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Sunday Read: 'फेल स्टेट' से ग्लोबल पावर कैसे बना पाकिस्तान : भारत की विदेश नीति कहां चूकी?

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हमें फॉलो करें How Pakistan became a global power
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संदीपसिंह सिसोदिया

, रविवार, 13 जुलाई 2025 (07:33 IST)
How Pakistan became a global power: दशकों तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान को एक ‘फेल स्टेट’ मानता रहा- राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक दिवालियापन, आतंकी नेटवर्कों का गढ़ और सैन्य तानाशाही की छाया। लेकिन आज वही पाकिस्तान अमेरिका, चीन, रूस, खाड़ी देशों और यहां तक कि अफगानिस्तान व ईरान की रणनीतिक प्राथमिकताओं में एक अहम किरदार है।
 
सवाल यह नहीं है कि पाकिस्तान ने क्या हासिल किया बल्कि यह है कि भारत की विदेश नीति कहां पिछड़ गई?
 
आर्थिक अस्थिरता, आतंकी हिंसा और सैन्य वर्चस्व ने इस देश की छवि को धूमिल कर दिया था। फिर भी, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पाकिस्तान की कूटनीतिक वापसी कई जटिल सवाल खड़े करती है। एक ऐसा देश जहां राजनीति अक्सर सेना के इशारों पर चलती है, जो लोकतांत्रिक संस्थानों के संकट से जूझता है और जहां मानवाधिकारों की स्थिति सवालों के घेरे में है- वह आज वैश्विक कूटनीति में इतना अहम क्यों है?
 
वहीं भारत, जो एक स्थिर लोकतंत्र है, मजबूत अर्थव्यवस्था है, तकनीकी और सॉफ्ट पावर का सिरमौर माना जाता है- वह पाकिस्तान की तुलना में ज़्यादा विश्वसनीय साझेदार क्यों नहीं बन पाया? आइए, इस भू-राजनीतिक विश्लेषण में गहराई से समझते हैं।
 
पाकिस्तान-अमेरिका संबंध : सुरक्षा और रणनीतिक आवश्यकता
1947 के बाद से ही पाकिस्तान ने अमेरिका से घनिष्ठ सैन्य सहयोग बनाए रखा। शीत युद्ध के दौरान SEATO और CENTO जैसे सैन्य गठबंधनों में पाकिस्तान की भागीदारी ने उसे अमेरिका की रणनीतिक मदद दिलाई। विशेषकर 1980 के दशक में जब सोवियत सेना अफगानिस्तान में घुसी, तब अमेरिका ने पाकिस्तान को एक अग्रिम मोर्चा बनाया। ISI और CIA की साझेदारी में मुजाहिदीन को प्रशिक्षित किया गया, जिसने पाकिस्तान को 'फ्रंटलाइन स्टेट' का दर्जा दिलाया। 9/11 के बाद 'वॉर ऑन टेरर' में भी अमेरिका ने पाकिस्तान को 'नॉन-NATO एलाय' बनाया और अरबों डॉलर की सैन्य व आर्थिक सहायता दी। लेकिन क्यों?
 
अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA से जुड़े ब्रूस राइडेल अपनी चर्चित पुस्तक 'Deadly Embrace: Pakistan, America, and the Future of Global Jihad' में लिखते हैं कि अमेरिका जानता है कि पाकिस्तान समस्या का हिस्सा है—फिर भी वह उसे समाधान के केंद्र में बनाए रखता है। इसका कारण है कि तालिबान और अल-कायदा जैसे इस्लामिक आतंकी तत्वों की जड़ें पाकिस्तान के  सीमा क्षेत्रों में हैं, और वहीं से उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है। पाकिस्तान अमेरिका के लिए हमेशा एक (Necessary Evil) 'ज़रूरी बुराई' रहा है- जिसकी वह खुलकर न तो प्रशंसा कर सकता है और न ही उसे छोड़ सकता है।
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"Pakistan is too important to fail — and too dangerous to ignore."
— Bruce Riedel, पूर्व CIA अधिकारी, लेखक, Deadly Embrace
वहीं भारत कभी अमेरिका के लिए "ग्लोबल सिक्योरिटी आर्किटेक्चर" का हिस्सा नहीं बन पाया। भारत की नीति हमेशा 'सॉफ्ट पावर' और "रणनीतिक दूरी" की रही, जिससे वह पश्चिमी रक्षा व्यवस्था का अभिन्न अंग कभी नहीं बन सका।
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चीन-पाकिस्तान की ‘सदाबहार’ दोस्ती और CPEC का प्रभाव
चीन के साथ पाकिस्तान के रिश्ते एशिया की सबसे मज़बूत कूटनीतिक साझेदारियों में से एक हैं। 1963 में कश्मीर का हिस्सा चीन को सौंपने के बाद से यह रिश्ता रणनीतिक रूप से लगातार गहराता गया है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC)—जो बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का हिस्सा है—पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को राहत देने वाला सबसे बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश रहा है। ग्वादर पोर्ट तक चीन की सीधी पहुंच से उसे फारस की खाड़ी तक प्रवेश मिला, और पाकिस्तान को अरबों डॉलर का निवेश।
 
चीन-पाक रिश्तों पर एंड्रयू स्मॉल की पुस्तक "The China-Pakistan Axis: Asia’s New Geopolitics" पाकिस्तान को चीन के लिए "प्रॉक्सी स्ट्रैटजिक एसेट" बताती है। चीन जानता है कि पाकिस्तान भारत को संतुलित करने का एक रणनीतिक उपकरण भी है। यही कारण है कि चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर जैसे आतंकी तत्वों को बार-बार 'टेक्निकल होल्ड' में डालकर पाकिस्तान को कूटनीतिक राहत देता है। भारत अपनी कूटनीति में नैतिक उच्चता बनाए रखते हुए पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिश करता रहा, जबकि चीन उसे एक 'पॉवर मल्टीप्लायर' के रूप में इस्तेमाल करता रहा।
 
रूस की बदलती नीति और पाकिस्तान की कूटनीतिक पैंतरेबाज़ी
शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तान और रूस के संबंध ठंडे रहे। लेकिन बीते एक दशक में रूस और पाकिस्तान के रिश्तों में रणनीतिक गर्मी आई है। रूस ने पाकिस्तान के साथ रक्षा सहयोग, हथियारों की आपूर्ति और सैन्य अभ्यास शुरू किए हैं। Russia Today, TASS और Carnegie Moscow Center के विश्लेषकों के अनुसार, रूस अब भारत-अमेरिका निकटता को देखते हुए पाकिस्तान को हथियारों, ऊर्जा सहयोग और अफगानिस्तान नीति में साझेदार बना रहा है। रूस और पाकिस्तान ने 2016 से ‘Druzhba’ सैन्य अभ्यास शुरू किया और पाकिस्तान को Mi-35 जैसे अटैक हेलिकॉप्टर भी दिए।
 
रूस को अफगानिस्तान, मध्य एशिया और आतंकवाद की रोकथाम के लिए पाकिस्तान की भूमिका की जरूरत है। भारत के अमेरिका की ओर झुकाव के बाद रूस ने संतुलन बनाने के लिए पाकिस्तान की ओर रुख किया है। भारत अपनी ‘असहमति के बावजूद मित्रता’ (discreet diplomacy) की नीति से रूस को संतुलित रखने की कोशिश कर रहा है, जबकि पाकिस्तान खुली शर्तों पर रणनीतिक प्रस्ताव दे रहा है। यह भारत के लिए एक रणनीतिक चूक थी, जिसने पारंपरिक मित्र रूस के साथ अपने संबंधों को उतना सहेजा नहीं जितना पाकिस्तान ने।
 
खाड़ी देशों और इस्लामी दुनिया में पाकिस्तान की पकड़
भारत खाड़ी देशों का एक बड़ा कारोबारी और ऊर्जा साझेदार है, लेकिन पाकिस्तान को अक्सर इस्लामी पहचान और सेना की रणनीतिक भूमिका के चलते वहां विशेष स्थान मिला है। पाकिस्तान की सेना ने सऊदी अरब और UAE की सेनाओं को प्रशिक्षित किया और समय-समय पर वहां तैनात भी रही।
 
इस्लामिक देशों के मंचों (OIC) पर कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की आवाज को सुनवाई मिलती रही है। भारत की बड़ी मुस्लिम जनसंख्या होने के बावजूद उसे OIC में केवल 'गेस्ट' का दर्जा ही मिल पाया है। भारत के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन कहते हैं, 'भारत आर्थिक साझेदार तो है, लेकिन धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान के संदर्भ में खाड़ी देशों को पाकिस्तान ज्यादा सहज लगता है।'
 
'Frontline Pakistan' जैसी पुस्तकों में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि ISI ने अफगान तालिबान को समर्थन देकर खुद को वॉशिंगटन और काबुल दोनों के लिए अपरिहार्य बना दिया। ईरान-पाक रिश्ते, हालांकि कटु हैं, फिर भी ऊर्जा (IPI Pipeline) और सीमा सुरक्षा जैसे मुद्दों पर पाकिस्तान की भूमिका अनिवार्य बनी रहती है।
 
परमाणु शक्ति : डर की रणनीति या सुरक्षा का कवच?
1998 में भारत के परमाणु परीक्षणों के तुरंत बाद पाकिस्तान ने चागई हिल्स (Chagai Hills) में अपने परीक्षण कर पूरी दुनिया को चौंका दिया। SIPRI के अनुसार, पाकिस्तान के पास 160 से अधिक परमाणु हथियार हैं। लेकिन भारत की 'नो फर्स्ट यूज़' (No First Use) नीति के उलट पाकिस्तान खुले तौर पर 'फर्स्ट यूज़ डॉक्ट्रिन' (First Use Doctrine) की धमकी देता है — जो उसके लिए एक कूटनीतिक मुद्रा बन चुकी है। इसका प्रभाव यह रहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय बार-बार उसे सैन्य हस्तक्षेप के बजाय वार्ता की मेज़ पर लाता है — चाहे आतंक के कितने ही प्रमाण क्यों न हों।
 
पाकिस्तान ने जो पाया, भारत ने क्या गंवाया?
भारत की नीति हमेशा शांतिप्रिय, लोकतांत्रिक और नियम आधारित रही। लेकिन इसने कई बार 'नैतिक उच्चता' बनाए रखने के चक्कर में वह रणनीतिक लचीलापन नहीं दिखाया जो पाकिस्तान ने बार-बार दिखाया। भारत ने अफ़गान, ईरान, मध्य एशिया, और इस्लामी विश्व में 'नॉन-आलाइन्ड' या आर्थिक साझेदारी पर ज़ोर दिया, लेकिन सामरिक गठबंधनों में अक्सर पीछे रहा। 'सॉफ्ट पावर' ने सीमित भूमिका निभाई, लेकिन पाकिस्तान की 'हार्ड पावर डिप्लोमेसी' ने उसे रणनीतिक रूप से अधिक मूल्यवान बना दिया।
 
क्या भारत अब भी देर कर रहा है?
पाकिस्तान आज भी आंतरिक संकटों से जूझता है—वह आर्थिक रूप से IMF पर निर्भर है, लोकतंत्र बार-बार संकट में पड़ता है और आतंकवाद की छाया समाप्त नहीं हुई। फिर भी वैश्विक ताकतों की रणनीति में वह अब भी एक अहम खिलाड़ी है। पाकिस्तान एक 'फेल स्टेट' से वैश्विक कूटनीति का हिस्सा इसलिए बना क्योंकि उसने अपने हर आंतरिक संकट को 'रणनीतिक अवसर' में बदला—भले वह परमाणु हथियार हों, आतंकी नेटवर्क हों या अस्थिरता की भौगोलिक स्थिति।
 
भारत ने खुद को अक्सर 'उत्तरदायी शक्ति' (Responsible Power) के रूप में पेश किया, परंतु ग्लोबल कूटनीति में कई बार 'ज़रूरतमंद' (Indispensable) होना ज़्यादा अहम होता है।
 
भारत को अब यह समझना होगा कि केवल आर्थिक शक्ति, लोकतंत्र या नैतिक कूटनीति ही काफ़ी नहीं होती। भू-राजनीति में 'सांकेतिक मूल्य' और 'रणनीतिक उपयोगिता' ज़्यादा मायने रखते हैं। भारत को अपनी विदेश नीति में संतुलन, लचीलापन और सैन्य रणनीति के प्रयोग को पुनर्परिभाषित करना होगा—वरना पाकिस्तान की तरह एक 'फेल स्टेट' भी बार-बार वैश्विक मंचों पर भारत को चुनौती देता रहेगा।

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