उनके मस्तक के पास तेज आभा फैली हुई थी। पुरोहित पंडित हरदयाल ने जब उनके दर्शन किए उसी क्षण भविष्यवाणी कर दी थी कि यह बालक ईश्वर ज्योति का साक्षात अलौकिक स्वरूप है। बचपन से ही गुरु नानक का मन आध्यात्मिक ज्ञान एवं लोक कल्याण के चिंतन में डूबा रहता। बैठे-बैठे ध्यान मग्न हो जाते और कभी तो यह अवस्था समाधि तक भी पहुंच जाती।
गुरुनानक देवजी का जीवन एवं धर्म दर्शन युगांतकारी लोकचिंतन दर्शन था। उन्होंने सांसारिक यथार्थ से नाता नहीं तोड़ा। वे संसार के त्याग संन्यास लेने के खिलाफ थे, क्योंकि वे सहज योग के हामी थे।
उनका मत था कि मनुष्य संन्यास लेकर स्वयं का अथवा लोक कल्याण नहीं कर सकता, जितना कि स्वाभाविक एवं सहज जीवन में। इसलिए उन्होंने गृहस्थ त्याग गुफाओं, जंगलों में बैठने से प्रभु प्राप्ति नहीं अपितु गृहस्थ में रहकर मानव सेवा करना श्रेष्ठ धर्म बताया। 'नाम जपना, किरत करना, वंड छकना' सफल गृहस्थ जीवन का मंत्र दिया।
यही गुरु मंत्र सिख धर्म की मुख्य आधारशिला है। यानी अंतर आत्मा से ईश्वर का नाम जपो, ईमानदारी एवं परिश्रम से कर्म करो तथा अर्जित धन से असहाय, दुखी पीड़ित, जरूरतमंद इंसानों की सेवा करो।
गुरु उपदेश है, 'घाल खाये किछ हत्थो देह। नानक राह पछाने से।' इस प्रकार श्री गुरुनानक देवजी ने अन्न की शुद्धता, पवित्रता और सात्विकता पर जोर दिया।