क्या है खतरनाक रॉ जासूस ब्लैक टाइगर की कहानी....

Webdunia
गुरुवार, 22 सितम्बर 2016 (12:06 IST)
उड़ी हमले का उद्देश्य भारत को युद्ध के लिए भड़काना है, लेकिन भारत को भड़कने की बजाय बदला लेने के लिए सही समय, सही स्थान और सही क्षेत्र के मिलने का इंतजार करना होगा। भारत के पास अपनी कार्रवाई करने के जो विकल्प हैं, वे बहुत सीमित और जोखिम से भरे प्रतीत होते हैं, लेकिन इन सबमें एक विकल्प ऐसा भी है जिसे 'क्षद्म विकल्प' या 'कोवर्ट ऑप्शन' कह सकते हैं।
 
इस तरह की कार्रवाई का अर्थ है कि 'हम ऐसा गोपनीय ऑपरेशन कर सकते हैं जिससे आप विश्वसनीय ढंग से इनकार भी कर सकते हैं।' कहने का अर्थ है कि कोई कार्रवाई होती भी रहे लेकिन दुश्मन देश को इसकी भनक तक न लगे लेकिन अगर आप रवींद्र कौशिक की तरह से पकड़े जाते हैं तो कोई भी आपकी लाश लेने तक सामने नहीं आता है।  
 
दुनिया में कई देश इस तरह की कार्रवाई का सहारा लेते हैं क्योंकि छद्म ऑपरेशन के बाद भी यह सिद्ध नहीं किया जा सकता है कि ऐसा हुआ है। इस तरह की कार्रवाई पाकिस्तान जैसे देशों के खिलाफ विशेष रूप से उपयोगी है, जहां सरकारी मशीनरी और गैर-सरकारी मशीनरी के बीच अंतर समाप्त हो गया है। लेकिन इस तरह का ऑपरेशन बहुत ही धैर्य और दीर्घकालिक प्रक्रिया होती है क्योंकि दुश्मन देश में या किसी भी देश में अपना एक नेटवर्क खड़ा होने में वर्षों का समय लगता है और छोटी-सी गलती से सब कुछ गुड़ गोबर भी हो सकता है। साथ ही, इस तरह के माहिर लोग बहुत ही कम होते हैं जो अपना काम कर लें जिनकी परछाईं भी नजर नहीं आए। खुफिया एजेंसियों से जुड़े लोगों के बारे में कोई भी जानकारी सार्वजनिक नहीं होती है और वे जीवन भर गुमनामी का सा जीवन बिताते हैं।
 
इस तरह के ऑपरेशनों को कैसे अंजाम दिया जाए इसको भारत की खुफिया एजेंसी, रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के प्रमुखों से बेहतर कोई नहीं जानता है। ऐसे ही एक विरले जासूस थे रॉ के छठवें प्रमुख आनंद कुमार वर्मा, जिनका पिछले 1 सितम्बर को 83 वर्ष की आयु में नई दिल्ली में संक्षिप्त बीमारी के बाद निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार और शोक सभा भी ठीक ऐसी हुई जैसी कि उनका सारा जीवन रहा। उनकी शोक सभा में मात्र एक तस्वीर ऐसी थी जिससे उनके पेशे के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है। इस तस्वीर में उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पूर्व रॉ रा प्रमुख (रहस्यमय जासूस) रामेश्वर नाथ काव के साथ दिखाया गया था।
 
भारत की विदेशी खुफिया सेवा की स्थापना वर्ष 1969 में रामेश्वर नाथ काव ने की थी। इस शाखा का प्रमुख सीधा प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह होता है और रॉ के प्रमुखों को प्रधानमंत्री का असली राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार माना जाता है। लेकिन जबसे 1998 में एनएसए का पद सृजित किया गया है तब से इसके असर और पहुंच में कुछ कमी आई है। रॉ के छठवें प्रमुख वर्मा एक ऐसी खुफिया शाखा के प्रमुख थे जिसकी स्थापना 1962 के चीन युद्ध के बाद की गई थी। संगठन के पास अपना पैरामिलिट्री, एयर विंग (हवाई शाखा) और तकनीकी सम्पत्तियां हैं।
 
1971 के बांग्लादेश के युद्ध में इस संस्था ने निर्णायक भूमिका निभाई थी और तब इंदिरा जी ने बांग्लादेश की स्वतंत्रता के शिल्पकार मुजीबुर्रहमान से बातचीत के दौरान कहा था कि यह आदमी (आरएन काव) बांग्लादेश के बारे में इतनी जानकारी रखता है जितनी कि शायद हमें भी न हो। 
 
राजीव गांधी के कार्यकाल में वर्मा ने असाधारण स्थितियों में रॉ प्रमुख का कार्यभार संभाला था। रॉ और आईबी के मामलों में राजीव गांधी सर्वाधिक रुचि रखते थे और उन्होंने संगठन में सबसे पहले कंप्यूटर का परिचय कराया। 
 
राजीव ने दो महत्वपूर्ण कदम और उठाए और उन्होंने भारत के परमाणु हथियार कार्यक्रम को फिर से शुरू कराया और एक गोपनीय एक्शन प्रोजेक्ट काउंटर इंटेजीजेंस टीम- एक्स (सीआईटी-एक्स) आरंभ कराया। तब भारत के आसपास बहुत महत्वपूर्ण बदलाव हो रहे थे। पाकिस्तान परमाणु हथियारों को पाने के साथ-साथ अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ खुफिया ऑपरेशन चला रहा था।  
 
साथ ही, तब पाकिस्तान, पंजाब के खालिस्तानी आतंकवादियों को पाल रहा था। तब वर्मा और राजीव ने निष्कर्ष निकाला कि जब तक भारत के खिलाफ आतंकवाद चलाने पर पाक को भारी कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी तबतक भारत को कभी भी इस समस्या से निजात नहीं मिलेगी। और यह बात आज तक पूरी तरह अटल सत्य है। वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल की तरह वर्मा भी उन गिने चुने अधिकारियों में से एक थे जिन्हें पाकिस्तानी मानसिकता की गहरी समझ थी और वे पाकिस्तानी सेना के माइंडसेट (मानसिक खूबियों, खामियों) को भली भांति समझते हैं। 
 
डोभाल भी सात वर्ष तक पाकिस्तान में भारत के लिए जासूसी करते रहे और खालिस्तानी आंदोलन के दौरान उन्होंने एक रिक्शेवाले का भेष बनाकर उस समय स्वर्ण मंदिर में आतंकवादियों की तैयारियों की सारी जानकारी हासिल की थी, जबकि ऐसा करने का अर्थ मौत के मुंह में जाना था।
 
तब अगर राजीव गांधी चुनाव न हारते और वर्मा और तीन वर्ष तक रॉ प्रमुख रहते तो हमारे देश के लोग जिहादी आतंकवादियों के हाथों इस तरह न मारे जाते। वर्ष 1988 में वर्मा ने आईएसआई प्रमुख जनरल हमीद गुल से भेंट की थी। दोनों की इस बैठक की जानकारी तत्कालीन पाक तानाशाह जिला उल हक को भी थी। 
 
पिछले अगस्त में जब जनरल गुल की मौत हुई तो उन्होंने कहा था कि जनरल जिया ने सियाचिन भी विसैन्यीकरण और सैनिकों की संख्या में कटौती का प्रस्ताव रखा था। अपने कार्यकाल में उन्होंने चीनी खुफिया एजेंसी एमएसएस के साथ भी गोपनीय बातचीत की थी। उनकी इस बातचीत के बाद ही राजीव गांधी की बीजिंग यात्रा संभव हो सकी थी। लेकिन वर्मा और उनके पांच पूववर्तियों ने जो सीआईटी-एक्स का गोपनीय ऑपरेशन चलाया था वह 1997 में पूर्व प्रधानमंत्री आईके गुजराल के इशारे पर बंद कर दिया गया। बाद की सरकारों ने रॉ को मरणासन्न छोड़ दिया और देश के प्रति बेहद निष्ठावान अधिकारियों की यह कार्रवाई हमेशा के लिए बंद कर दी गई।
 
विभिन्न देशों की खुफिया एजेंसियों की तरह रॉ भी अपना काम करती है लेकिन कथित लोकतंत्र और राजनीति के चलते ऐसे अधिकारी नहीं मिल पाते हैं जो कि अपना काम पूरी गोपनीयता से करते रहें। भारत की तरह इसराइल भी चारों ओर से ‍मुस्लिम देशों से ‍घिरा है जो कि हर क्षण उसका अस्तित्व तक समाप्त करने की कोशिश करते हैं, लेकिन इसराइल की खुफिया एजेंसी मोसाद के बल पर ही इसराइल बचा हुआ है। मोसाद का मतलब मौत। एक बार जो मोसाद की निगाह में चढ़ गया, उसका बचना मुश्किल है। मोसाद के खूंखार एजेंट उसे दुनिया के किसी भी कोने से ढूंढ निकाल कर मार देने का दमखम रखते हैं। इस कारण से मोसाद को दुनिया की सबसे खतरनाक एजेंसी कहा जाता है।
 
मोसाद की पहुंच हर उस जगह तक है जहां इसराइल या इराराइल के नागरिकों के ख़िलाफ कोई भी साजिश रची जा रही हो या उन्हें नुकसान पहुंचाया जाता है। मोसाद का इतिहास 63 साल पुराना है।
 
मोसाद का मुख्यालय तेल अवीब शहर में है। मोसाद यानी इंस्टीट्यूट फॉर इंटेलीजेंस एंड स्पेशल ऑपरेशन इसराइल की नेशनल इंटेलीजेंस एजेंसी का गठन 13 दिसंबर 1949 को 'सेंट्रल इंस्टीट्यूशन फॉर को-ऑर्डिनेशन' के तौर पर हुआ था।
 
इस एजेंसी को बनाने का प्रस्ताव इसराइल के तत्कालीन शिखर पुरुष रियुवैन शिलोह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड बैन गुरियन के कार्यकाल में दिया गया था और उन्हें ही मोसाद का पहला डायरेक्टर बनाया गया था। एजेंसी का उद्देश्य आतंकवाद के खिलाफ लड़ना, खुफिया जानकारी एकत्रित करना और राजनीतिक हत्याओं को अंजाम देना है। मोसाद की आतंकवादियों के खिलाफ चलाई गई मुहिम का बेहतर उदाहरण 'म्यूनिख हत्याकांड' है। तत्कालीन पश्चिम जर्मनी के म्युनिख शहर में आयोजित 1972 के ओलिंपिक के दौरान फिस्तिीन के आतांकवादी संगठन 'ब्लैक सेप्टेम्बर' ने ग्यारह यहूदी खिलाड़ियों की हत्या कर दी थी। 
 
फिलिस्तीन के आतंकवादी संगठन 'ब्लैक सेप्टेम्बर' द्वारा अंजाम दिए गए इस आतंकी कारनामे में शामिल उन तमाम लोगों को मोसाद के लोगों ने बीस वर्ष तक चुन-चुनकर मार दिया जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस संगठन से जुड़े थे। उन्होंने इसके लिए दूसरे देशों में घुसकर कार्रवाई की। यह एजेंसी आतंकवादी या यहूदियों के लिए खतरनाक लोगों का तब तक पीछा करती है जब तक कि उसके पूरे नेटवर्क को ध्वस्त न कर दिया जाए। 
 
दुनियाभर के अलग-अलग देशों में कई ऐसी खुफिया एजेंसियां हैं, जो अपने देश की सुरक्षा की खातिर कुछ भी करने को तैयार रहती हैं। पाकिस्तानी इंटेलीजेंस एजेंसी, आईएसआई (इंटर-सर्विसेस-इंटेलीजेंस) दुनिया की ऐसी ही एक खुफिया एजेंसी है। अमेरिकी मीडिया क्राइम न्यूज ने 1948 में स्थापित आईएसआई को दुनिया की बेहतरीन और सबसे ताकतवर खुफिया एजेंसी माना है। इसका मुख्यालय इस्लामाबाद के शहराह-ए-सोहरावर्दी में है। आईएसआई भारत में आतंकवाद को फैलाने, बढ़ावा देने का काम करती रही है। भारत में हुए कई आतंकी हमलों में आईएसआई के एजेंट्स का हाथ रहा है। कश्मीर और कथित खालिस्तानी आंदोलन के पीछे भी आईएसआई का हाथ रहा है।
 
रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) भारत की खुफिया एजेंसी है। इसकी स्थापना 1968 में की गई थी, जिसका मुख्यालय दिल्ली में है। इस एजेंसी की खासियत यह है कि भारत के प्रधानमंत्री के अलावा किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। रॉ विदेशी मामलों, अपराधियों, आतंकियों के बारे में पूरी जानकारी रखती है। इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) भी देश की सुरक्षा के लिए काम करती है। अब तीसरी एजेंसी (एनआईए) नेशनल इंटेलीजेंस एजेंसी भी सक्रिय है। इन तीनों एजेंसियों ने मिलकर कई बड़े आतंकी हमलों को नाकाम किया है। रॉ ने पाकिस्तान के तात्कालीन सैन्य प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ और उनके चीफ ऑफ स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद अजीज के बीच हुई बातचीत को टेप करने में सफलता पाई। इस टेप के बाद साबित हो गया कि कारगिल घुसपैठ में पाकिस्तान की भूमिका थी।
 
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ब्लैक टाइगर की कहानी : रवीन्द्र कौशिक उर्फ ब्लैक टाइगर एक ऐसा भारतीय जासूस जो पाकिस्तानी सेना में मेजर तक बन गया था। राजस्थान के श्रीगंगानगर के रहने वाले रविन्द्र कौशिक का जन्म 11 अप्रैल 1952 को हुआ। उसका बचपन गंगानगर में ही बीता। बचपन से ही उन्हें थियेटर का शौक था इसलिए बड़े होकर वे एक थियेटर कलाकार बन गए। जब एक बार वे लखनऊ में एक प्रोग्राम कर रहे थे तब भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के अधिकारियों की नजर उन पर पड़ी। रॉ के अधिकारियों ने उनसे मिलकर उनके सामने जासूस बनकर पाकिस्तान जाने का प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
 
रॉ ने उनकी ट्रेनिंग शुरू की। पाकिस्तान जाने से पहले दिल्ली में करीब 2 साल तक उनकी ट्रेनिंग चली। पाकिस्तान में किसी भी परेशानी से बचने के लिए उनका खतना किया गया। उन्हें उर्दू, इस्लाम और पाकिस्तान के बारे में जानकारी दी गई। ट्रेनिंग समाप्त होने के बाद मात्र 23 साल की उम्र में पाकिस्तान भेज दिया गया। जहां उनका नाम नवी अहमद शाकिर कर दिया गया। रवीन्द्र गंगानगर का रहने वाला था, जहा पंजाबी बोली जाती है और पाकिस्तानी पंजाब के अधिकतर इलाकों में भी पंजाबी बोली जाती है इसलिए उन्हें पाकिस्तान में सेट होने में ज्यादा दिक्कत नहीं आई।
 
रवीन्द्र ने पाकिस्तान की नागरिकता लेकर पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी में दाखिला, लिया जहां से उन्होंने कानून में ग्रेजुएशन किया। पढ़ाई खत्म होने के बाद वे पाकिस्तानी सेना में भर्ती हो गए तथा मेजर की रैंक तक पहुंच गए। इसी बीच उन्होंने वहां पर एक आर्मी अफसर की लड़की अमानत से शादी कर ली तथा एक बेटी के पिता बन गए। 
 
रवीन्द्र कौशिक ने 1979 से लेकर 1983 तक सेना और सरकार से जुडी अहम जानकारियां भारत पहुंचाईं। रॉ ने उनके काम से प्रभावित होकर उन्हें ब्लैक टाइगर के खिताब से नवाजा। पर 1983 का साल ब्लैक टाइगर के लिए मनहूस साबित हुआ। 1983 में रवींद्र कौशिक से मिलने रॉ ने एक और एजेंट पाकिस्तान भेजा, लेकिन वह पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के हत्थे चढ़ गया। लंबी यातना और पूछताछ के बाद उसने रवींद्र के बारे में सब कुछ बता दिया। जान जाने के डर से रवींद्र ने भागने का प्रयास किया, लेकिन भारत सरकार ने उसकी वापसी में दिलचस्पी नहीं ली। 
 
रवींद्र को गिरफ्तार कर सियालकोट की जेल में डाल दिया गया। पूछताछ में लालच और यातना देने के बाद भी उसने भारत की कोई भी जानकारी देने से मना कर दिया। 1985 में उसे मौत की सजा सुनाई गई, जिसे बाद में उम्रकैद में बदला गया। मियांवाली जेल में 16 साल कैद काटने के बाद 2001 में उनकी मौत हो गई। उसकी मौत के बाद भारत सरकार ने उसका शव भी लेने से मना कर दिया।
 
भारत सरकार ने रवींद्र से जुड़े सभी रिकॉर्ड नष्ट कर दिए और रॉ को चेतावनी दी कि वह इस मामले में चुप रहे। उनके पिता इंडियन एयरफोर्स में अफसर थे। रिटायर होने के बाद वे टेक्सटाइल मिल में काम करने लगे। रवींद्र ने जेल से कई चिट्ठियां अपने परिवार को लिखीं। वह अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों की कहानी बताता था। एक खत में उसने अपने पिता से पूछा था कि क्या भारत जैसे बड़े मुल्क में कुर्बानी देने वालों को यही मिलता है? लेकिन दुश्मनों के देश में पकड़े जाने पर किसी भी जासूस का यही हश्र होता है जैसा कि रवींद्र कौशिक का हुआ। पकड़े जाने पर यही हश्र सर्वजीत सिंह का भी हुआ और सीमावर्ती इलाकों के बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि दशकों तक पाकिस्तानी जेलों में रहकर रिहा कर दिए गए।  
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