लफ़्ज़ों में हमेशा रोशन रहेंगे राहत साहब

शकील अख़्तर
मैं जब मर जाऊं मेरी अलग पहचान लिख देना
लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना
 
राहत इंदौरी का जाना एक युग का अवसान है। एक ऐसा ज़िंदादिल इंसान और बेबाक लहजे का शायर; जो आज कविता या मुशायरे के मंच से गुम हो चला है। बेशक हिंदुस्तान और दुनिया के उर्दू अदब की दुनिया में इस लोकप्रिय शायर के जाने से बहुत कुछ खो दिया है। मगर इंदौर की यह बहुत बड़ी सांस्कृतिक हानि है। राहत साहब इंदौर की पहचान बन गए थे। इंदौर को नाम देने वाला हिन्दी-उर्दू अदब का ए चिराग़ बस अब लफ्ज़ों में ही रोशन रह गया है। कहना ना होगा, राहत साहब और उनका परिवार इंदौर के सांस्कृतिक जगत की शान रहा है। आज उनका जाना जैसे हर घर से किसी अपने का विदा हो जाना है।
 
राहत साहब से रिश्ता रहा बड़ा पुराना : राहत साहब के परिवार से कोई 35 साल पुराना नाता रहा। रंगमंच के दिनों से हम राहत साहब के श्रीनगर एक्सटेंशन वाले घर जाया करते थे। उस वक्त हम सबके बहुत प्यारे दोस्त, बड़े भाई जैसे आदिल कुरैशी हुआ करते थे। आदिल भाई ख़ुद एक ज़िंदादिल शख़्सियत थे। उनकी वजह से इंदौर का सांस्कृतिक जगत जीवंत था।
 
साहित्य से लेकर रंगमंच तक उनकी ख़ासी सक्रियता थी। इससे भी बढ़कर आदिल भाई हम जैसे साथियों के लिए एक ठंडी हवा का झोंका थे। हमारी मुश्किलों के सारथी। हर वक्त साथ खड़े रहने वाले और फाकाकशी में भी जीवंत ठहाका लगा देने वाले। उनकी वजह से ही मेरा राहत साहब से पहली बार मिलना हुआ था। यह बात 1982 के बाद की है। राहत साहब तब भी उतने ही मसरूफ थे। जितने आज तक वे सक्रिय रहे। मैंने ऐसा वक्त भी देखा जब राहत साहब के कैसेटें मारूति वैन में लगाकर खोल देते थे।
 
किसने दस्तक दी, दिल पे, ये कौन है
आप तो अंदर है बाहर कौन है
 
नौजवान जमघट लगाकर उनके किसी मुशायरे को सुना करते थे। शायरी के हर कार्यक्रम में बड़े-बड़े शायर उनके आगे फीके थे। सुनने वालों को राहत साहब का इंतज़ार रहता था। राहत साहब की एंट्री पर लोग ख़ुश हो जाते थे। वो मंच पर जिस दमदार आवाज़ और जिस संवाद से भरी शैली में मुशायरा पढ़ते, एक-एक लफ़्ज़ की तस्वीर आंखों के सामने खड़ी हो जाती। उनकी मुखर शायरी को लेकर उन पर हमले भी हुए। उन्होंने मंच पर ऐसी ग़ज़लों और मिसरों को बेबाकी से पढ़ा, जिस पर उन्हें धमकियां मिली। उन्होंने कई मुशायरों में इसका बकायदा ज़िक्र भी किया।
 
जिस्म ने साथ छोड़ा था दिमाग़ ने नहीं : कोरोना पॉज़िटिव होने के चंद घंटों में उनकी ज़िदंगी हम सबसे दूर चली गई। असल में राहत साहब का प्रखर मस्तिष्क तो अंतिम वक्त तक बेहद सक्रिय और रचनात्मक ऊर्जा से भरा था। मगर उनका शरीर उनका बहुत पहले से साथ छोड़ चुका था। वो अपने जिस्म से बड़ी हिम्मत से काम ले रहे थे। 
सतलज या फैज़ल के साथ मुशायरे के सफ़र पर जा-आ रहे थे। सालों से उनका एक पैर घर और एक बाहर रहता था। लॉकडाउन में ज़रूर उनकी उड़ान को रोका। मगर वे वहां रहते हुए भी लगातार लिख-पढ रहे थे। अपने संदेश दे रहे थे। मुझे याद है शुगर के मर्ज़ की वजह से उन्हें इन्सुलिन लेना होता था। सफर में और बाहर आते-जाते वक्त बहुत सी बातों का खयाल रखना पड़ता था। डॉक्टर ने उन्हें सख़्त हिदायत दे रखी थी।
 
मेरी ख्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे
मेरे भाई मेरे हिस्से की ज़मीन तू रख ले
 
अपनी शायरी पर गुमान ना था : राहत साहब को इस बात का कोई गुमान नहीं था कि वे कोई बहुत बड़े शायर हैं। या उन्होंने कोई बहुत बड़ी बात कह दी है। पिछले साल उन्होंने अपनी शायरी के 50 साल पूरे किए थे। इस मौके पर मैंने उनसे बातचीत की थी। जश्न-ए-राहत की गोल्डन जुबली का यह प्रोग्राम इंदौर के अभय प्रशाल में हुआ था। इसमें ख़ुद हम सबकी ताई सुमित्रा महाजन जी भी शामिल हुई थीं।

जावेद अख़्तर जैसे बहुत से नामी शायर,कवि इस आयोजन में आए थे। इस अवसर पर मुझे उनके 5 दशक लंबे शायरी के सफ़र पर बात करने का मौका मिला था। राहत साहब ने बड़ी विनम्रता से कहा था- ‘पचास साल में मैंने ऐसा कोई शे’र नहीं कहा, जिसपर मैं फख़्र कर सकूं लेकिन यह दुआ ज़रुर मांगता हूं कि खुदा मुझसे ऐसी कोई दो लाइनें लिखवा दे ताकि मैं मरने के बाद भी ज़िंदा रह सकूं।‘ 
 
करोड़ों चाहने वालों के शायर : उन्होंने जो कुछ कहा, लिखा आज दुनिया में उनके करोड़ों चाहने वालों को ज़ुबानी याद है। यू-ट्यूब पर उनके सैकड़ों मुशायरे हिट हैं। वे सबसे ज़्यादा सर्च किए जाने वाले शायरों में से एक हैं। उनका एक ग़ज़ल का मशहूर शेर पिछले दिनों सोशल मीडिया में वायरल हो गया था। राहत साहब नौजवानों के लिए कई कार्यक्रमों में यह शेर पढ़ते थे। 
 
बुलाती है तो जाने का नहीं
वो दुनिया उधर जाने का नहीं
 
इसके पहले मिसरे- ‘बुलाती है तो जाने का नहीं, के बाद ल़ॉकडाउन में अपने दूसरे मिसरे जोडने लगे थे। बहुत से मज़ाहिया मिसरों पर राहत साहब भी हंसकर ख़ामोश हो जाते थे। राहत साहब ने मुझे बताया था कि देश की चार यूनिवर्सिटीज़ में उनके काम पर शोध किया गया है। वे इंदौर के इस्लामिया करीमिया कॉलेज में अरसे तक प्रोफेसर रहे और यहां उन्होंने एजुकेशन के क्षेत्र में काफी कुछ योगदान दिया। नई पीढ़ी तैयार की। 
 
तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहो का चक्कर छोड़ो, तैरकर दरिया पार करो
 
कोरोना संकट के समय मुस्लिम समाज में जागरूकता की कमी और अशिक्षा को लेकर उनसे लंबी चर्चा हुई थी। उन्होंने उस इंटरव्यू में समाज को हिंदुस्तान के आईने में नए तरीके से आगे बढ़ने की दिशा दी थी। वो इंटरव्यू हज़ारों लोगों तक पहुंचा। कई अख़बारों में छपा। उनकी बात लोगों ने तस्लीम की। 
 
चोरी-चोरी जब नज़रें मिलीं
चोरी-चोरी फिर नींदे उड़ीं
चोरी-चोरी ये दिल ने कहा
चोरी में भी है मज़ा      
(फिल्म, करीब, संगीतकार, अनु मलिक)
 
राहत साहब पर विशेषांक : राहत साहब पर ‘लम्हे-लम्हे’ नाम का एक विशेषांक पिछले दिनों प्रकाशित हुआ था। उसमें देशभर के 150 अदबी शख़्सियतों और समीक्षकों के इंटरव्यू संग्रहित हैं। उन्होंने यह विशेषांक बड़ी याद से सौंपा था। कहा था, शकील इसमें तुम्हारा मुझ पर लिखा एक लेख है। यह तुम्हारे लिए मैंने रखा है। मुझे याद आया, राहत साहब पर वह लेख मैंने 90 के दशक में मुंबई से प्रकाशित सिनेमा की मशहूर पत्रिका जी हिन्दी और उसके मराठी संस्करणों के लिए लिखा था। तब राहत साहब सिनेमा में अपने गीतों से एक नई पहचान बना चुके थे। इंडस्ट्री में उनके काम का डंका बज रहा था। 
मेरा खयाल है तब तक वे करीब 30 से ज़्यादा फिल्मों में गीत लिख चुके थे। मैंने उनके साथ एक मुलाकात में उनके फिल्मी सफर को लेकर ही बात की थी। हालांकि फिल्मी दुनिया इस आजाद शायर का दिल ज्यादा दिन नहीं लगा। उन्होंने वहां के रवैए से अलग फिर अपनी शायरी की दुनिया में लौटना बेहतर समझा। साहित्य और मुशायरों के मंच पर सक्रिय हो गए। हालांकि वे जहां भी रहे, अक्सर फिल्म इंडस्ट्री के संगीतकारों और फिल्म निर्माताओं के उन्हें फिल्मों में लिखने के लिए प्रस्ताव आते रहे। 
 
मेरे जीवन का अनमोल पृष्ठ :राहत साहब इंदौर की तरह मेरी ज़िदंगी का एक सौभाग्यशाली पृष्ठ रहे। यह लिखते वक्त मेरी आँखें नम है कि उन्होंने मेरे कविता संग्रह- ‘दिल ही तो है’, की बुनियाद रखी। उसपर अपना पहली समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी। मेरा हौसला बढ़ाया। यहां यह बता दूं कि उनके कहने पर ही यह संग्रह प्रकाशित हुआ। राहत साहब की ख़ास बात उनका सहज, सरल होना था। वे हरेक से बेहद खुश मिज़ाजी से मिलते थे। छोटो को भी मान देते थे। मेरे जैसे कितने रचनाकार, कवि और शायर हैं, जिनके सिर और पीठ पर उन्होंने हाथ रखा। उन्हें अदब की दुनिया में आगे बढ़ाया।
 
लेखक का धर्म है लिखना : वे कहते थे, एक लेखक का धर्म है लिखना। तनक़ीद या आलोचना बात की बात है। वो समीक्षकों का काम है। पाठक असली निर्धारक हैं। वे तय करते हैं कि आपकी रचना अच्छी है या नहीं। उनका यह भी मानना था कि लेखन के पुराने अंदाज़ और तौर तरीकों की जगह नए लहजे और दौर को समझकर लिखना ज़रूरी है। वे कहते थे, पोएट्री की बहुत सी विधाएं हैं। सिर्फ रदीफ़,क़ाफिया वाली ग़ज़ल ही नहीं है। आज़ाद नज़्म और अतुकांत रचनाओं का अपना स्थान है। एक रचनाकार के लिए वे कहते, आपको पब्लिक की प्रतिक्रियाओं को लेकर ज़रूर सजग होना चाहिए। ताकि आप उस हिसाब से सीख और समझ सके। खुद को निखार सकें। 
 
1969 में हुई सुनहरे सफ़र की शुरुआत : 1950 में जन्मे राहत इंदौरी ने 1969 में इंदौर के रानीपुरा की अदबी लायब्रेरी में पहली बार रचनाएं सुनाकर शायरी की दुनिया में कदम रखा था। उस वक्त नौजवान राहत की उम्र महज़ 18 साल की थी। मगर उनकी ग़ज़लों के तेवर और उन्हें पेश करने का अंदाज़ ऐसा था कि देखते-ही-देखते उनका नाम लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया। 80 के दशक के आते-आते राहत देश के हर शहर और कस्बे में पहचाने जाने लगे।
 
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पर सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है…
जो आज साहिब-ए-मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं, ज़ाती मकान थोड़ी है…
 
लोग उनकी ग़ज़लों के उम्दा शे’र बात-बात में दोहराने और उनके मुशायरों के क़िस्से और रिकॉर्डिंग्स एक-दूसरे तक पहुंचाने लगे। आज दुनिया भर में लोग उनकी शायरी के दीवाने हैं। मंचों से लेकर यू ट्यूब तक वे छाए हुए हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि राहत साहब ने हर दौर पर अपनी बात बड़ी बेबाकी से कही। हालात का तप्सरा किया।, तल्ख़ हक़ीक़त बयान की और अवाम के दिल को आवाज़ दी।
 
जहां हिंदुस्तानी वहां राहत साहब के फ़ैन : बीते दिनों उनसे ही बातचीत में राहत साहब ने कहा था– ‘यह तो याद नहीं कि मुझे कितने मुशायरों में पढ़ने का मौका मिला है लेकिन दुनिया के जिस भी मुल्क में मेरे हमवतन (हिंदुस्तानी) रहते हैं, उनके बीच मुझे अपनी रचनाएं सुनाने का मौका ज़रुर मिला है। ख़ासकर वहां जहां हिंदुस्तानियों की आबादी ज़्यादा है। जहां इस ज़बान को लोग समझते हैं। इनमें बड़ी तादाद में पाकिस्तान, बांग्लादेश, दुबई और उर्दू अदब के चाहने वाले भी शामिल है।‘ 
 
राहत साहब ने बताया-’ कार्यक्रमों की संख्यां का मैंने कभी कोई हिसाब याद नहीं रखा। मगर जवानी के दिनों में मैं एक ही रात में मुशायरों के 3-3 कार्यक्रमों में पढ़ने जाता था। मिसाल के लिए उन्नाव में कार्यक्रम है तो उसके बाद कानपुर और फिर मोहान में भी शिरकत करता था। सेहत अब साथ नहीं देती लेकिन अब भी हर दो-तीन में एक ना एक मुशायरे में शिरकत करता हूं। आज भी मेरा एक क़दम घर के बाहर ही रहता है।‘
 
'नाराज़’ राहत साहब का बेस्ट सेलर संग्रह : राहत इंदौरी के बड़े बेटे फैसल राहत अपने पिता के प्रकाशनों और दूसरे प्रबंधनों का काम संभालते हैं। फैसल के मुताबिक, ‘राहत साहब के देवनागरी और उर्दू में 8 संग्रह हैं। मंजुल पब्लिकेशन से प्रकाशित संग्रह ‘नाराज़’ पिछले दो साल से बेस्ट सेलर संग्रह रहा है। ‘दैनिक जागरण’ के सर्वेक्षण में यह किताब पिछले दो साल से पहले नंबर पर बनी हुई है।

इसके अलावा वाणी से राहत साहब की दो किताबें प्रकाशित हुई। पहली किताब है- ‘चांद पागल है’ और दूसरी किताब का नाम ‘रूत’ है। राजकमल से भी दो किताबें प्रकाशित हुई हैं। पहली है- ‘मेरे बाद’ और दूसरी ‘मौजूद।‘ देवनागरी के अलावा उर्दू में उनकी तीन क़िताबें हैं। पहली है– ‘धूप-धूप।' यह 1979 में आई थी। उसके बाद ‘पांचवा दरवेश’ और एक सारी किताबों को लेकर है, उसका नाम है– ‘कलाम।‘ 
(शकील अख़्तर का इंदौर से पुराना नाता है। वे सृजनशील लेखक और सीनियर टीवी जर्नलिस्ट हैं)
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