महिला समानता दिवस पर हम चिंतन करें उन सामाजिक-पारिवारिक हरकतों पर जो मानसिक रूप से क्रूरता को जन्म देती है। कविता ने अपने बेटे को अकेले ही जीवन के संघर्षों का सामना कर लायक बनाया। उसके जीवन में जब बेटे के ब्याह की खुशियां आईं तो शुभ की ठेकेदारिनें खड़ी हो गईं जिन्होंने उन्हें ये जताया कि वे कितनी अशुभ हैं, अपने ही बेटे के लिए।
एक मां के पेट से जन्मे, साथ बड़े हुए भाई-बहनों की विडम्बना देखिए कि अपने भाई की शादी में मंडप में मेघा उसके गठबंधन/हथलेवा की रस्म नहीं कर सकती क्योंकि वो तलाकशुदा है, उसकी जिंदगी का असर कहीं उनके दाम्पत्य को भी न भुगतना पड़े।
गोद भराई के कार्यक्रमों में निशा को कभी कोई याद नहीं करता। यदि करता भी है तो उससे बचने की कोशिश करते हैं क्योंकि उसको बच्चे नहीं होते। वो बांझ है।
सुहागिनों को हर तरह के शुभकार्यों में आने का लाइसेंस है चाहे वे कितनी ही कुटिल क्यों न हो। पर यदि वो विधवा है तो जीवन नरक है, चाहे वो दुखियारी औरत कितनी ही सज्जन क्यों न हो।
कभी देखा है आपने पुरुषों में इस दुर्व्यव्हार को होते? आयोजित किया कभी सधुर/विधुर भोज जैसे सुहागिन/विधवा स्त्रियों के मरने पर किये जाते। केवल सुहासिनें जिमाने का ये शौक जाने-अनजाने में कितनी मजबूर और निरीह औरतों का दिल दुखता होगा जो निर्दोष होतीं हैं और हम उन्हें यह अहसास दिलाने का दुष्कर्म करते रहते हैं की वे इस दुनिया में शापित हैं, जैसे उन्होंने अपने पति का भक्षण किया हो। मेरी निजी राय तो में तो ये विचार ही पापयुक्त है।
ऐसे ही अपने बच्चों को उन औरतों से, जिनके बालक न हों, ये सोच कर छुपाना कि नजर लग जाएगी कितना घृणित है। यदि उनके पति की किसी शारीरिक कमी का दण्ड वो भोग रही हैं तो क्या कभी पुरुषों में उस आदमी का बहिष्कार देखा है। बल्कि वो इस आड़ में कई शादियां भी कर लेता है।
तलाक का किसी को शौक नहीं होता। पर क्या कभी तलाकशुदा पुरुष को प्रताड़ित होते देखा है?
सधवा, विधवा, बांझ, डायन, छुट्टी, तलाकन, बदनजर जैसे कई केटेगरी में हम बांट दिए गए। आपस में ही विभाजित. शुभ-अशुभ की ठेकेदारिन। एक दूजे को धिक्कारती, घृणा करती, नफरत से देखती सौतिया डाह में दहकती औरतों कभी देखा है पुरुषों को इस हिकारत से? अधिकार मांग करने से नहीं छिनने से मिलते हैं, पर उसके लिए एकता होनी चाहिए। टुकड़े-टुकड़े देश, समाज और लोग कभी कामयाब नहीं होते। हम भी इसीलिए आज तक समानता का सुख और मां नहीं पा सकीं क्योंकि हममे फूट है।
मध्य काल में जब अवनति का दौर चला तब से और नारी जाति की दुर्गति आरंभ हुई। सती दाह प्रथा को वेदानुकूल घोषित करते हुए यह वेदमंत्र प्रस्तुत किया-
“इमा नारीरविधवाः सुपत्नीराञ्जनेन सर्पिषा सं विशंतु।
अनश्रवोऽनमीवा: सुरत्ना आरोहन्तु जनयो योनिमग्ग्रे।।” ऋग्वेद 10/18/7
-अर्थात ये पति से युक्त स्त्रियां गृहकार्य में प्रवीण होकर घृतादि पोषक भोज्य पदार्थ से शोभित हो स्वगृह में निवास करें। वे अश्रुरहित, रोगरहित सुन्दर रत्न युक्त एवं रम्य गुणों वाली बनाकर उत्तम संतानों को जन्म देने वाली स्त्री आएं।
मंत्र के नारीरविधवा शब्द का संधिविछेद बनता है- नारी अविधवाः ।
इसे बदलकर 'नारी विधवा कर दिया। पदच्छेद के समय र का 'अ बना परन्तु उन्होंने र को हटा ही दिया। आगे के अर्थ वही रखे- "पतिव्रता, घृतादि सुगन्धित पदार्थ से शोभित व अश्रुरहित होकर। मंत्र के अंत में आए शब्द योनिमग्ग्रे का अर्थ है आदरपूर्वक गृह में प्रवेश करे।
यही नहीं उन्होंने इसमें योनिमग्ने कर दिया। जिसका अर्थ यह हो जाएगा अग्नि में प्रवेश करें। अब बताओ जब वेदों से खिलवाड़ कर हमें अग्नि में जाने को विवश किया जा सकता है तो फूट डाल कर तो आसानी से समानता के अधिकार से वंचित रखा जा सकता है।
तो पहले जागो, समझो, समझदार बनो। कोसने को जीवन न बनाए। आपसी सामंजस्य के साथ हमदर्द बनें। संवेदना जगाएं। मान करें-सम्मान करें एक दूजे का। अपने आप समानता का अधिकार आपके हाथों होगा। विश्वास कीजिये दुनिया का सबसे पवित्र पल वो होता है जब एक औरत दूसरी औरत का सच्चेदिल से सम्मान करती है।