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कहानी, उपन्यास लिखना और पढ़ना धीरज की बात है!

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अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

Writing and reading stories: कहानी, उपन्यास लिखना और पढ़ना दोनों ही बातें हर किसी के बस में नहीं है। असीम धीरज चाहिए। वैसे तो इस दुनिया में कुछ भी किसी के बस में नहीं होता है फिर भी मनुष्य कुछ न कुछ नया करने की जुगाड़ में धीरज के साथ लगा ही रहता है, मनुष्य जब भी कुछ नया सोचता है तब उसे पता नहीं होता कि वह कुछ नया सोच रहा है। पर उसका सोचा या लिखा जब पूरा हो जाता है तो जो लिखा गया है उसे पढ़कर उसे वैसी अनुभूति नहीं होती है जैसी लिखने से पहले मन में व्यक्त हो रही थी।
 
मनुष्य इस दुनिया में एक मात्र अकेला प्राणी नहीं है जो आजीवन कुछ न कुछ करता ही रहता है। दुनिया का प्रत्येक जीव अपने अपने ढंग से कुछ न कुछ करता ही रहता है। पर कहानी और उपन्यास लिखना मनुष्य मात्र का एकाधिकार है। प्रत्येक मनुष्य या लेखक की हर एक कहानी और उपन्यास में एकरूपता नहीं होती। मनुष्य और लेखक मूलतः एक ही माया है, मनुष्य संज्ञा हैं तो लेखक विशेषण, इसी से मनुष्य को मनुष्य होने का विशिष्ट भाव नहीं होता है पर लेखक विशिष्टता की अभिव्यक्ति से प्रायः मुक्त नहीं हो पाता। फिर भी मनुष्य को महज मनुष्य होने से तृप्ति नहीं होती है तो वह कुछ न कुछ करता ही रहता है और उस पर अपना दावा या श्रेय लेने की कोशिश भी करता रहता है। मनुष्य अपनी किए से सदैव संतुष्ट नहीं रहता है, यही असंतोष मनुष्य को आजीवन नाना गतिविधियों में लिप्त रखता है। गतिविधियों में व्यस्त रहना एक बात है और हड़बड़ी में अस्त-व्यस्त रहना एक दम अलग बात है। लेखन और सृजन धीरज की संतान हैं।
 
एक ही कथानक पर अनगिनत कहानियां लिखी जा चुकी हैं और लिखी जाती रहेगी। उपन्यास भी मनुष्य के लेखकीय कृतित्व की ही महागाथा है। जब भी कोई मनुष्य लिखने बैठता है तो वह इस बात की चिंता नहीं करता है कि वह जो लिख रहा है वैसा पहले कभी भी लिखा ही नहीं गया है। फिर भी कुछ नया लिखने की आशा में मनुष्य लिखता ही रहता है। पर मनुष्य का लिखा लेखन समाप्त होते-होते नया लगना एक तरह से समाप्त हो जाता है। जब हम कलम कागज लेकर लिखने बैठते हैं तो जो उत्साह और उमंग लेखक के मन में होती है वैसी लेखन समाप्त होने पर लेखक के मन में नहीं होती हैं।
 
पहला सवाल मन में यह उठता है कि यह पढ़ने वालों को पसंद आएगा, यह छपेगा या नहीं या छप भी गया तो लोग इसे पढ़ेंगे या नहीं? अगर पाठकों ने पढ़ भी लिया तो उन्हें कैसा लगा? जैसे अनेक सवाल लिखने वाले लेखक के मन में आते हैं। यानी लेखक की दृष्टि ही एकदम से बदल जाती है। अब लेखक अपने विचार या लिखे पर सोचना बंद कर पाठकों की प्रतिक्रिया को लेकर सोचने लगता हैं। इस कारण लेखक की विचार शैली में एकाएक बदलाव होता है और वह पाठकों की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा करने लगता है। अपने अंदर लिखने की भूख जगना और दूसरों की प्रतिक्रिया को जानने की जिज्ञासा या उत्कंठा पैदा होना एकदम भिन्न बात है। एक हमारे अंदर से निकले विचार का सृजनात्मक स्वरूप या अभिव्यक्ति है तो दूसरा किसी अन्य के अंदर उठे भावों को जानने की उत्कंठा।
 
आखिर हम लिखते क्यों है? जैसे हम रोटी क्यों बनाते हैं? सीधा उत्तर है खाने या भूख शांत करने के लिए या यह ऐसा तो नहीं है कि रोटी कैसी बनी इस पर चर्चा या प्रतिक्रिया या समीक्षा बैठक के लिए तो हम रोटी नहीं बनाते! सीधी सी बात है भूख शांत या स्वपोषण हेतु हम अनाज भी उगाते हैं, चूल्हा भी जलाते हैं और रोटी बनाकर खुद भी खाते हैं और परिवार एवं अतिथियों को भी समय-समय पर खिलाते हैं। लेखन, सृजन और चिंतन ये त्रिविधा मनुष्य के अन्तर्मन की भूख को शांत या तृप्त करने के निराकार साधन है, जो मनुष्य को स्वयं अपने निराकार से अपने ही हाथों साकार होते कृतित्व से प्रत्यक्ष साक्षात्कार कराते रहते हैं। जैसे सुबह-शाम मनुष्य को भूख लगती है और भोजन भूख को तृप्त और पोषित करता है वैसे ही मनुष्य में सृजनात्मक शक्ति के कारण हर-दिन कुछ न कुछ नया करना और सृजनात्मक कार्यों को मन और तन से सम्पन्न करने का आजीवन सिलसिला चलता ही रहता है। जैसे हम सब सुबह उठकर एकदम किसी न किसी कर्म में लग जाते हैं।
 
पैरों का काम चलना है पर हम केवल अपने निवास की सरहद में ही चलकर अपना जीवन नहीं बिताते हैं। बाहर घर से दूर धूमने जाते हैं। पैरों को चलाने की क्रिया एक ही रूप स्वरूप की है पर उसे कदम ताल ऊपर नीचे करते हुए जीवन भर जी नहीं कर सकते, कदमों को हरदम आगे बढ़ाना ही होता हैं। पैरों के पराक्रम से पैदल धूमने से तरोताजा महसूस करते हैं। घर से बाहर न निकल पाने पर मन में उत्साह नहीं पैदा होता है। कभी अपने पैरों लम्बी यात्रा कर ली तो घर से बाहर की दुनिया को जिस तरह देखा उसे सुनाने की इच्छा मन में अपने आप पैदा हो जाती है।
 
सृजन करना सरल भी है और कठिन भी है पर सृजनात्मक शक्ति को मन और तन में आखरी सांस तक बनाए रखना मनुष्य का स्वपराक्रम ही माना जाएगा जो मनुष्य ऐसा कर पाते हैं वे प्राकृतिक अवस्था में जीवन जीते हुए प्रति क्षण साकार निराकार का जो अंतहीन सिलसिला जारी है उसे साकार स्वरूप में जीते जी समझ पाते हैं।

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