भाजपा के लिए यह साल बेहद उठा-पटक वाला रहा और अध्यक्ष से लेकर लोकसभा चुनाव में नेतृत्व के मुद्दे पर ऊहापोह की स्थिति बनी।
लोकसभा चुनाव में नेतृत्व के मुद्दे पर पार्टी के फैसले का विरोध करते हुए शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सभी पदों से इस्तीफा देकर पार्टी को झटका दिया हालांकि बाद में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दबाव में अपना फैसला वापस ले लिया। पार्टी ने गुजरात के बाद मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी लगातार तीसरी बार सरकार बनाकर वहां अपनी जमीन मजबूत की।
मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के विरोध में भाजपा के 17 वर्ष पुराने सहयोगी जनता दल (यू) ने नाता तोड़ दिया। इससे भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) गिने-चुने दलों का गठजोड़ बनकर रह गया, लेकिन शिरोमणि अकाली दल भाजपा के सबसे विश्वसनीय सहयोगी के रूप में उभरकर सामने आया।
तमाम आंतरिक संघर्षों से जूझते हुए आखिरकार मोदी के नेतृत्व में एकजुट होना तथा लोकसभा चुनाव के लिए मतभेदों से ऊपर उठकर संगठित होना भी भाजपा की बड़ी उपलब्धि रही।
वर्ष 2002 के गुजरात दंगा मामले में निचली अदालत से मोदी को क्लीन चिट मिलने से भाजपा को बड़ी राहत मिल गई। साथ ही पार्टी ने एक लड़की की जासूसी से संबंधित मामले की जांच के लिए आयोग गठित करने के केद्र सरकार के फैसले के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने का ऐलान करके कांग्रेस के खिलाफ नया मोर्चा खोलने का संकेत दे दिया।
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