धारा 66-A : अब न नेता‍गिरी चलेगी, न पुलिसिया धमकी

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देश की सर्वोच्च अदालत ने आईटी एक्ट की धारा 66 ए को निरस्त दिया है। अब किसी विवादित पोस्ट पर पुलिस सीधे संबंधित व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं कर सकेगी। न्यायालय के इस फैसले का सभी लोगों ने स्वागत किया है, लेकिन वे यह भी मानते हैं कि अभिव्यक्ति स्वतंत्रता होना चाहिए, लेकिन स्वच्छंदता नहीं। आइए जानते हैं कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर कुछ खास लोगों की राय....
 
डिजी केबल के मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के प्रमुख और पुरस्कृत ब्लॉगर प्रकाश हिन्दुस्तानी मानते हैं कि आईटी एक्ट की धारा 66 A का रद्द होना आजादी की गरिमा को बढ़ाने वाला कदम है। इस धारा को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट फैसले से अभिव्यक्ति की आजादी को बनाए रखने में मदद मिलेगी, इसमें कोई दो मत नहीं है; लेकिन कई लोग समझते हैं कि इससे उन्हें असीमित अधिकार मिल जाएंगे, ऐसा नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि वह अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में है; स्वच्छंदता के पक्ष नहीं।
 
कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66A को रद्द किया है, जिसके तहत पुलिस  को ऐसे मामलों में गिरफ्तारी का अधिकार था। अभी भी आईपीसी और सीआरपीसी के तहत सांप्रदायिक नफ़रत फ़ैलाने वालों, विद्वेष भड़काने वालों और मान हानि पहुँचाने वालों के ख़िलाफ़ पुलिस कार्यवाही की जा सकती है। यह जरूर कि अब किसी को केवल इसलिए गिरफ्तार नहीं किया जा सकता कि आपने फेसबुक या ट्विटर पर कोई पोस्ट लाइक या शेयर की है।
 
मीडिया शिक्षक, लेखिका वर्तिका नंदा का मानना है कि इस बात ने यह साबित कर दिया कि नेताओं की नेतागिरी नहीं चलेगी। नेताओं की पुलिसिया धमकी भी नहीं चलेगी। इसने यह भी साबित कर दिया कि सबकी इज्जत बराबर है, सबकी निजता बराबर। इसने अभिव्यक्ति की आजादी के एक नए पन्ने को खोल दिया है। इसलिए बात जश्न मनाने की है। लेकिन, जश्न मनाते हुए भी समझदारी की जरूरत है। आजादी सुंदर चीज है। अमूल्य है। वह लुभाती है और नियंत्रण से परे चलती है। लेकिन इसके बावजूद हर आजादी किसी सीमा की बात भी सोचती है। फेसबुक हर उम्र का चहेता बन चली है और हर उम्र और हर तबके के लोग यहां चहलकदमी करते दिखते हैं। सबके पास समझदारी की बराबर की टोकरी मौजूद हो, ऐसा भी जरूरी नहीं। ऐसे में जश्न के बीच होश का बने रहना और बचे रहना भी जरूरी है। 
 
 
प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक बालेन्दु शर्मा दाधीच का इस संबंध में मानना है कि आईटी एक्ट की धारा 66 ए पर सुप्रीम कोर्ट का यह मत उचित है कि यह धारा भारतीय संविधान में निहित अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन करती है। इसमें आपराधिक कृत्यों को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है और 'नाराजगी पैदा करने वाले', 'असुविधाजनक' और 'बेहद अपमानजनक' कन्टेन्ट के प्रयोग पर गिरफ्तारी का प्रावधान है। अब ये तीनों शब्द ऐसे हैं कि इन्हें छोटी से छोटी घटना पर भी लागू किया जा सकता है। तब पुलिस और प्रशासन को किसी भी व्यक्ति को मनचाहे ढंग से गिरफ्तार करने का अधिकार मिल जाता है। शाहीन ढाडा और रेणु का मामला ऐसा ही है जहाँ रेणु को मात्र शाहीन की एक टिप्पणी को लाइक करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था। इस तरह के प्रावधान अन्यायपूर्ण तो हैं ही, वे इस माध्यम के प्रति हमारी व्यवस्था की नासमझी भी उजागर कर देते हैं। 
 
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के अनुरूप ही, यह धारा नागरिकों के सूचना पाने के अधिकार का उल्लंघन करती है। मुझे लगता है कि अलग-अलग किस्म के मीडिया के बारे में अलग-अलग किस्म की पाबंदियाँ लागू करना भी गलत है। क्या जिस टिप्पणी के लिए शाहीन और रेणु को गिरफ्तार किया गया वह टिप्पणी किसी अखबार में किसी लेख में छपती तो क्या पत्रकार को गिरफ्तार किया जाता? उन्होंने अपनी फेसबुक टिप्पणी में बाल ठाकरे के निधन के बाद बंद के आयोजन को गलत बताया था। यह उनका अपना विचार है और इसे प्रकट करने का अधिकार उन्हें है। इस टिप्पणी से किसी का अपमान नहीं होता। इससे कई गुना अधिक आक्रामक टिप्पणियाँ अखबारों में छपती हैं और टेलीविजन चैनलों पर की जाती हैं लेकिन उनके लिए किसी को गिरफ्तार तो नहीं किया जा सकता। तो जो टिप्पणी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए 'सामान्य' है वह सोशल मीडिया के लिए 'घातक' कैसे मानी जा सकती है? 
 
हालांकि इस धारा का विरोध करते समय इस तथ्य को भी नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि सोशल मीडिया पर ऐसे तत्व सक्रिय हैं जो दूसरों का अपमान करने, अफवाहें फैलाने, लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने, परेशान करने आदि के लिए उसका दुरुपयोग करते हैं। ऐसे मामलों में मनचाही टिप्पणियों का अधिकार नहीं दिया जा सकता, ठीक उसी तरह, जैसे कि दूसरे जनसंचार माध्यमों में ऐसा करने की इजाजत उपलब्ध नहीं है। इंटरनेट पर आपराधिक कृत्यों को रोकने पर से फोकस खत्म नहीं होना चाहिए, लेकिन नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा हर कीमत पर की जानी चाहिए। सरकार को इस पर नए सिरे से सोचकर समझदारी से प्रावधान तैयार करने की जरूरत है जो इंटरनेट की लोकतांत्रिक और खुली प्रकृति की रक्षा करते हुए लोगों की निजता को भी सुरक्षित रखने की गारंटी ले। 
 
लोकसेविका रश्मि सिंह कहती हैं कि अपने विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता किसी भी लोकतंत्र में बहुत महत्वपूर्ण और जरूरी है। इस मामले में यह भी उतना ही जरूरी है कि लोगों को इसके बारे में जागरूक किया जाए ताकि वे अपने इस अधिकार पूरी जिम्मेदारी के के साथ इस्तेमाल करें। 
 
आकाशवाणी दिल्ली में समाचार वाचक चंद्रिका जोशी मानती हैं इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पहलू हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बहुत ही व्यापक है अत: इस पर कहीं विराम भी होना चाहिए। निश्चित ही आजादी जरूरी है, लेकिन हमें उसकी सीमा भी निर्धारित करनी होगी। हमें संवेदनशील होना होगा।

चूंकि अभिव्यक्ति के मौलिक आधार का हनन होता है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अच्छा है। हमारे देश में विभिन्न संप्रदायों के लोग रहते हैं, अत: यह भी ध्यान रखना होगा कि किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचे। क्योंकि हर व्यक्ति पर लगाम नहीं लगाई जा सकती। पुरानी पीढ़ी की बात करें तो वह काफी पढ़ती लिखती है, मगर युवा पीढ़ी इसके उलट सुनी सुनाई बातों पर ज्यादा प्रतिक्रिया देती है। हालांकि जागरूक लोगों के लिए यह बहुत ही अच्छा है, मगर हमें निगाह भी रखनी होगी कि किसी की भावनाएं आहत न हों। हमारा मकसद देश का विकास है। अत: छोटी छोटी बातों से विवाद उत्पन्न हो, यह ठीक नहीं होगा। 
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