महँगाई की मार से घटा रावण का कद

Webdunia
रविवार, 10 अक्टूबर 2010 (10:54 IST)
महँगाई ने जहाँ आम आदमी को आटे, दाल का भाव याद दिला दिया है, वहीं इसकी मार से रावण का ‘कद’ भी घट गया है। विजयदशमी या दशहरा पर देशभर में रावण के साथ कुंभकर्ण और मेघनाद का पुतला जलाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।

दिल्ली में विभिन्न स्थानों पर पुतले बनाने का काम विजयदशमी से दो-ढाई महीने पहले से शुरू हो जाता है और जगह-जगह सड़कों के किनारे पुतले रखे दिखाई देने लगते हैं। लेकिन इस साल महँगाई की मार के साथ कॉमनवेल्थ गेम्स की वजह से लगी पाबंदियों के चलते पुतले बनाने का काम काफी धीमा चल रहा है।

पुतला बनाने वाले कारीगरों के अनुसार, इस साल पुतलों की माँग काफी घट गई है। पुतले बनाने में काम आने वाली सामग्री के दाम पिछले साल की तुलना में दोगुने हो चुके हैं। साथ ही कॉमनवेल्थ गेम्स की वजह से भी इस बार पुतलों के काफी कम ऑर्डर ही मिल पाए हैं।

इससे रावण का कद घट गया है यानी छोटे पुतलों के ऑर्डर ही मिल रहे हैं, वहीं इसके भाव भी बढ़ चुके हैं। दूसरी ओर कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतलों के तो खरीदार ही नहीं मिल रहे।

पश्चिमी दिल्ली का तातारपुर गाँव पिछले कई सालों से रावण के पुतलों का प्रमुख केंद्र रहा है। यहाँ के कारीगरों के मुताबिक, महँगाई के साथ कॉमनवेल्थ गेम्स की वजह से इस बार पुतलों की माँग काफी घट गई है।

पिछले साल तक जहाँ 50 फुट के पुतलों का दाम 5,000-6,000 हजार रुपए था, वहीं इस साल यह 8,000 से 9,000 रुपए पर पहुँच गया है। महेंद्र और सुभाष रावण वाले के महेंद्र कहते हैं कि पिछले साल रावण के पुतलों का दाम 100-125 रुपए प्रति फुट था, वहीं इस बार यह 150 से 200 रुपए प्रति फुट पर पहुँच गया है।

करीब 35 बरस से रावण के पुतले बना रहे महेंद्र ने कहा कि इस साल रावण के पुतले बनाने की सामग्री काफी महँगी हो गई है। पिछले साल 20 बाँस 800 से 900 रुपए में मिल जाते थे, वहीं इस साल इनका दाम 1,700-1,800 रुपए पर पहुँच गया है।

तातारपुर गाँव की पहचान रावण के पुतलों की वजह से ही है। सत्तर के दशक में यहाँ छुट्टन लाल ने रावण के पुतले बनाने की शुरुआत की थी। इस वजह से उनका नाम ‘रावण वाला बाबा’ पड़ गया था। आज उनके कई शार्गिद इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।

पुतला बनाने वाले कारीगर मुख्यत: उत्तर प्रदेश और हरियाणा से आते हैं। रावण वाला बाबा के एक अन्य शार्गिद नरेश कुमार बताते हैं कि तातारपुर में हर साल 1,500 रावण के पुतले बनते थे। पर इस बार यह आँकड़ा ज्यादा से ज्यादा 1,000 पर ही पहुँच पाएगा।

हरियाणा के करनाल से यहाँ पुतला बनाने आए कारीगर सुभाष ने कहा कि वह अगस्त से अक्तूबर तक पुतला बनाने हर साल तातारपुर जरूर आते हैं। बाकी महीनों में किसी फैक्टरी में काम करते हैं।

नरेश का कहना है कि तातारपुर में हम पाँच से लेकर पचास फुट तक के रावण बनाते हैं। इस बार महँगाई की वजह से ऑर्डर कम आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि महँगाई के साथ इस बार कॉमनवेल्थ गेम्स की वजह से भी सड़कों के आसपास पुतले रखने में काफी परेशानी आ रही है। कॉमनवेल्थ गेम्स की वजह से जो बंदिशें लगाई गई हैं, उससे रामलीला के आयोजक अभी ऑर्डर देने से कतरा रहे हैं।

कारीगरों का कहना है कि रावण के पुतलों की माँग घट गई है, तो वहीं कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतलों के लिए ऑर्डर ही नहीं मिल रहे हैं।

एक अन्य कारीगर प्रवीण ने कहा कि तातारपुर के रावण दिल्ली के अलावा हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक जाते हैं। इस बार भी इन राज्यों से ऑर्डर मिले हैं। कभी यहाँ के पुतले ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अमेरिका तक जाते थे। पर अब विदेशों से पुतलों के ऑर्डर नहीं मिलते हैं।

बॉलीवुड की एक फिल्म के रावण दहन के दृश्य के लिए पुतला बना चुके महेंद्र कहते हैं कि इस काम में अब वह आकर्षण नहीं बचा है, जो 15-20 साल पहले होता था। अपनों बच्चों को मैं इस पेशे में नहीं लाउँगा।

महेंद्र ने बताया कि पिछले साल उन्होंने 100 पुतले बनाए थे, पर इस साल अभी तक 25 पुतलों के ही ऑर्डर मिले हैं। कुंभकर्ण और मेघनाद के वह सिर्फ चार-पाँच पुतले ही बनाएँगे।

बहरहाल सदियों पुरानी इस परंपरा को जीवित रखने वाले इन कारीगरों की उम्मीद इस बात पर टिकी है कि कॉमनवेल्थ गेम्स समाप्त होने के बाद पाबंदियाँ हटेंगी और रामलीला आयोजकों की आशंकाएँ दूर होंगी, जिससे उन्हें पुतलों के ऑर्डर मिलेंगे। (भाषा)

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