डॉ सुनील खोसा, 66 साल के रिटायर्ड प्रोफेसर जम्मू विश्वविद्यालय, श्रीनगर से अपने परिवार के साथ भागकर अब 35 साल से जम्मू में रहते हैं। वेबदुनिया ने उनसे बात की उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन के बारे में जब उनका घर, उनकी जन्नत दोजख में तब्दील हो गए...
डॉ सुनील खोसा बताते हैं कि जो साल 1990 में हुआ उसकी स्क्रिप्ट तो 1965 में ही तय हो गई थी, जब पाकिस्तान से युद्ध हुआ तो उस युद्ध की त्रासदी हमने जम्मू-कश्मीर में झेली। उस दौर से ही क्रूरता, त्रासदी और अत्याचार की जो आखिरी हदें हो सकती थीं, वो सारी पार होते हुए हमने देखी।
हमे लगता था कि हम तो 1947 में आजाद हो चुके हैं, लेकिन ये बात बिल्कुल सत्य नहीं है। कश्मीर के श्रीनगर में जहां मैं अपने परिवार के साथ रहता था, वहां न कोई पुलिस थी, न कोई एडमिनिस्ट्रेशन और न दिल्ली में कोई सरकार थी हमारे लिए।
1990 में कश्मीर से पलायन कर जम्मू आए डॉ. सुनील खोसा ने जब अपनी आप बीती वेबदुनिया को सुनाई तो वे कई बार फफक कर रो दिए।
वे कहते हैं, उस दौर में हमारे मुहल्ले में मुस्लिम ज्यादा थे, हिंदू और सिखों की संख्या बेहद कम थी। मैंने आठ साल की उम्र से ही कश्मीर को जलाने और कश्मिरी पंडितों को अपने घरों से खदेड़ने के दृश्य देखना शुरू कर दिए थे।
जब भारत पाकिस्तान से क्रिकेट मुकाबला जीत जाता तो हमारी रातें बर्बाद हो जाती थीं। हमारे घरों पर पत्थर बरसाएं जाते, हमें देखते ही सड़कों पर गालियां दी जाती थीं।
मेरे जवान होते होते तो आलम यह हो गया श्रीनगर में कि कश्मीर की आजादी के नारे चारों तरफ बुलंद हो गए। रेडियो पर कश्मीर की आजादी के गीत बजते थे। लोग चिल्ला चिल्लाकर सड़कों पर आजादी के नारे लगाते थे। आतंक मचाते।
एक दिन तो ऐसा आया कि मस्जिदों से सरेआम ऐलान होने लगा कि अपना धर्म बदल लो या अपनी खोपड़ी में गोली खाने के लिए तैयार रहो। वो दिन भी आ गया, जब सड़कों पर कश्मीर की आजादी के लिए कश्मीर और श्रीनगर की खूबसूरत वादियां रक्तरंजित होने लगी।
हिट लिस्ट बनाकर किया कत्लेआम: मस्जिदों में लोगों को मारने के लिए हिट लिस्ट तैयार होने लगी। इसके बाद ढूंढ-ढूंढ कर मारा।
कोई खेतों में, खलिहानों में और बागों में छुपा तो कोई अपने घर के सबसे अंधेरे कमरों। लेकिन सब जगह से ढूंढकर मारा। मेरे मोहल्ले में ही तीन लोगों को मेरे सामने क्लोज रेंज में मारा, उनमें एक छोटा बच्चा था। वो कहते थे अल्लाह का फरमान है, जहां काफिर, हिंदू, पंडित नजर आए उसे मार दो।
दुखद तो यह था कि जो मुस्लिम परिवार हमारे पड़ोस में रहते थे, वे भी आजादी मांगने वाले इन आतंकियों की मदद करते थे। जो मेरे साथ सालों रहा, जिसने मेरे साथ काम किया और पड़ोस में कई साल तक रहा, वो भी बता देते थे कि हम कहां छुपे हुए हैं।
जब कोई चावल की बोरियों में छुप जाता तो पड़ोसी मुस्लिम परिवार हाथ में चावल के दाने लेकर उनेक सामने बिखेर देता और संकेत देता कि हम कहां छुपे हुए हैं।
डॉ सुनील खोसा बताते हैं कि हमारे मुहल्ले में हिंदुओं के पांच घर थे। मैं वहां से भागकर जम्मू आ गया, शेष कहां गए कुछ नहीं पता। उस जमाने में आतंकवाद शब्द इतना चलन में नहीं आया था, लेकिन काम सारे आतंकी की तरह थे, जो भी भारत के पक्ष में था, उनके साथ उत्पाद मचाते थे। छोटे बच्चे भी आजादी मांगते थे। उन्हें सिखाया गया कि जहां भी ब्राह्मण दिखे उसे गाली दो और मारो, ये अल्लाह का काम है, इसे पूरा करोगे तो जन्नत में जाओगे और हूर मिलेगी। वो हमें इंडियन डॉग कहते थे और मारते थे, कई लोगों को मार दिया।
न पुलिस थी, न सरकार : यह ऐसा दौर था जब हमारे लिए न कोई पुलिस थी और न ही कोई सरकार। न लोकल एडमिनिस्ट्रेशन। और न ही कोई सुनने वाला।
मैंने अपनी आंखों से देखा और भोगता रहा अपने परिवार के साथ। मैं सिर्फ इसलिए खुशनसीब था कि मैं श्रीनगर से भागकर जम्मू आ सका। अपने दो बच्चे, पत्नी और मां-बाप के साथ। रातों रात मुझे अपने परिवार के साथ वहां से भागना पड़ा। जिनके बाग-बगीचे थे वे बर्बाद हो गए!
आज मुझे 35 साल हो गए जम्मू में। हमने सोचा था कि इंडियन आर्मी हमें बचा लेगी, लेकिन यह सिर्फ भ्रम था। जम्मू आ गए, लेकिन वापसी का कोई रास्ता नहीं था। उस साल मैंने हजारों लोगों को सड़कों पर आते देखा। जिसके पास बाग बचीचे थे, खेती थी वो सब बेघर हो गए। कईयों का सरेआम कत्ल हो गया। कम से कम 4 लाख लोग भागे, कितने मर-खप गए नहीं पता।
न सिर्फ खून बहाया, हमारा अतीत भी छीन लिया : मेरे पास श्रीनगर में 4 मंजिला मकान, जिसमें 32 कमरे थे। मैं नौकरी करता था श्रीनगर में। पढाता था। अपना सबकुछ छोड़कर आया। अपना घर, अपनी विरासत और अपनी जड़ें सब छोड़कर आना पड़ा। आज 35 साल बाद आज भी मेरे सपने में मेरा घर आता है। उसके अलावा मेरी जिंदगी में कुछ नहीं, कश्मीर की आजादी चाहने वालों ने मुझसे न सिर्फ खून बहाया, घर जलाए और लूटे हमारा अतीत भी छीन लिया।
वापसी का कोई रास्ता नहीं था : जम्मू में मैंने छुटपुट नौकरी की। बच्चों के स्कूल की फीस जमा करने के लिए लोगों से पैसे मांगे। 26 जनवरी 1990 के दिन मेरा 32 कमरों का आशियाना जला दिया गया। ऐसे कई घर जमीदोंज और राख कर दिए हमारी आंखों के सामने।
बाला साहेब ठाकरे से मिले तो उन्होंने हमारे बच्चों के एडमिशन करवाए स्कूलों में। बाला साहेब ठाकरे को जन्नत नसीब हो, उनके बच्चे हजारों साल जिए। राज्यपाल जगमोहन ने हमारी मदद की।
कश्मीर फाइल्स : 66 साल का हो गया हूं। जम्मू विश्वविदयाल से रिटायर्ड हो गया हूं। अब प्राइवेट पढाता हूं, कोचिंग करता हूं। कश्मीर फाइल्स देखकर आया हूं। यह फिल्म तबाही और त्रासदी के हजारों दृश्यों का एक निचोड़ है। हमने हजारों और लाखों दृश्यों को भोगा और जिया है। इस ढाई घंटे की फिल्म में कितना दिखाते, लेकिन जितना दिखाया, वो सब सही है, बल्कि त्रासदी के हजारों दृश्य तो अभी भी दिखाना शेष है।
बस यही कहता हूं, एक हजार साल जिए हमारा प्राइम मिनिस्टर। और धन्य हैं बाला साहेब ठाकरे। ये नहीं होते तो हमारे साथ क्या होता।