'अफ्सपा' की जरूरत तो हमेशा रहेगी

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आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पॉवर्स) एक्ट (एएफएसपीए-अफ्सपा) को हम चाहे जितना बुरा, कठोरतम और क्रूरतम कानून बताएं लेकिन हकीकत यही है कि भारत जैसे देश में इस कानून की जरूरत देश की स्वतंत्रता से पहले भी थी और इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भविष्य में भी इसकी जरूरत बनी रहेगी। 
सबसे पहला तर्क यह है कि अगर इसकी जरूरत नहीं होती तो यह अस्तित्व में ही नहीं आता और अगर इसकी जरूरत नहीं रहेगी तो यह अपने आप समाप्त हो जाएगी। लेकिन इससे पहले जान लें कि इस कानून की किन परिस्थितियों में जरूरत पड़ी और क्यों भविष्य में भी इसकी उपयोगिता समाप्त नहीं होगी। 
 
जब भी देश के किसी कोने में अराजकता, उग्रवाद, दंगा-फसाद फैलता है और जब इसे स्थानीय पुलिसबल या अर्द्धसरकारी सैन्यबल इस पर काबू पाने में असमर्थ और असहाय होते हैं तो फिर अंतिम विकल्प के तौर पर सेना की मदद ली जाती है। लेकिन यह मदद सेना अपनी ओर से खुद नहीं देती वरन इसके संबंधित राज्य या क्षेत्र की शासन व्यवस्था को केंद्र सरकार से लिखित अनुरोध करना होता है और इस बात की सार्वजनिक घोषणा करनी पड़ती है कि अमुक-अमुक क्षेत्रल भू-भाग या इलाका अराजकता की चपेट में हैं और स्थानीय, राज्य प्रशासन इस स्थिति पर काबू पाने में असमर्थ है तो राज्य सरकार के अनुरोध पर इसे 'अशांत क्षेत्र' घोषित किया जाता है। 
 
जब केंद्र सरकार एक बार इसे अशांत क्षेत्र (डिस्टर्ब्ड एरिया) घोषित कर देती है तो क्षेत्र में कानून-व्यवस्था की बहाली के लिए सेना सक्रिय होती है और जो अराजक तत्व हैं, उनका सफाया करना शुरू कर देती है। ऐसा नहीं है कि कानून-व्यवस्था की बहाली के हथियार को लेकर हमारी शुरुआती संसद के नेताओं ने विचार-विमर्श नहीं किया था। संविधान निर्माता सभा में इसको लेकर बहस हुई थी, जहां पर उन परिस्थितिजन्य जरूरतों पर विचार किया गया था जिसके कारण इस तरह के कानून की जरूरत समझी गई थी। एक लंबे सोच-विचार और विमर्श के बाद ही इस विवादास्पद कानून को अपनाया गया था। इसके कानूनसम्मत और मानवाधिकारों संबंधी पक्षों पर भी विचार किया गया था। 
 
आजकल चूंकि वैश्वीकरण और पश्चिमी देशों के दबाव के कारण मानवाधिकारों का मामला उठाया जाता है लेकिन अब तक दुनिया में कहीं उन लोगों के मानवाधिकारों की बात नहीं की गई, जो कि वर्दी में होने के कारण देश के अंदर या बाहर ही नहीं, वरन चारों ओर से तमाम तरह के खतरों से घिरे होते हैं। ऐसा लगता है कि देश, समाज, कानून और इसके रखवालों को सभी की परवाह होती है लेकिन सैनिकों, अर्द्धसैनिक बलों के जवानों और पुलिसकर्मियों के मानवाधिकारों पर विचार करने की जरूरत नहीं होती। ऐसे मामलों में न्यायालयों का बड़ा प्रो-एक्टिव रुख होता है और वे अफ्सपा के अंतर्गत सुरक्षाकर्मियों को मिलने वाले छुटकारे के अधिकार (इम्युनिटी) को गैरजरूरी समझते हैं। उनका कहना है कि 'पूरी तरह से दोषमुक्ति (एब्सोल्यूट इम्युनिटी) जैसी कोई चीज नहीं होती है।'
 
हालांकि इस तरह की दोषमुक्ति राजनयिकों, संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों और ऐसे लोगों को भी मिलती है जिन्हें अपनी जान जोखिम में डालकर कोई काम नहीं करना पड़ता है, लेकिन ऐसे लोगों पर न्यायालय या कानून कभी कोई उंगली नहीं उठाता है। इस मामले में तो सुप्रीम कोर्ट का तो यहां तक कहना है कि 'सुरक्षा बलों के हाथों होने वाली प्रत्येक मौत की जांच होनी चाहिए भले ही मृत व्यक्ति खतरनाक अपराधी, चरमपंथी, उग्रवादी या आतंकवादी ही क्यों न हो।' हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने 7 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के सामने चिंता जताई और सुरक्षा बलों को इस कानून के अंतर्गत मिल रही छूट पर अपनी खीझ निकाली। 
 
कोर्ट में आयोग के वकील गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा कि 'सुरक्षा बल मानवाधिकार संबंधी अपराधों को छिपाने के लिए इस कानून का सहारा लेते हैं। उनका कहना था कि कोई भी सरकार यह नहीं कह सकती है कि 'मानवाधिकारों के उल्लंघन' के लिए वह जिम्मेदार नहीं है।' स्वतंत्रता से पहले घोर अराजकता की स्थिति का सामना करने के लिए बंगाल, पूर्वी पंजाब, दिल्ली और पूर्वोत्तर के सीमांत प्रदेश (नेफा) में समय-समय पर अफ्सपा का उपयोग किया गया था लेकिन सुरक्षा बलों को ताकीद दी गई थी कि वे इतना बल प्रयोग नहीं करें जिससे कि किसी व्यक्ति की मौत हो जाए। तब भी केवल और पूर्वी पंजाब में अध्यादेश जारी कर सेना को आदेश दिया गया था कि वह दंगाइयों, उपद्रवियों, हिंसा, आगजनी और हत्याएं कर रहे लोगों पर इतना बल इस्तेमाल कर सकती है कि ज्यादा बल प्रयोग के मामले में इन कामों में लगे लोगों की मौत भी हो सकती है। 
 
जब ऐसे अध्यादेश कई राज्यों में जारी किए गए तो सरकार को 1948 में अफ्सपा को बनाना पड़ा जिसके तहत सुरक्षा बलों को अधिकार मिले कि जरूरत पड़ने पर हिंसा में लगे लोगों पर गोली भी चला सकते हैं और उन्हें मार भी सकते हैं। बाद में वर्ष 1958 में आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पॉवर्स) बिल संसद में पास किया गया था। तत्कालीन रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह ने संसद में बहस के दौरान इस कानून के उद्देश्यों और लाए जाने के कारणों पर अपना बयान दिया था। उनका कहना था कि 'तब पंजाब में इतने बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे हुए कि राज्य का प्रशासन इन्हें दबाने में पूरी तरह नाकाम रहा। पुलिसकर्मी भी विभिन्न कारणों से अपना काम अच्छी तरह से नहीं कर सके और कुछ मामलों में पुलिस ने ठीक काम करने से ही इंकार दिया।' (उल्लेखनीय है कि कश्मीर घाटी में बुरहान वानी की हत्या के बाद घाटी के दक्षिणी हिस्से के 39 पुलिस थानों में से 33 पर कोई भी पुलिसकर्मी अपनी ड्‍यूटी करने नहीं आया था। पुलिसकर्मियों को डर था कि उपद्रवी और दंगाई लोग उनके परिचित थे और वे कभी भी उनकी हत्या भी कर सकते थे।)
 
चूंकि उस समय के पुलिस बल में एक ही समुदाय के 90 फीसदी लोग थे इसलिए सांप्रदायिक दंगों को दबाने के लिए राज्यों को सैन्य बलों की मदद लेनी पड़ी। लेकिन तब भी स्थिति में खास सुधार नहीं आया था, क्योंकि सुरक्षा बलों की संख्या बहुत कम थी वरन सैनिकों को सारे देश में तैनात करना पड़ा था लेकिन उस समय के कानून के मुताबिक सैनिकों को गोलियां चलाने की अनुमति नहीं थी। तब ऐसा नहीं था कि वोट बैंक की खातिर एक क्षेत्रीय दल लोगों पर गोलियां चलवाकर एक संप्रदाय विशेष के लोगों को आश्वस्त करती कि वे ही उनकी रक्षा कर सकते हैं। तब लोगों, स्थानीय सरकारों और प्रशासन ने एक ऐसे कानून की मांग की थी, जो कि 'अतिवादी' और कठोर होने के कारण प्रभावी भी हो। इसके और अधिक प्रभावी किए जाने की एक बात यह भी थी कि पंजाब से शुरू हुई अराजकता यूपी, बंगाल और असम तक फैल गई थी, तब इन कारणों से भारत सरकार को इस अध्यादेश को कानून में बदलना पड़ा और इसके प्रभाव क्षेत्र को भी बढ़ाना पड़ा। 
 
प्रारंभ में यह केवल 1 वर्ष के लिए लागू किया गया था लेकिन बाद की परिस्थितियों में इसे बार-बार संशोधित करना पड़ा और इसके दायरे को बढ़ाना पड़ा। शुरू में देश के कई भागों की विधानसभाओं, निकायों में इसका लोगों ने विरोध किया लेकिन उन्हें समझाना पड़ा कि यह एक अनिवार्य बुराई है और अगर संसार में बंदूक की जरूरत नहीं होती तो बंदूक का आविष्कार भी नहीं हुआ होता।
 
पहले इन कानूनों को आपराधिक दंड संहिता के प्रावधानों के साथ लागू करने की कोशिश की गई बाद में महसूस किया गया कि भयानक हिंसा, दंगे-फसाद के दौरान अगर कोई मजिस्ट्रेट या प्रशासनिक अधिकारी मौजूद न हो तो गोली चलाकर स्थिति को काबू में लाने का विकल्प सेना के अधिकारियों पर छोड़ दिया जाए।
 
कानून के जानकारों और सांसदों ने इन मुद्दों पर बड़ी बारीकी से विचार किया था और निष्कर्ष निकाला कि सुरक्षा बलों का भी वही चरित्र होगा, जो कि देश के लोगों का चरित्र होगा। आप उनसे भी अलग व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते हैं? अगर पुलिस खराब है, पुलिसकर्मी भ्रष्ट हैं तो ऐसा नहीं है कि सैनिक का चरित्र भी बहुत ऊंचा होगा? आखिर पुलिस, प्रशासन, सेना हमारे ही समाज के अंग हैं और इसी से बने हैं इसलिए स्थिति की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए सेना को स्थिति को काबू में करने के लिए बुलाया जाता है। स्वतंत्रता से पहले और बाद के पंजाब में हुए सांप्रदायिक दंगों में जब मुस्लिम बहुल पुलिस फेल हो गई तो बलूचियों को बुलाया गया लेकिन उन्होंने इतनी सख्ती की जितनी कि पंजाबी पुलिसकर्मियों ने नहीं की थी।
 
इस कारण से सेना को नागरिक प्रशासन की स्थिति को काबू में पाने के लिए इतनी सुरक्षा बरती जानी चाहिए कि सैन्य बल अपने अधिकारों का कम से कम दुरुपयोग कर सकें। गुजरात के प्रसिद्ध शिक्षाविद, वकील और लेखक केएम मुंशी का मानना था कि राज्य सरकारों को यह अधिकार दिया जाए कि वे सेना की मदद पाने के लिए अशांत क्षेत्र घोषित करने के लिए स्वतंत्र हों। तब के सांसदों और मंत्रियों का मानना था कि 'सत्ताधीश सरकारों को इतना कमजोर और भयभीत नहीं बना दिया जाना चाहिए कि वे नागरिक अधिकारों के नाम से ही डरने लगें और कोई कड़ा कदम न उठाकर स्थिति को और खराब बनाने का काम करें।' तत्कालीन रक्षामंत्री बलदेव सिंह का कहना था 'हमारे पास सैनिक शासन से कमतर यही एकमात्र विकल्प है जिसका हम सहारा ले सकते हैं।'
 
उस समय भी केवी कामथ ने अफ्सपा को 'कठोर और असाधारण अधिकारों से संपन्न' बताया था और कहा था कि यह लोगों के मूल अधिकारों की भावना के खिलाफ है। उनका कहना था कि पुलिस बलों को यह संदेश नहीं दिया जाए कि 'उनकी क्षमताओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। यह कानून युद्धकाल में नहीं बनाया जा रहा है और भारत में इस समय शांति है लेकिन हम सेना को ऐसे अधिकार देने जा रहे हैं, जो कि हमें तस्वीर के काले पक्ष को देखने से रोकता है।' 
 
लेकिन स्वतंत्र भारत के 70 वर्षों के दौरान यह निष्कर्ष निकालना गलत नहीं होगा कि अगर कश्मीर का एक भाग भारत में है तो इसका श्रेय केवल सुरक्षा बलों को ही दिया जा सकता है। इसी तरह भारत में ऐसे कई हिस्से हैं, जो कि सैनिकों की तैनाती का विकल्प न होने की हालत में आसानी से भारत से अलग हो सकते हैं। वास्तव में यह एक ऐसी अनिवार्य बुराई है जिसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता है।
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