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इस नोटबंदी के अच्छे-बुरे सभी पहलुओं को अलग हटाइए। इसमें कोई शक नहीं कि ये बहुत बड़ा और ऐतिहासिक कदम है। देश में चलन में मौजूद 86 प्रतिशत नकदी को 4 घंटे में चलन से बाहर कर देना कोई हँसी-खेल नहीं है। डीमॉनिटाइज़ेशन या विमुद्रीकरण या नोटबंदी कोई ऐसा अर्थशास्त्रीय प्रयोग नहीं है जिसे आज गढ़ा गया हो। ये किताबों में पहले से मौजूद है। अपने ही देश में ये 1946 और 1978 में प्रयोग में लाया जा चुका है। पर तब में और अब के भारत में ज़मीन-आसमान का अंतर है। भारत दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। नौकरीपेशा लोगों को मिलने वाली तनख़्वाह के पैसे एटीएम से मिलने के कारण ये बड़े यानी 500-1,000 के नोट ईमानदारी से कमाने वालों के पास भी बहुतायत में थे। ऐसे में देवउठनी ग्यारस के ठीक बाद मांगलिक कार्यों और फसल की बुवाई के समय कालेधन पर हुए इस लक्षित हमले ने निश्चित ही एक बड़े तबके को परेशानी में भी डाला है। 
इस जबर्दस्त फैसले के बाद शुरुआती प्रतिक्रियाएँ अधिकतर सकारात्मक ही थीं। सभी ने जय-जयकार के नारे लगाए। विपक्ष को तो जैसे साँप सूँघ गया, पर 48 घंटे बाद स्वर बदलने लगे। बहस तेज हो गई। स्वर कर्कश होने लगे। लकीर-सी खिंच गई। नोटबंदी के पक्ष और विपक्ष में बहुत ही भावुक और तर्कपूर्ण दोनों ही तरह का आवेग है। कुछ लोग भ्रमित भी हैं और इसे बस देख रहे हैं। हालाँकि जिस तरह के विमर्श चल रहे हैं वो आपको बीच में खड़े रहने की इजाजत नहीं दे रहे। वाचालता और मुद्दों का आदान-प्रदान इतना तीव्र है कि वो आपको पक्ष लेने को मजबूर कर रहा है। एक बड़ी दिक्कत ये है कि इस बड़े कदम के दूरगामी (अच्छे-बुरे दोनों ही) परिणामों का सही आकलन होने में भी अभी काफी वक़्त लगेगा। अभी जो बहस हो रही है वो केवल तात्कालिक प्रभावों को लेकर हो रही है। जो हो रहा है वो भी सच है इसीलिए दोनों ही तरफ असीमित धैर्य की आवश्यकता है। 

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हम 'वेबदुनिया' के माध्यम से कुछ सवाल उठा रहे हैं। कुछ जवाब भी तलाश रहे हैं। ये सवाल वही हैं, जो लोगों के दिमाग में और सोशल मीडिया पर ख़ूब घूम रहे हैं। ऐसा ही एक मामला ये भी है कि वो लोग जो इस नोटबंदी के प्रबाल पक्षधर हैं- राजनीतिक सोच से परे और वो लोग, जो प्रधानमंत्री मोदीजी के समर्थक हैं और वो सभी जो भाजपा समर्थक हैं, वो नोटबंदी के विरोध में उठने वाली आवाज़ों, पोस्ट्स, आलेखों और आलोचनाओं के जवाब में अपना पक्ष भी रख रहे हैं। कहीं वो बहुत अधीर भी हो रहे हैं। कहीं वो विरोध को सुनना ही नहीं चाहते।
आइए इसको भी देख-समझ लें- 
 
1. ज़रूरी नहीं कि नोटबंदी के विरोध में उठने वाली हर आवाज़ आपकी शत्रु ही हो। 
2. गौर से देखें तो अधिकतर आवाज़ें ये कह रही हैं कि- अच्छा निर्णय लेकिन इसका क्रियान्वयन और बेहतर हो सकता था। 
3. कुछ आवाजें बस सचेत करने वाली हैं- कि केवल इतना ही काफी नहीं है, कालेधन के ख़िलाफ़ इस लड़ाई में अभी से जश्न और उत्सव मनाने की ज़रूरत नहीं है। ये बड़ा कदम है, पर सिर्फ ये ही काफी नहीं है। 
4. आप पहले दिन से ही इस सबकी तुलना सेना के बलिदान से करने लगे!!! क्या हर त्याग और बलिदान इसी से सही सिद्ध होगा? हमने राष्ट्रभक्ति की परिभाषा गढ़ने में जो ग़लती की वो हम भयंकर रूप में इस कठिन समय में फिर दोहरा रहे हैं। सेना को तैयार किया जाता है इन विशेष परिस्थितियों के लिए। वो बहुत अलग मामला है। देश तैयार नहीं था इस झटके के लिए। जिन्होंने ग़लत किया है उनके लिए ये झटका अगर बहुत ज़रूरी था तो ये भी सच है कि गेहूँ के साथ घुन भी पिसा है। और दुर्भाग्य से घुन की संख्या बहुत ज़्यादा है। अगर इस गेहूँ को अलग से पीस पाना व्यवस्था के लिए संभव नहीं था तो दोष किसका है? 
5. जिन्हें सचमुच तकलीफ हुई है उनका मजाक मत उड़ाइए। उनके साथ खड़े रहिए। 
6. जो लोग इन आवाज़ों पर सवार होकर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकना चाहेंगे, वो धड़ाम से गिरेंगे। जो आवाज़ उठा रहे हैं उन्होंने आज तक कालेधन से इस देश को निजात दिलाने के लिए क्या किया, ये भी एक सवाल है। 
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7. अगर नोटबंदी के प्रबल समर्थक होते हुए भी आप ये चाहोगे कि कोई सवाल ही ना उठाए, इस प्रक्रिया में लोगों को जो तकलीफ हुई है उसको बयान ही ना किया जाए तो ज़्यादा नुकसानदायक होगा। ये दबी हुई आवाज़ें आगे जाकर ज़्यादा घातक सिद्ध होंगी। लोग उनको बरगलाकर अराजकता फैला सकते हैं। 
8. अगर क्रियान्वयन की और योजना की कमी को तथ्यपूर्ण तरीके से रखा जा रहा है तो उसका स्वागत कीजिए। कहिए कि हाँ कमी रही होगी। ये ईमानदारी और स्वीकारोक्ति बहुत ज़रूरी है इस समय। 
9. ये कोशिश मत कीजिए कि सारे लोग बस समर्थन ही करें, आरती ही उतारें, नोटबंदी को लेकर बस जय-जयकार ही करें। उन्हें धिक्कार कर राष्ट्रविरोधी कह देना तो बिलकुल ही गलत है। 
10. जो लोग केवल विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं वो बेनकाब होंगे। 
11. अगर यही कदम कांग्रेस ने उठाया होता (मान लिया कि मुश्किल है) तो- तो?
12. जो सिर्फ अपनी तकलीफ बयान कर रहे हैं उनके साथ खड़े रहिए। वो ना इससे ज़्यादा सोच सकते हैं और ना ही हमें उम्मीद करनी चाहिए। इस देश में बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जो तथ्यों और तर्कों से बात करने का ना माद्दा रखते हैं, ना ज्ञान। फिर भी वो इसी देश के हैं। 
13. सारा देश तो आज़ादी की लड़ाई में भी एकसाथ नहीं आ पाया था। तब भी बहुत से लोग थे, जो बाकायदा अंग्रेज़ों की नौकरी करते थे, जो आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों को पकड़वा देते थे। आज भी ऐसे कई लोग हैं, जो मानते हैं कि इससे तो अंग्रेज़ ही बेहतर थे!! 
14. आप अगर मानते हैं कि ये भी देश को कालेधन से मुक्ति दिलाने की वैसी ही एक लड़ाई है और इससे देश सही मायने में आज़ाद हो जाएगा तब तो आपकी भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है। कुछ लोग सचमुच पिसे हैं। देश में बैंकिंग सुधार हुए बिना ही ये बड़ा कदम उठ गया है। अब तेज़ी से बैंकिंग सुधार होंगे, पर उसमें जो लोग पिसेंगे या पिस रहे हैं उनका मखौल मत उड़ाइए। 
15. इस मुश्किल वक्त में भी लोगों ने व्यवस्था में सेंध लगाकर अपना उल्लू सीधा किया है। ये सच है। इस कमी को स्वीकारना होगा, क्योंकि अभी सिर्फ़ नोट बदले हैं, प्रवृत्ति नहीं। 
16. यहाँ से आगे अब देश को बदलने में बहुत सारी ताकत, ऊर्जा, धैर्य सही सोच की ज़रूरत है। (वेबदुनिया न्यूज)
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