भाई का नहीं, प्रदेश की ‘अव्‍यवस्‍थाओं’ का शव गोद में लिए बैठा है 8 साल का गुलशन

नवीन रांगियाल
सोशल मीडिया के दौर में तकरीबन रोजाना ही वीडियो और तस्‍वीरें वायरल होती हैं, लेकिन हाल ही में जो तस्‍वीर सामने आई उसे देखकर मानवता पर शर्म महसूस होती है, दिल पसीज जाता है और मन में सवाल आता है कि आखिर ये किस समाज और व्‍यवस्‍था में हम रहते हैं।

दरसअल, यह तस्‍वीर 8 साल के गुलशन की है। गुलशन मुरैना के जिला अस्‍पताल के ठीक के सामने अपने 2 साल के भाई छोटे भाई का शव गोद में लिए बैठा है। वो इसलिए शव को गोद में लिए बैठा है, क्‍योंकि उसके पिता एंबुलेस की तलाश में गए हैं। जब तक पिता वापस नहीं लौट आए वो इसी तरह अपने भाई के शव को गोद में लिए वहां भिनभिनाती हुईं मक्‍खियों को हटाता रहा।

जब एक गरीब बाप को अपने 2 साल के बेटे के शव को घर ले जाने के लिए एक अदद सरकारी एंबुलेंस न मिले देश का नागरिक होने का गौरव एक बेमानी सा लगता है। मासूम गुलशन को हालांकि पता नहीं है कि सिस्‍टम या व्‍यवस्‍था होते क्‍या है, लेकिन तस्‍वीर में उसके चेहरे पर अपने भाई की मौत का दुख है और व्‍यवस्‍था के प्रति उसका गुस्‍सा साफ नजर आता है।

तस्‍वीर जैसे ही वायरल हुई सोशल मीडिया में लोगों का गुस्‍सा फूट पड़ा। तरह तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई। कोई भावुक हुआ, कोई दुखी तो कोई रो पड़ा। अंतत: आज तीन दिनों के बाद हम सब उस घटना को भूल गए। अगर कोई नहीं भूला तो वो गुलशन और उसके पिता ही हैं। हम सब अपने अपने काम पर लौट आए हैं।

किसी का लिखा एक शेर याद आता है...
‘मुझे बर्दाश्‍त करने की नसीहत देने वालों, मेरी जगह आकर बर्दाश्‍त करो’

ये दृश्‍य समाज और सिस्‍टम में आम हो चले हैं। हम एक समाज और एक सिस्‍टम के तौर पर असंवेदनशील हो गए हैं। एकबारगी मान भी लेते हैं कि अपनी व्‍यस्‍तता और दौड़ती भागती जिंदगी की वजह से हम अपने सामाजिक दायित्‍व निभा नहीं पाते हैं, लेकिन उस सिस्‍टम का क्‍या जो अपने नागरिकों को सुविधाएं देने के लिए बाध्‍य और जवाबदेह है।

आखिर इसी तरह की स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं और मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए ही तो हमने मतदान कर के जनप्रतिनिधियों को उस स्‍थान पर काबिज किया जहां से व्‍यवस्‍थाओं को सुचारू रूप से चलाया जा सके।

ऐसे में अगर एक जिला मुख्‍यालय पर एक गरीब पिता को अपने 2 साल के मासूम बेटे के लिए एक एंबुलेंस के लिए देर तक बैठना पड़े और उसके दूसरे बेटे को शव को गेाद में रखकर पिता का इंतजार करना पड़े तो क्‍या हम यह समझ लें कि प्रदेश में व्‍यवस्‍थाओं की भी अर्थी निकल चुकी है?

अपने भाई के शव को गोद में लेकर बैठा गुलशन क्‍या प्रदेश में पसर रही अव्‍यवस्‍थाओं का शवों का ढेर लेकर नहीं बैठा है। क्‍योंकि यह एक और पहली ऐसी घटना नहीं है, इसके पहले कई दफा मध्‍यप्रदेश के ग्रामीण अंचलों और दूर दराज के इलाकों में देखने को आए दिन मिल ही जाती है, जब किसी बीमार को कंधे पर अस्‍पताल ले जाना पड़ता है तो कभी किसी गर्भवती महिला को खाट पर प्रसूति केंद्र ले जाना पड़ता है। अब अगर शवों को भी एंबुलेंस का इंतजार करना पड़े तो क्‍या ये व्‍यवस्‍थाओं का जनाजा निकलने जैसा नहीं है?
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