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हिंदी से विशेष लगाव की एक रूसी नृत्य मंडली

विश्व हिन्दी दिवस 10 जनवरी पर विशेष

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राम यादव

, मंगलवार, 10 जनवरी 2023 (00:05 IST)
सन 1957 में भारत में एक फ़िल्म चल रही थी 'परदेसी'। तत्कालीन सोवियत संघ और भारत की इस पहली साझी फ़िल्म में दोनों देशों के अभिनेता थे। निर्देशन कर रहे थे भारत की तरफ़ से ख्वाजा अहमद अब्बास और रूस की तरफ़ से वसीली प्रोनिन। फ़िल्म हिंदी और रूसी, दोनों भाषाओं में बनी थी। उसकी पटकथा के केंद्र में अफनासी निकितिन नाम का भारत आने वाला पहला रूसी यात्री था।
 
निकितिन, पुर्तगाल के वास्को द गामा से भी 25 वर्ष पूर्व, 1466 में, भारत की ज़मीन पर पैर रखने वाला पहला यूरोपीय था। वह भारत और रूस के बीच व्यापारिक रिश्ते शुरू करने आया था, न कि बाद के अन्य यूरोपीयों की तरह भारत को अपना उपनिवेश बनाने के लिए। भारत में वह 1466 से 1475 के बीच लगभग तीन वर्षों तक रहा। 1475  में अफ्रीका होते हुए स्वदेश लौटने के दैरान, अपने घर पहुंचने से कुछ पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। डायरी जैसा उसका उस समय का यात्रा वृत्तांत, "तीन समुद्र पार का सफ़रनामा" साढ़े पांच सौ वर्ष पूर्व के भारत का एक बहुत ही रोचक वर्णन है।
 
अफनासी निकितिन ने पहली बार भारतीयों को रूस से और रूसियों को भारत से परिचित कराया था। किंतु, यह परिचय जनजीवन के स्तर पर पहुंचना तब शुरू हुआ, जब रूस में 1917 की समाजवादी क्रांति होने और सोवियत संघ बनने से भारत के स्वतंत्रता संग्रामियों को प्रेरणा का एक नया वैचारिक स्रोत मिला। 1947 में भारत को स्वाधीनता मिलने के बाद तो दोनों पक्षों के बीच पारंपरिक संबंध जिस तरह प्रगाढ़ हुए, उसे सभी जानते हैं।
 
हिंदी के स्थान को लेकर भारत में जब दुविधा थी : भारतीय नेता जब बड़ी दुविधा में थे कि सरकारी कामकाज में अंग्रेज़ी का स्थान हिंदी को मिलना चाहिए या नहीं, तब मॉस्को से हिंदी में रेडियो प्रसारण, वहां के विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई और हिंदी-रूसी तथा रूसी-हिंदी शब्दकोशों की छपाई शुरू हो गई थी। 1800 से अधिक पृष्ठों और डेढ़ लाख से अधिक हिंदी शब्दों वाले, रूस जैसे भारी-भरकम हिंदी शब्दकोश कहीं और नहीं मिलते। मॉस्को से 'सोवियत संघ' और 'सोवियत नारी' नाम की दो पत्रिकाएं और दिल्ली में सोवियत दूतावास की ओर से 'सोवियत भूमि' नाम की पत्रिका भी 1950 वाले दशक से भारत के लाखों लोगों के हाथों में पहुंचने लगी थी। भारत भेजे गए कई सोवियत राजदूत भी हिंदी भी बोलते थे।
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राज कपूर की 'आवारा' और 'मेरा नाम जोकर' जैसी फ़िल्में सोवियत रूस में बड़े चाव से देखी जाती थीं। इन फ़िल्मों के नृत्य और संगीत का जादू –  रूस के धुर उत्तर-पश्चिम में स्थित रूसी संघ के 22 गणतंत्रों में से एक –  केवल 5 लाख 33 हज़ार की जनसंख्या वाले 'कारेलिया गणतंत्र' में भी पहुंचा। फ़िनलैंड के साथ साझी सीमा वाले कारेलिया की आधी जनता राजधानी 'पेत्रोज़ावोद्स्क' में रहती है। वहीं रहती हैं, रूस में भारतीय नृत्यकला और गीत-संगीत की एक बड़ी प्रेमिका वेरा एवग्राफ़ोवा।
 
1987 से है यह नृत्य मंडली : भारत की हिंदी फ़िल्मों के गीत-संगीत और नृत्यों ने वेरा को बहुत बचपन में ही इतना मोह लिया कि बाद में दोनों विधाएं उनके जीवन और सृजन का अभिन्न अंग बन गईं। 1987 में उन्होंने एक ऐसी नृत्य मंडली की स्थापना की, जिसका नाम इस बीच कारेलिया और रूस में ही नहीं, भारत और अमेरिका जैसे दूर तक के देशों में भी पहुंच गया है। यह मंडली – अपने हाथों से सिले – पूरी तरह भारतीय पहनावों में, और मुख्यतः हिंदी गीत-संगीत की धुनों पर, भारतीय शास्त्रीय और बॉलीवुड डांस से मुग्ध कर देने के लिए प्रसिद्ध हो गई है।  
 
वेरा एवग्राफ़ोवा अपने बारे में बताती हैं कि जब वे मात्र 3 साल की थीं, तब एक बार उनके माता-पिता उन्हें ले कर एक भारतीय फ़िल्म देखने गए। फ़िल्म हिंदी में थी, पर उसे रूसी भाषा में डब किया गया था। फ़िल्म उनके मन पर उनके जीवन की सबसे अमिट छाप छोड़ गई। उन्हें सब कुछ तो याद नहीं है, पर फ़िल्म में भारतीय गायकों की आवाज़ ने उन्हें मुग्ध कर दिया। तभी से उन्हें बोध होने लगा कि अपनी खुशी के लिए उन्हें भारतीय संगीत चाहिए और भारतीय सिनेमा ही उनकी रुचि का केंद्रबिंदु बनेगा।
 
भारत का पूरा नृत्य-जगत उद्घाटित कर दिया : 1960 वाले दशक के मध्य में सोवियत रूस के सिनेमा घरों में एक दूसरी हिंदी फ़िल्म आई – 'गीत गाया पत्थरों ने'। लोगों ने उसे केवल सिनेमा समझा। लेकिन वेरा एवग्राफ़ोवा का तो जीवन ही बदल गया। कहती हैं –  'उसने मेरे लिए भारत का पूरा नृत्य-जगत उद्घाटित कर दिया।' इस फ़िल्म का निर्देशन, भारतीय स्थापत्यकला के नमूनों की तस्वीरें, ग़ज़ब का संगीत, मुख्य चरित्र-अभिनेताओं का सौंदर्य और राजश्री शांताराम के नृत्य ने उन्हें इतना सम्मोहित कर दिया कि वे ठगी-सी रह गईं। कहती हैं– 'मैंने अपनी रगों में ऐसी प्रचंड ऊर्ज अनुभव की, कि वह ऊर्जा आज तक मुझे स्पंदित कर रही है।'
 
10 साल की होते ही वेरा, जहां कहीं से भी मिल सकते थे, वहां से हिंदी फ़िल्मी संगीत के ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड ख़रीद कर जमा करने लगीं। रूस के उन शहरों के फेरे लगाने लगीं, जहां भारत का कोई व्यापार मेला लगा होता था। इन मेलों में भी नए-पुराने रेकॉर्ड ढूंढती फिरती थीं। 15 साल की होने पर उन्हें लगने लगा कि अब वे सबके सामने नाच भी सकती हैं। अपने शहर 'पेत्रोज़ावोद्स्क' में हुई एक नृत्य प्रतियोगिता में उन्होंने भाग लिया और पहली बार में ही प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार भी जीता।
 
कथक और भरत नाट्यम सीखा : स्कूली पढ़ाई पूरी करते ही वेरा आगे की पढ़ाई के लिए मॉस्को गईं। मुख्य आकर्षण लेकिन यह था कि मॉस्को में अंतरराष्ट्रीय उत्सव-महोत्व होते रहते हैं, इसलिए शायद वहां कोई ऐसा भारतीय भी मिल जाएगा, जो उन्हें भारतीय नृत्यकला सिखा सके। उन्हें श्रीमती दासगुप्ता नाम की एक शिक्षिका मिलीं, जिनसे कथक और भरत नाट्यम सीखा। मॉस्को में पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने शहर में वापस लौटीं। विवाह किया और एक बेटे की मां बनीं।
 
बेटा थोड़ा बड़ा होते ही वेरा के दिमाग़ में हिंदी फ़िल्मों सहित भारत की दूसरी नृत्य शैलियों को भी साथ लेकर एक नृत्य मंडली बनाने का विचार कुलबुलाने लगा। कहती हैं – 'नृत्य मेरे लिए अपने अस्तित्व का एक ऐसा रूप है, जो मुझे एक विशेष दिमाग़ी अवस्था में बने रहना संभव बनाता है। भारतीय संस्कृति एक दूसरी ही दुनिया की प्रतिछवि है। मैं भले ही इस भौतिक दुनिया में हूं, पर मेरा हर कृतित्व उस दूसरी अवस्था को ध्यान में रख कर होता है।' 
 
सोवियत कालीन दफ्तरशाही की अड़चनें पार करने के बाद वेरा एवग्राफ़ोवा को, 1987 में अपना एक डांस-स्टूडियो बनाने और एक नृत्य मंडली गठित करने की अनुमति मिली। अपने कार्यक्रमों को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने के लिए वे 'पेत्रोज़ावोद्स्क' के रेल कर्मचारियों वाले सांस्कृतिक केंद्र का उपयोग कर सकती थीं। 
 
एक भारतीय फ़िल्म का नाम अपनाया : वेरा ने अपनी नृत्य मंडली को 'मयूरी' नाम दिया। इसके पीछे भी एक कहानी है।1985 में भारतीय नर्तकी सुधा चंद्रन के जीवन पर एक फ़िल्म बनी थी। उसे पश्चिमी देशों में भी काफ़ी सराहा गया था। एक कार दुर्घटना में सुधा चंद्रन को अपना एक पैर खोना पड़ा, पर नाचना उन्होंने फिर भी नहीं छोड़ा। फ़िल्म को 'मयूरी' नाम दिया गया था। वेरा एवग्राफ़ोवा को अपनी नृत्य मंडली के लिए यही नाम सही लगा, क्योंकि उन्हें भी मंडली के गठन की अनुमति पाने के लिए कई वर्षों तक संघर्ष करना पड़ा था। अनुमति उन्हें तब मिली, जब उदारवादी मिख़ाइल गोर्बाचोव सोवियत रूस के नए नेता बने।
 
1991 में सोवियत संघ का विघटन हो जाने के बाद से तो मयूरी मंडली के लिए, मानो वसंत ऋतु आ गई। बॉलीवुड के डांस-आइटमों के अलावा उसने भरत नाट्यम और कथक को भी अपना लिया है। भारत को भलीभांति समझने के लिए फिल्मी और शास्त्रीय नृत्यों ही नहीं, लोकनृत्यों और कलाओं, उपन्यासों और कथा-कहानियों, कविताओं और यात्रा-संस्मरणों, चित्रकारी और वास्तुशिल्प जैसे विषयों की पुस्तकें भी जमा की जाने लगी हैं। इन मुख्यतः हिंदी पुस्तकों के रोचक हिस्सों के रूसी भाषा में अनुवाद करवाए जाते हैं। ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड ही नहीं, समय के साथ ऑडियो और वीडियो कैसेट, CD और डिजिटल मीडिया का भी संग्रह बढ़ता गया है। मयूरी के कई वीडियो, यूट्यूब पर भी देखे जा सकते हैं। 
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हिंदी का भी लगे हाथ प्रचार-प्रसार होता है : मयूरी के कई सदस्यों ने भारत जा कर नृत्य और संगीत सीखने के अलावा विश्वविद्यालयों में हिंदी की या अन्य संस्थानों में योग-ध्यान और आयुर्वेद की पढ़ाई की है। मंडली के सभी सदस्य हिंदी नहीं जानते। पर, देश-विदेश में होने वाले उनके कार्यक्रमों में उनके दर्शक जब पहली बार हिंदी गीत-संगीत सुनते हैं, तब कुछ के मन में हिंदी सीखने की उत्कंठा भी पैदा होती है। दूसरी ओर, भारत में तो स्वयं बहुत से भारतीय ही हिंदी के प्रबल विरोधी हैं। जो विरोधी नहीं भी हैं, वे हिंदी को 'हिंगलिश' बनाने पर तुले हुए हैं। 
 
1995 तक मयूरी नृत्यमंडली कारेलिया गणतंत्र में इतनी सुपरिचित हो गई थी कि वहां की स्थानीय सरकार ने उसे राष्ट्रीय महत्व की एक सांस्कृतिक संस्था घोषित कर दिया। मॉस्को में भारतीय दूतावास ने उसकी दो प्रमुख नर्तकियों, एलेना फ़िस्कोवेत्स और नतालिया फ्रीदमान को, भारतीय नृत्यकला का अपना कौशल निखारने के लिए फ़ेलोशिप प्रदान की। दोनों को 1996 से 1997 के बीच एक साल तक भारत में रहकर देश के नामी नृत्यकला संस्थानों को जानने और अपने आाप को और अधिक निखारने का अवसर मिला।
 
एक नया प्रयोग शुरू किया : इन दोनों महिलाओं के भारत से लौटने के बाद मयूरी नृत्य मंडली ने एक नया प्रयोग शुरू किया: भारत के पारंपरिक नृत्यों का आधुनिक एवं लोकसंगीत के साथ संयोजन। उन्होंने पाया कि समय के साथ यह संयोजन लोगों को बहुत पसंद आ रहा था। इस प्रयोग का एक दूसरा परिणाम यह निकला कि लोगों में हिंदी भाषा सीखने, भारतीय संगीत विधाओं को समझने, वाद्ययंत्रों को बजाने, नृत्य के लिए सही कपड़ों की खुद ही सिलाई-कढ़ाई करने, भारत की पौराणिक कथाओं को जानने और भारतीय फ़िल्में या टीवी शो देखने की जिज्ञासा और अधिक बढ़ने लगी।
 
मयूरी के सदस्य, बच्चों को भी इन चीज़ों से परिचित कराने लगे। फ़ैशन-शो आयोजित कर भारतीय पहनावों और उन्हें सिलने-पहनने के तरीके दिखाने लगे। पहले स्लाइड-शो और बाद में वीडियो-शो द्वारा बताने लगे कि भारत कितना बहुरंगी देश है। इससे यह हुआ कि नए युवक-युवतियां भी मयूरी से जुड़ने लगे। सदस्य़ कलाकारों की संख्या बढ़ने लगी। 1998 में छोटी आयु के बाल कलाकारों का एक नया ग्रुप बना। भारत में रह चुकी एलेना फ़िस्कोवेत्स ने दोनों प्रकार के युवावर्ग का नेतृत्व संभाला। भारत में उनके साथ रह चुकी नतालिया फ्रीदमान 'बॉलीवुड टीम' की प्रमुख बनीं। मयूरी कलाकार अखिल रूसी नृत्य प्रतियोगिताओं में भी भाग लेने और पुरस्कार पाने लगे। 1999 में मयूरी को रूस की सर्वोत्तम नृत्य मंडली घोषित किया गया।
 
भारत दूसरे घर के समान बन गया है : 2008 में मयूरी को भारत आने और आगरा के 'ताज महोत्व' तथा कन्नानूर के 'केरल महोत्सव' में अपना कौशल दिखाने का निमंत्रण मिला। तब से मयूरी के कलाकारों के लिए भारत उनके दूसरे घर के समान बन गया है। वे निजी तौर पर भी भारत आते-जाते हैं और हर बार कुछ नया सीखकर या लेकर वापस लौटते हैं। 
 
अक्टूबर 2011 में मयूरी नृत्य मंडली को अमेरिका में नॉर्थ कैरोलाइना की एक संस्था की ओर से वहां आने का निमंत्रण मिला। वहां हुए एक नृत्य महोत्सव में 10 हज़ार से अधिक लोगों ने उसके शो का आनन्द लिया। एक ऐसे ही निमंत्रण पर, अगस्त 2012 में, मयूरी के कलाकारों ने न्यूयॉर्क शहर में अपने कौशल का प्रदर्शन किया। न्यूयॉर्क टाइम्स ने कई फ़ोटुओं के साथ इस आयोजन पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की। रूस में तो उसे हर कोने से निमंत्रण मिला करते हैं।
 
मयूरी की कार्यक्रम-सूची के अनुसार, अब तक 200 से अधिक आइटमों का मंचन हो चुका है। इस सूची में हर साल 8 नए नाम शामिल हो जाते हैं। मुख्य कलाकारों की संख्या इस समय लगभग 60 है और 400 से अधिक स्कूली एवं किंडरगार्टन बच्चे भावी कलाकार बन रहे हैं। उनमें से कुछ हिंदी भी सीखेंगे और उनके कौशल को देखकर कुछ दूसरे लोग भी हिंदी और भारत-प्रेमी बनने के लिए प्रेरित होंगे। मयूरी की जन्मदाता वेरा एवग्राफ़ोवा का कहना है कि 'मयूरी हमारी भारत यात्रा भी है। भारत में हम जो कुछ देखते हैं, उसे आत्मसात कर लेते हैं...और तब लोगों को कथा-कहानियां सुनाते हैं, नाचते-गाते हैं...।' 
 

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