संदिग्ध प्रत्यक्षदर्शियों को सामने लाकर मोदी के खिलाफ जो अभियान चलाया गया उन्हें सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बने विशेष जांच दल (एसआईटी) ने खारिज करते हुए झूठे और द्वेष भावना से प्रेरित बताया था। लेकिन, यह अभियान दब्बू मीडिया हाउसेज कांग्रेस पार्टी के सैनिकों की तरह काम करने वाले बुद्धिजीवियों की मदद से लगातार चलता है।
दंगों के वक्त क्या कदम उठाए थे मोदी ने... पढ़ें अगले पेज पर...
यह पहले भी बताया जा चुका है कि जब मोदी ने सत्ता संभाली तो उन्हें मु्ख्यमंत्री बने केवल साढ़े तीन माह हुए थे। राज्य की पूरी मशीनरी कांग्रेस के पहले शासन कालों में बार-बार दंगों के कारण पूरी तरह से साम्प्रदायिक हो चुकी थी। इसलिए मोदी ने दंगों को रोकने के लिए जो कदम भी उठाए तो उनके प्रशासन, राजनीतिक सहयोगियों ने उन्हें असफल बना दिया या फिर इन लोगों की मदद से उपद्रव चलता रहा।
मोदी को सैनिक इकाइयों को विमान से मंगवाने और जमीन पर तैनात करने में भी 20 घंटे लगे थे और तब तक दंगों ने विकराल रूप धारण कर लिया था। अगर किसी मुख्यमंत्री ने खुद ही दंगे करवाए हों तो वह भी इतनी शीघ्रता से सेना तैनात नहीं करवाता।
ठीक इसी तरह से अगर किसी मुख्यमंत्री (जो यह चाहता हो कि वह एक समुदाय विशेष का पूरी तरह से खात्मा करवा दे) अपने पड़ोसी राज्यों से पुलिस फोर्स भेजने की गुहार नहीं लगाता।
मोदी की गुहार, कांग्रेसी सरकारों का इनकार...पढ़ें अगले पेज पर...
गुजरात सरकार के गृह विभाग के अंडर सेक्रेट्री जेआर राजपूत के हस्ताक्षर सहित भेजा गया यह पत्र भारत सरकार को ही नहीं वरन मध्यप्रदेश शासन के मुख्य सचिव, महाराष्ट्र सरकार के मुख्य सचिव और राजस्थान के मुख्य सचिव को भेजा गया था। इन पत्रों में कहा गया था कि राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखने के लिए प्रत्येक राज्य से दस-दस कंपनियों की जरूरत है।
आखिर कितने दिन में मिला मोदी को दिग्गी का जवाब... पढ़ें अगले पेज पर....
उल्लेखनीय है कि इन तीनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी और मप्र में दिग्वजय सिंह, राजस्थान में अशोक गहलोत और महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख मुख्यमंत्री थे। इन तीनों ही मुख्यमंत्रियों ने गुजरात को दस-दस कंपनियां भेजने से इनकार कर दिया था।
इतना ही नहीं, गुजरात के गृह विभाग के तत्कालीन सचिव के. नित्यानंदम ने मध्य प्रदेश पुलिस के महानिदेशक को भी पत्र लिखा था। अन्य राज्य के पुलिस प्रमुखों को भी यही पत्र भेजा गया था। ये सभी पत्र 1 मार्च, 2002 को लिखे गए थे।
पर दिग्विजय सरकार की तत्परता की प्रशंसा करनी होगी कि उसने इस पत्र का जवाब देने में ही तेरह दिन लगा दिए और जवाब दिया कि राज्य सरकार पुलिस बल नहीं भेज सकती है। यह भी आश्चर्य का विषय है कि मप्र सरकार ने इस उत्तर को देते समय इसे 'गोपनीय' मार्क कर दिया था। आज दिग्विजयसिंह, मोदी के कटुतम आलोचक हैं और वर्ष 2002 के दंगों में उनकी संलिप्ता का गाना गाते नहीं थकते हैं, लेकिन क्या दंगा रोकने के गुजरात सरकार के प्रयासों में उन्होंने कोई मदद की थी? ...
तब क्यों चुप रह गए थे दिग्गी राजा... पढ़ें अगले पेज पर...
राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की बैठक में जब मोदी ने दिग्विजय से यही सवाल किया था तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। क्या ये पत्र यह नहीं बताते कि गुजरात के मुख्यमंत्री को दंगों को रोकने की जल्दी थी। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी है कि वे आधुनिक नीरो हैं, जिन्होंने गुजरात में आग लगी होने के बावजूद कुछ नहीं किया। यह टिप्पणी कहां तक उचित समझी जा सकती है? इस मामले में एसआईटी के वकील आरएस जमुआर की टिप्पणी पर गौर करना उचित होगा।
इस रिपोर्ट को अहमदाबाद के एक कोर्ट में तीस्ता सीतलवाड़ और जकिया जाफरी चुनौती दे रही हैं। एसआईटी की क्लोजर रिपोर्ट का बचाव करते हुए उन्होंने कहा था- 'जकिया आरोपी नंबर एक (मोदी) से क्या उम्मीद कर रही थीं? क्या मोदी को अपने हाथों में एके-47 लेकर दंगाई भीड़ पर काबू पाने के लिए राज्य में घूमना चाहिए था।'