, ये तो सरासर चीटिंग हैं”
 
“पर आदत डालने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा न” पापा ने सिर हिलाया। 
 
“ओके, फिर पापा जब तक सिंक के नल का लीकेज ठीक नहीं करते, रोज़ वॉक करते समय एक एक्स्ट्रा राउंड” मनु ने कल ही टीवी पर आबिद सुरती जी के प्रयासों पर प्रोग्राम देखा था। प्रस्ताव का समर्थन पापा को इतना महंगा पड़ेगा, उन्होंने सोचा ही नहीं लेकिन अब तीर हाथ से छूट चूका है। 
 
“और मम्मा” अब निशाना मम्मा की ओर है “अगर आप किसी भी शो-रूम से पॉली-बैग्स लाई, तो...”
 
“अगली शॉपिंग पर बैन...” पापा की तुरंत प्रतिक्रिया आई।  
 
“हां..हां ..!”   
 
 “हां क्या ..?काम आती हैं वो पॉली-बैग्स और मैं सब्जी वगैरह के साथ तो नहीं लेती”
 
आखिर कुछ संशोधनों के साथ सारे प्रस्ताव सर्व-सम्मति से पारित हो गए हैं। मनु ने दोस्तों के साथ उत्साहपूर्वक कॉलोनी के पार्क में फलदार वृक्ष लगाने और उनकी देखभाल की भी योजना बनाई है। मम्मा को कुछ तो संतोष हुआ है। ज्यादा नहीं पर हर परिवार अपने बच्चों को पर्यावरण जागरूकता के ही संस्कार दे सके, तो बड़े बदलाव की शुरुआत हो सकती है और बच्चे कहने से नहीं देखकर सीखते हैं। इसलिए बदलना तो हमें ही होगा, अपने बच्चों के बेहतर कल के लिए....।  वरना सचमुच पूछने की नौबत आ जाएगी...गोल-गोल रानी ....कितनी बची हवा, कितना बचा पानी ....?
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