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महिला समानता दिवस : समानता और स्वतंत्रता के नाम पर रचे हैं प्रपंच समाज ने

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स्वरांगी साने

क्या आपने कभी पुरुष असमानता पर चर्चा होते सुना है?
सन् 2022 के रविवार की एक दोपहर…कुछ महिलाएँ मिलीं बरामदे में, गलियारे में, आँगन में, ‘जगह’ आप चुन लीजिए…उन्होंने तय किया कि अगले इतवार वे तफ़रीह के लिए निकलेंगी, अकेली ऐसे ही शहर से कुछ दूर, दिनभर के लिए, अपनी आज़ादी का जश्न मनाने…पति-बच्चों को लिये बगैर, कहाँ जाया जाए, कैसे जाया जाए,कौन क्या पहनेगा, योजनाओं की फ़ेहरिस्त बनने लगी और वे कल्पना में घूम भी आईं…कल्पना में इसलिए कि शाम को महिलाओं के व्हाट्स ऐप समूह पर संदेश आने लगे किसी ने सच कहा पति मना कर रहा है, किसी ने दूसरा कारण बता दिया, किसी ने तीसरी परेशानी गिना दी। यह महानगर में घटा वाकया था और 30 प्रतिशत महिलाएँ जाने से मना कर चुकी थीं..आप ‘जगह’, बदल दीजिए, बड़े शहर में यह नकार 40 प्रतिशत हो जाएगा, छोटे शहर में 50 प्रतिशत, तहसील में न जाने वाली महिलाएँ 60 प्रतिशत हो जाएँगी और कस्बे में महानगर की तुलना में अनुपात एकदम उल्टा होगा, 70 प्रतिशत नहीं जा पाएँगी, गाँवों में यह सोचा भी नहीं जाएगा।
 
सन् 2006 में एक हिंदी मूवी आई थी ‘प्रवोक्ड वह सन् 1989 की सत्य घटना पर आधारित थी जिसमें किरणजीत अहलुवालिया को पति का ख़ून करने के इल्ज़ाम में कैद की सज़ा सुनाई जाती है। किरदार निभाती ऐश्वर्या राय से जेल में यह पूछने पर कि उसे कैसे महसूस हो रहा है- वह जवाब देती है, ‘आज़ाद’। कैद में रिहा होने और घर में कैद होने का फ़लसफ़ा कई महिलाओं के साथ जुड़ा है। किरण ने दस साल तक पति की ज़्यादतियों को सहा था और एक रात उसका ख़ून कर दिया था। ख़ून करना सही है यह नहीं कहा जा रहा लेकिन इतना तो पक्का है कि सन् 1989 की बात कर लें या सन् 1889 की या बिल्कुल इस नई सदी की महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों और उनके साथ होने वाले भेदभाव का रूप बदल सकता है लेकिन पक्षपात है।
 
कभी यह भेदभाव इतने सूक्ष्म रूप में होता है कि मोटे तौर पर दिखाई भी नहीं देता। कार्यालयीन स्तर पर होने वाला लिंग भेद या आर्थिक असमानता तो साफ़-साफ़ देखी जा सकती है,शारीरिक चोट दिख सकती है, लेकिन मानसिक, भावनात्मक असमानता को देखा, परखा, जाना-समझा नहीं जाता, वह होता है और बदस्तूर होता चला आ रहा है। 
 
सवाल यह है कि महिलाएँ सहन क्यों करती हैं? कुछ तो पीढ़ीगत सहन करने की आदत ने उनके जीन्स में, उनके डीएनए में ही इसे शामिल कर दिया है कि सहती रहो, कुछ सामाजिक परिवेश ऐसा है जो उन्हें कभी चिल्ला कर तो कभी डरा-धमकाकर कहता है शांति चाहती हो तो चुप रहो। अमन पसंद महिलाएँ ऑफ़िस में हों तो कार्यालयीन शांति के लिए या इस ख़ौफ़ में कि कहीं नौकरी न चली जाए चुप रहती हैं। घर-परिवार में शांति रहे इसका जिम्मा तो जैसे वैसे भी उन पर ही रहता है और वे चुप रहती है।
 
धीरे-धीरे चुप रहने को उनकी कमज़ोरी मान लिया जाता है, धीरे-धीरे वे आगे की पीढ़ी को भी यही पाठ पढ़ाने लगती हैं कि कुछ न कहो, चुप रहो। माना कि अब परिस्थितियाँ बदल रही हैं, समाज बदल रहा है, समाज की सोच बदल रही है। माना कि अब स्कूल जाने वाली लड़कियों का प्रतिशत बढ़ा है, नौकरी करने वाली महिलाओं का प्रतिशत बढ़ा है, हर क्षेत्र में महिलाएँ पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं वगैरह-वगैरह लेकिन हम इस प्रतिशत को पिछले सालों की तुलना में देखते हैं और अपने आपको झाँसा देते हैं कि हालात बदल गए हैं। कुछ साल पहले बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए एक सरकारी विज्ञापन आता था- उसकी टैग लाइन थी लड़की पढ़कर क्या करेगी? दरअसल देखा जाए तो महिलाओं के मामले में यह हर बात पर लागू होता है वह कुछ भी क्यों करे इसकी सफ़ाई उसे देती रहना पड़ती है। 
 
हमने बेटा-बेटी में कभी कोई फ़र्क नहीं किया यह कहने वाले परिवारों में भी वक्त आने पर यह फ़र्क नज़र आ ही जाता है। झूठे नकाब की एक परत खोलकर देखिएगा कुछ नहीं बदला है। जो पकड़ा गया वो चोर वाला न्याय है, जिस महिला के साथ होने वाला भेदभाव दिख जाता है हम केवल उसे मान लेते हैं, जो सामने नहीं आता, हम मान लेते हैं कि वैसा कुछ हो नहीं रहा। यह बिल्कुल वैसा है कि पुलिस में छेड़छाड़ की रिपोर्ट दर्ज न होने से मान लिया जाए कि समाज में अपराध कम हो रहा है और छेड़छाड़ से बचने की नसीहत भी स्त्री पक्ष को ही दी जाती है, पुरुषों के साथ छेड़छाड़ के मामले कभी सुने हैं आपने? सुना है आपने कि लड़कों-पुरुषों को महिलाओं से भय हो।
 
 महिलाओं को लेकर होने वाले भद्दे चुटकुलों में जरूर इसे दिखाया जाएगा और यह भी उस भेदभाव को दिखा देगा कि हम महिलाओं पर हँसने का एक मौका भी छोड़ना नहीं चाहते जैसे उनके नाम पर ‘बकी’ जाने वाली एक गाली से भी हम वंचित नहीं रहना चाहते। कितना बड़ा अपमान और कितना अधिक भेदभाव दिखाती हैं ये गालियाँ कि स्त्री आपकी संपत्ति है और उस पर कोई थूके तो आपको बुरा लगेगा और आप किसी के ज़मीर पर लानत करने के लिए उसकी इस संपत्ति पर चोट कर सकते हैं। बच्चियों, लड़कियों, महिलाओं के आर्थिक,शारीरिक, मानसिक, नैतिक दमन को क्या हम पक्षपात की श्रेणी में नहीं रखेंगे? हम किस समानता की बात कर रहे हैं? नौकरी करके घर आने वाली स्त्री के लिए रसोई सँभालना उसका कर्तव्य है और ऐसे तमाम उसके कर्तव्य हैं लेकिन उसके अधिकारों की बात पर हम मौन साध लेते हैं। कई अधिकार उसे मिलते नहीं, कई उससे छीने जाते हैं और कई अधिकारों को बड़ी सफाई से स्त्री पर मानसिक, भावनात्मक दबाव डालकर हथिया लिया जाता है।
 
पैतृक संपत्ति में महिलाओं को अधिकार है लेकिन बड़ी सफाई से रिश्तों की दुहाई देकर उन्हें उससे वंचित रखा जाता है। महिला समानता का डंका बजता रहे, पर महिलाओं के डंके में थोथा चना बाजे घना वाली कहावत अधिक चरितार्थ होती है कि झूब-फरेब का प्रपंच है इसलिए उसे जोर-शोर से दिखाया जाता है, जताया जाता है वास्तव में ऐसा नहीं है। क्या आपने कभी पुरुष असमानता पर चर्चा होते सुना है? इस सवाल का जवाब ही सच्चाई बता देने के लिए पर्याप्त है।
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