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नारी की दुर्गति में नारी का योगदान

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अनिल शर्मा

घूंघट उतारकर व्योमबाला बनी नारी के अबला जीवन की आज भी है ये कहानी। भारत में है 15 प्रतिशत सुखी तो 85 प्रतिशत हैं दुखी, पीड़ित, दुर्दशा को रोती नारियां। और इसमें पुरुष समाज की जितनी जिम्मेदारी है, उतनी ही स्वयं नारी समाज की भी है। एक तरफ हर क्षेत्र में नारी की अपनी अलग ही पहचान नजर आ रही है, वहीं दूसरी तरफ पुरुष समाज से जहां नारी शोषित हो रही है, वहीं खुद नारी समाज में नारी शोषित हो रही है।
 
 
पारिवारिक स्थिति
 
नारी का नारी द्वारा शोषण की पहली सीढ़ी है परिवार। परिवार में बहू को हजार रुपए की साड़ी ला दी और ननद को 500 रुपए की तो कोहराम मच जाएगा। इसके विपरीत स्थिति में बहू रूठ जाती है यानी मनभेद की शुरुआत परिवार से ही होती है और इसका श्रीगणेश भी परिवार की नारी द्वारा ही होता है।
 
दहेज प्रथा
 
दहेज प्रथा काफी 'फेमस' शब्द हो गया है, लेकिन अभी तक इससे होने वाले हादसों में कमी नहीं आई है। देश में अनुमानत: हर रोज 20-35 प्रतिशत नारी-आत्महत्या दहेज को लेकर होती है, वहीं दहेज को लेकर सताने या प्रताड़ना में यह संख्या लगभग 50-65 प्रतिशत मानी जाती है। दहेज प्रताड़ना को लेकर भी शुरुआत पुरुष वर्ग से पहले नारी वर्ग कर देता है- 'अरे, क्या बताऊं, जो दिया ठीक दिया' का उदासीभरा स्वर नई बहू की ससुराली नारी रिश्तेदारों से सुनने को मिल जाता है।
 
रीति-रिवाज
 
हम इतिहास में स्त्रियों की बात करें तो ये जानकर दुख होगा कि प्राचीनकाल से ही हमारे यहां स्त्रियों की स्थिति बहुत खराब रही है। यहां प्रथा और परंपरा के नाम पर बहुत अत्याचार होता रहा है और आज भी सिलसिला जारी है। बहू अगर मायके से 500 रुपए के उपहार ले आई तो सबसे पहले ससुराल की महिलाएं मीन-मेख निकालेंगी। अपवादस्वरूप लगभग 10 प्रतिशत परिवार ही ऐसे मिलेंगे, जो बहू और उसके मायके का सम्मान रखते हों।
 
लव मैरिज
 
वैसे तो लव मैरिज या इंटरकास्ट मैरिज की सफलता मात्र 2 से 3 प्रतिशत होती है, शेष में परिवार बिखर जाता है। ये 2-3 प्रतिशत परिवार समझदार होने की वजह से समन्वय का काम इनमें बाखूबी हो जाता है, वरना लगभग 85 से 90 प्रतिशत परिवारों लव मैरिज के कुछ समय बाद टूट जाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है अस्वीकार्यता। 
 
लड़की अगर नीची जाति की है तो दिखावे के लिए ससुराल की महिलाएं औपचारिक इज्जत जरूर करेंगी, मगर व्यक्तिगत तौर पर या कहें कि पारिवारिक स्तर पर पुरुषों से ज्यादा टेढ़ी नजर ससुराली महिलाओें की रहती है। अगर लड़की ने किसी गैर जाति या नीची जाति के लड़के से ब्याह कर लिया तो लड़की का मायका इसलिए बंद हो जाता है कि मायके में और भी उसकी बहने हैं। अपवादस्वरूप मात्र 4-5 प्रतिशत परिवारों में ऐसा नहीं मिलेगा।
 
पुरुष सत्ता
 
पुरुष सत्तात्मक प्रथा में भी नारी का ही योगदान है। पति भले ही शराबी हो, उसे सुधारने में अगर पड़ोसी उससे मारपीट दे, तो पत्नी मोगरी लेकर खड़ी हो जाएगी यानी पत्नी को अपना अपमान सहन है। 'मेरा पति परमेश्वर है' वाला भाव आज भी विद्यमान है, भले ही पति पत्नी को रोज मारता-कूटता हो। अगर पत्नी, पति का विरोध करती है तो पति से तो प्रताड़ित होती ही है, परिवार की महिलाएं भी कुछ न कुछ ताने जरूर देती हैं।
 
गृहस्थी की गाड़ी के गुरुतर दायित्व का निर्वाह करने वाली नारी का गृह स्वामिनी के रूप में उसके श्रम का महत्व किसी भी दृष्टि से कम नहीं आंका जा सकता, परंतु विडंबना यही रही है कि उसके कार्यों का उचित रूप से सम्मान नहीं किया जाता। नारी को सिर्फ घरेलू जीवन, बच्चों के लालन-पोषण, रसोईघर, समूचे परिवार की देखभाल करने के लिए ही सीमित कर दिया जाता है जबकि पुरुष को बाह्य जगत, सार्वजनिक क्षेत्रों, राजनीति, धर्म, ज्ञान-विज्ञान, उत्पादन के सभी साधनों से लैस मान लिया जाता है।
 
मगर समय-परिवर्तन के साथ ही नारी हर क्षेत्र में आने लगी है, नौकरी करने लगी है, समाजसेवा में लगी है, सेना में अपनी ताकत दिखा रही है, फिर भी नारी का शोषण जारी है जिसमें एक हद तक नारी वर्ग भी जिम्मेदार है, क्योंकि शॉर्टकट का रास्ता नारी वर्ग ने भी अपना रखा है। 
 
यही कटु सत्य है और इसी कारण 'नारी की दुर्गति में नारी का भी योगदान' महत्वपूर्ण है। 
 

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