नाश के कगार पर 'नाग देवता'

- संदीप सिंह सिसोदिया

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विश्व की कई सभ्यताएं प्राचीनकाल से नागों को पूजती आई हैं। भारत में भी सांपों को आदिकाल से ही पुजनीय माना जाता रहा है, पर यही प्रथा आज इनके नाश का एक कारण बन गई है। भारत में नागों के नाम पर एक विशेष पर्व 'नागपंचमी' मनाया जाता है। पर विडम्बना है कि इस त्योहार में पूजे जाने वाले नागों की आज इतनी बदतर स्थिति है कि उन्हें खतरे में पड़ी प्रजाति के तौर पर चिह्नित किया गया है ।

' सपेरों के इस देश' में सर्पों की दुर्दशा के कई कारण हैं जिसमें सबसे बड़ा कारण है आम लोगों में सर्पों के बारे में फैली भ्रांतियां। प्रकृतिगत स्वभाव से ही मनुष्य सांपों से डरता है और अकसर इसी वजह से खेतों-घरों व रिहायशी इलाके में सांप दिखते ही लोग उसे जहरीला समझकर मार डालते हैं।

भ्रांति के शिकार: विश्व की अब तक ज्ञात सांपों की 2500 प्रजातियों में से कुल 20 प्रतिशत को ही घातक माना गया है। दरअसल सांपों के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है। जैसे हर सांप को जहरीला माना जाता है पर असल में भारत में पाई जाने वाली सांपों की 272 ज्ञात प्रजातियों में से मात्र 58 ही जहरीली हैं, इनमें से भी कुछ प्रजातियों में तो महज इतना ही जहर होता है कि आदमी सिर्फ कुछ घंटों से लेकर दो-तीन दिनों के लिए सिर्फ बीमार भर पड़ता है। इंसान के लिए 'बिग फोर' कही जाने वाली 4 प्रजातियों का दंश ही जानलेवा साबित होता है।

भारत में पाई जाने वाली कुछ ही जातियां जैसे करैत, कोबरा, किंग कोबरा, सॉ-सकेल्ड तथा रसैल वाइपर (बिग फोर) ही मनुष्य के लिए घातक सिद्ध होती हैं, पर सभी सांप प्रकृतिवश मनुष्य का सामना करने से बचते हैं, सिर्फ आत्मरक्षा हेतु ही डसते हैं।

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धर्म बना विनाश का कारण: दूसरी वजह है भारत में सपेरों द्वारा धर्म के नाम पर किया जाने वाला अत्याचार। नाग 'देवता' को बंदी बनाकर घर-घर जाकर बीन बजा, लोगों को नाग देवता के दर्शन लाभ दे, अपना पेट पालने वाले सपेरे जाने-अनजाने इस प्रजाति के लुप्त होने में सहायक बन रहे हैं। इसके जहर से बचने के लिए अकसर सपेरे सांपों के डसने वाले दांत तोड़ देते हैं जिसके कारण संक्रमण व घावों से सांपों की असमय मौत हो जाती है।

कई सामाजिक संगठन और सर्प विज्ञानियों के अनुसार कैद में कोई भी सांप एक माह से अधिक जीवित नहीं रह पाता। सपेरों द्वारा पकड़े जाने पर अकसर सांप को भूखे रखे जाने (सांप दूध नहीं पीता), डिब्बे/थैले में सही प्रकार से नहीं रखे जाने, दम घुटने से, टूटे हुए दांतों-जबड़े के घाव में संक्रमण, बांस की छोटी-छोटी टोकनियों में जबरदस्ती लपेटे जाने से पसलियों के टूटने से तथा कई बार फांस लगने से उसकी मृत्यु हो सकती है।

हालांकि कानूनन सांप को पकड़ना, जीवित स्थिति अथवा उसकी खाल तथा मांस का उपयोग तथा बिक्री को 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम द्वारा प्रतिबंधित किया गया है।

दवा से होता दर्द : इसके अलावा बहुत से सपेरे व तथाकथित सांप पकड़ने वाले, सांपों के विष को निकालकर ऐसे संस्थानों को विष की आपूर्ति करते हैं जहां सांप के विष की प्रतिरोधी दवाई 'स्नेक एंटीडोट' बनाई जाती है पर दुर्भाग्य से वे विष निकालने में कुशल नहीं होते और इस प्रयास में सांपों के दांत तोड़ बैठते हैं।

ध्यान देने वाली बात है कि सर्पविष में भोजन पचाने के लिए जरूरी एंजाइम होते हैं और सांप जब अपने शिकार को काटता है तब विष के प्रभाव से शिकार सांप द्वारा निगले जाने से पहले ही गलना शुरू हो जाता है। किसी भी सांप में असीमित विष नहीं होता, इसलिए सांप अपने जहर का इस्तेमाल सोच-समझकर ही करते हैं।

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जंगलों में अतिक्रमण से खत्म होते आवास : कुछ वर्ष पहले तक दक्षिण भारत के जंगलों में किंग कोबरा को बहुत ज्यादा ढूंढना नहीं पड़ता था, पर अब वे जंगल के बहुत ही घने इलाकों में भी बिरले ही दिखाई देते हैं। इंसानों द्वारा जंगलों में अतिक्रमण करने से बहुत से वन्य जीवों के आवास खत्म हो गए हैं जिसमें सांप भी हैं। साथ ही इंसानों द्वारा बनाए गए अनाज भंडारों तथा खेतों में फैले चूहों को खाने सांप आते हैं तब अनचाहे उनका सामना इंसानों से हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप अकसर सांप की मौत होती है।

सुंदर खाल बनी जंजाल: सांपों की चमकदार खाल ने इसकी मुसीबत और बढ़ा दी है। खाल की तस्करी ने भी इस प्राणी को बहुत नुकसान पहुंचाया है। सांप की खाल से बनने वाले पर्स, टाई, जूते तथा अन्य वस्तुएं विदेशों में बहुत पसंद की जाती हैं और भारी कीमत पर बिकती हैं। इस विनाशक व्यापार को तुरंत बंद करना चाहिए।

सांप की लंबाई मृत्युपर्यंत बढ़ती रहती है और इसलिए उन्हें लगातार केंचुली बदलना पड़ती है जिस वजह से वे हमेशा और अधिक सुंदर और चमकदार दिखते हैं। इस वजह से लोगों में कई प्रकार की भ्रांतियां हैं। जैसे सांप अमर होते हैं, इच्छाधारी होते हैं इत्यादी।

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सर्प अंगों का बढ़ता व्यापार : इसी तरह से वियतनाम तथा उत्तर-पूर्व एशिया के कुछ देशों में स्नेक वॉइन की बड़ी मांग है जिसे बनाने के लिए जीवित सांप को पेट के बीच में से चीरकर चावल की शराब से भरी बोतल में रखा जाता है, इसके अलावा सांप के शरीर के अन्य अंग भी विभिन्न प्रकार की मदिरा बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।

सांप के जहर में मौजूद प्रोटीन इस शराब में धीरे-धीरे मिलता जाता है। लोगों का मानना है कि यह वाइन पीने से कामोत्तेजना बढ़ती है। अब यह तो पता नहीं कि इसे पीने से किसी की कामोत्तेजना को बढ़ावा मिलता है या नहीं, मगर इससे एक शानदार प्राणी को इस धरती से मिटा देने की प्रवृत्ति को जमकर बढ़ावा मिलता है।

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पर्यावरण के मित्र : चूहों व कृंतकों का सफाया करने में सांपों का कोई सानी नहीं है। अनुमानतः एक सांप हर साल 200 से ज्यादा चूहे/कृंतक खा सकता है। धान के खेतों में अगर सांप नहीं हो तो चूहे सारी फसल कटाई से पहले ही चट कर जाएं। जंगल में जमीन पर पड़े बीजों को भी यह कृंतक खूब खाते हैं, इसलिए इनके मुख्य शिकारी, सांपों को पर्यावरणतंत्र में एक बहुत महत्वपूर्ण जगह हासिल है।

नागलोक से स्वर्ग की ओर : दंतकथाओं के अनुसार इन्हें नागलोक का वासी माना जाता रहा है। इंसान के लोभ व प्रकृति के प्रति गैरजिम्मेदाराना रुख के चलते सदियों पहले मिस्र के फैरोह के मुकुटों तथा पिरामिडों की दीवारों पर उकेरे गए नाग से लेकर भारत के मंदिरों की मूर्तियों में पूजे जाने वाले सांप शायद आने वाले दिनों में स्वर्गलोक पहुंच 'सचमुच के देवता' बन जाएंगे जो सिर्फ चित्रों और मूर्तियों में ही दिखाई पड़ेंगे।

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