भारत में शरिया बैंकिंग दोषपूर्ण विचार

-तारेक फतेह

Webdunia
पिछले सप्ताह रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा की गई घोषणा को मैंने बड़े आश्चर्य से पढ़ा जिसमें कहा गया है कि देश में शरिया के अनुरूप बैंकिंग की धीरे-धीरे शुरुआत करने के लिए परम्परागत बैंकिंग में इस्लामिक बैंकिंग की एक 'इस्लामिक खिड़की' खोलने पर विचार किया जा रहा है।

इसके बाद आरबीआई की घोषणा में जो कहा गया वह या तो नासमझी है अथवा तुष्टिकरण। लेकिन इससे यह बात उजागर हुई कि भारत के इस्लामवादियों ने आरबीआई के उच्चतर स्तर तक पहुंच बना ली है और उन्होंने भारतीय मुस्लिम समुदाय में सर्वाधिक सुरक्षित स्थान पर भी अपनी पहुंच बनाने में सफलता पाई है।  
 
इस घोषणा में कहा गया है कि इस्लामी बैंकिंग के प्रवेश से समाज के उन वर्गों (कट्‍टरपंथी मुस्लिमों) का व्यवस्था में वित्तीय समावेशन सुनिश्चित किया जा सकेगा जो कि धार्मिक कारणों से हमारी व्यवस्था में शामिल नहीं होते हैं। यह पूरी तरह से बकवास है। एक ओर भारत कैश अर्थव्यवस्था को हतोत्साहित करने और अर्थव्यवस्‍था को डिजीटाइज करने के कदम बढ़ा रहा है और देश को 21वीं सदी में जाने की तैयारी कर रहा है, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम भारतीयों को उनके मध्यकालीन अतीत की ओर ले जाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। 
 
इसलिए सवाल उठता है कि वास्तव में इस्लामिक शरिया बैंकिंग क्या है और यह ऐसी क्यों है कि इसे पृथ्वी पर एक भी इस्लामी देश ने नहीं अपनाया है। साथ ही, इसे लेकर भारतीयों को वित्तीय क्षेत्र में इसकी घुसपैठ को लेकर चिंतित होने की क्यों जरूरत है? इस्लामी बैंकिंग की जड़ें 1920 के दशक में पाई गईं लेकिन यह 1970 के दशक के अंत तक शुरू नहीं की जा सकी थी। इसकी स्थापना करने का श्रेय दो लोगों को जाता है जिनमें से एक भारत में पैदा हुए जमात ए इस्लामी के नेता अब्दुल अला मौदूदी हैं और दूसरे मिस्र के संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड के हसन अल बन्ना हैं। ये लोग जिहाद के समूचे इस्लामी दुनिया के आंदोलन के दो योद्धा हैं जिन्होंने पश्चिमी देशों के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है। इन दोनों ने इस बात को भी अनुभव किया कि उनके राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की अहम भूमिका है।
 
वर्ष 1928 में गठित होने के बाद मुस्लिम ब्रदरहुड ने तथाकथित इस्लामिक आर्थिक व्यवस्था पर सबसे ज्यादा जोर दिया। बन्ना और उनके उत्तराधिकारी सैयद कुत्ब ने इस्लामी वित्तीय व्यवस्था के सिद्धांत भी तय किए। दो जानकारों मिलार्ड बर और रॉबर्ट कॉलिंस ने अपनी पुस्तक 'जिहाद के लिए भीख' में लिखा कि मुस्लिम ब्रदरहुड ने सोचा, समझा और इसका इंतजार किया कि उनकी इस्लामी विचारधारा को बढ़ाने के लिए एक विश्वव्यापी संगठन के लिए पैसों का प्रबंधन कैसे किया जाए।
 
लेकिन यह सिद्धांत उस समय व्यवहार में लाया गया जबकि अमेरिकी मदद से पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जिया उल हक ने जेडए भुट्‍टो की सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया और पाकिस्तान में शरिया कानूनों को लागू किया। इसी व्यवस्था के तहत देश के सरकारी बैंकों को मजबूर किया गया कि वे ब्याज ‍रहित लेन-देन के इस्लामी सिद्धांतों के तहत बैंकों को चलाएं। जबकि दो वरिष्ठ मुस्लिम बैंकिंग विशेषज्ञों ने लेखक बनकर शरिया बैंकिंग की कटु आलोचना की है।
 
इनमें से एक मोहम्मद सलीम ने इस व्यवस्था को एक धोखा बताया जबकि दूसरे जानकार तिमुर कुरान ने कहा कि 'यह सारी व्यवस्था व्यापक इस्लामी उद्देश्यों को आगे बढ़ाने का एक सुविधाजनक बहाना था और इससे धार्मिक अधिकारियों की जेबों को भरने का उपाय किया गया। अब सवाल यह है कि आम भारतीयों या मुस्लिमों की ओर पूछा जाना चाहिए कि भारतीय बैंकों को क्यों इस स्वांग में शामिल किया जाए? विदित हो कि मुहम्मद सलीम न्यूयॉर्क में पार्क एवेन्यू बैंक के पूर्व सीईओ और चेयरमैन रहे हैं। इससे पहले वे बैंकर्स ट्रस्ट के साथ एक वरिष्ठ बैंकर थे जहां पर वे अन्य जिम्मेदारियों को निभाते हुए बैंक की मध्यपूर्व डिवीजन के प्रमुख थे और बहरीन में स्थि‍त एक प्रमुख इस्लामिक बैंक के सलाहकार भी थे।
 
उन्होंने अपनी पुस्तक 'इस्लामी बैंकिंग : तीन सौ बिलियन डॉलर का धोखा' में न केवल शरिया की आधारभूत प्रस्तावना में शरिया और इस्लामिक बैंकिंग की बखिया उधेड़ दी और लिखा 'इस्लामिक बैंक जो कहते हैं वह करते नहीं हैं : सभी बैंक ब्याज लेते हैं लेकिन इसे इस्लामी चोला उढ़ा देते हैं। वे इस तरह धोखेबाजी और बेईमान बैंकिंग कार्यविधियों में लिप्त होते हैं।'
 
वे लिखते हैं, 'इस्लामी बैंकिंग के उन्नायक कहते हैं कि इस्लाम में किसी तरह के ब्याज पर प्रतिबंध है लेकिन अगर आप इस्लाम से पूर्व और इस्लामी इतिहास को समझें तो आपको यह बात समझ में आ जाएगी कि कुरान में 'सूदखोरी उधार' की मनाही है, 'ब्याज' की नहीं। सूदखोरी से आप समझ सकते हैं कि आप ब्याज की रकम को कानून सा समाज सम्मत दर से बढ़ाकर बसूल करते हैं। इसमें अंतर करके देखें तो आपको पता होगा कि सूदखोरी एक शोषण है और इसमें बहुत ऊंची ब्याज दर होती है।'
 
दूसरा अहम सवाल है कि क्या इन बैंकों ने मुस्लिम जगत में आर्थिक विकास को उन्नत बनाया?  सलीम का कहना है : ' दुख की बात है कि इसका उत्तर नहीं में है। वास्तव में इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि इस्लामी बैंकों ने इन दोनों क्षेत्रों में से एक में भी कोई योगदा‍न किया हो।' जबकि सच्चाई यह है कि चीन और भारत जैसे दो देशों ने गरीबी कम करने के उपाय किए और विकास को बढ़ावा दिया। इन देशों ने अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थलों और प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के होते हुए भी सभी इस्लामी देशों की मिलाकर की गई प्रगति, विकास की गति को पीछे छोड़ दिया है।        
शरिया बैंकिंग ने गरीबी को भले ही न मिटाया हो या आर्थिक प्रगति को बढ़ावा नहीं दिया हो लेकिन यह एक ओर जहां मुल्ला-मौलवी वर्ग के लिए वरदान साबित हुई वहीं दूसरी ओर इसने युवा चमक दमक वाले पेशेवर मुस्लिम बैंकरों और निवेश वकीलों का भला किया जिन्होंने गरीब मुस्लिम जनता की कीमत पर अपनी जेबें भरने का काम किया। इस्लामी बैंकिंग की कार्यप्रणाली को बहुत गहरे से जानने वाले सलीम लिखते हैं- 'इस्लामी बैंकिंग की स्थापना को बढ़ावा देने के लिए शरिया के जानकारों ने एक अहम भूमिका निभाई। इन्हें बैंकिंग, अर्थशास्त्र और बहुतों को इस्लामी इतिहास का ज्ञान भले ही नहीं हो, रीबा की व्याख्या की और ब्याज के नाम पर सूदखोरी को बढ़ावा दिया। दूसरी अहम बात है कि शरिया के सलाहकारों ने इस्लामी बैंकों को बहुत से लेन-देन को इस्लामी करार दिया जोकि ब्याज मुक्त बताया गया। वास्तव में, वे ब्याज वसूल करते रहे लेकिन इन्होंने ब्याज भुगतान को छिपाकर दूसरा नाम दे दिया।'
 
बैंकिंग उद्योग के शरिया बोर्ड्स में आज दर्जनों इस्लामी विद्वान और इमाम शामिल होते हैं। इसके अलावा, इस्लामी बैंकिंग कॉन्फ्रेंसेज और फोरम्स का नया उद्योग खड़ा हो गया है। सारी दुनिया के वित्तीय केन्द्रों के आसपास बैंकरों और अर्थशास्त्रियों के साथ सैकड़ों शरिया विद्वानों को मिलते-जुलते देखा जाता है। सलीम (जिन्होंने ऐसे बहुत से आयोजनों में भाग लिया है) के शब्दों में 'ऐसे आयोजनों में बैंकिंग में जो नव परिवर्तन हुए, उसके लिए दोनों ही तरह के लोग एक दूसरे की पीठ ठोकने का काम करते हैं।'
 
प्रतिवर्ष ऐसे कम से कम पांच अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंसेज होती हैं और ये पिछले 25 वर्षों से होती आ रही हैं। इन पर प्रतिवर्ष 20 लाख डॉलर खर्च होते हैं और इस तरह शरिया बैंकिंग सर्किट को जानदार बनाए रखने के लिए 20 करोड़ डॉलर से ज्यादा की राशि खर्च कर दी गई है। एक उदाहरण में वे बताते हैं कि कैसे शरिया विद्वान केवल बैंक से मिलने वाले अपने पैसों की चिंता करते हैं और ऐसे किसी भी समझौते पर अपनी मुहर लगाने के लिए तत्पर रहते हैं जिनमें ब्याज को छिपाने के उपाय किए जाते हैं। उन्होंने एक ऐसी ही हास्यास्पद स्थिति के बारे में लिखा है।
 
'मैंने खुद ही ऐसे बहुत से हास्यास्पद मामले देखे हैं जिनमें इस्लामी बैंकिंग के शरिया विद्वान केवल अरबी बोलना जानते हैं लेकिन एक लेंडिंग ऑफिसर केवल अंग्रेजी और उर्दू ही बोलता था। एक विशेष प्रकार के वित्तीय लेन देन की अंग्रेजी में व्याख्या की गई जिनमें लिबोर (लंडन इंटर बैंक ऑफर रेट) के 'एक्स' परसेंट रखे जाने का जिक्र था। इस कॉन्फ्रेंस के दौरान शरिया सलाहकारों को इस जटिल प्रक्रिया को अंग्रेजी से अरबी भाषा में बताने के लिए एक इंटरप्रेटर की मदद लेनी पड़ी।
 
कभी-कभी तो यह देखना बहुत दुखद और हास्यास्पद होता है कि धार्मिक विद्वानों को प्रस्ताव पास करने को कहा जाता है। वे यह तय करते हैं कि यह ‍शरिया सिद्धांतों के अनुरूप है। ज्यादातर शरिया जानकार बहुत बूढ़े और आंशिक तौर पर बहरे होते हैं जिनका फाइनेंस और आधुनिक बैंकिंग से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं होता है। पर उन्हें यह बात पता होती है कि इस काम के लिए बैंक उन्हें मोटी रकम देता है, ऐसे किसी सौदे को अपना आशीर्वाद दे देते हैं। हालांकि उनके चेहरे पर ऐसे हाव भाव होते हैं जिनसे पता नहीं लगता है कि उन्हें एक कारोबारी सौदे और एक लीवरेज्ड बायआउट सौदे में कोई अंतर समझ में आया है। 
 
इस्लाम के नाम पर जो धोखाधड़ी और बेईमानी होती रहती है और आम मुस्लिम को यह विश्वास दिलाया जाता है कि मुख्यधारा के बैंकों के साथ बैंकिंग गैर-इस्लामिक और पाप है। जैसा कि एक मुस्लिम बैंकर से पूछा गया, ' विभिन्न उपायों के तहत जिनमें से ज्यादातर दिखावटी होते हैं, इस्लामी बैंक किसी तरह का कोई जोखिम नहीं लेते हैं। अगर इस्लामी बैंक को अपने हमबर्गर का नाम रखना होता है तो वे इसे मक्का बर्गर नाम देते हैं जबकि मैकडोनल्ड के बर्गर और उनके बर्गर में किसी तरह का कोई अंतर नहीं होता है।
 
मुस्लिम गृहमालिकों के लिए जो शरिया बैंकिंग के तहत मुस्लिम संस्थान से लेनदेन करते हैं, उन्हें घर ज्यादा महंगा पड़ता है। यूएम फाइनेंशियल कनाडा स्थि‍त शरिया वित्तीय संस्थान है जो कि दिवालिया हो गई, का उदाहरण ध्यान देने योग्य है। जिन लोगों ने यूएम फाइनेंशियल के जरिए घर खरीदे, वे उनके मुकाबले महंगे थे जिन्होंने अन्य दूसरे परंपरागत बैंकों के जरिए घर खरीदे थे। टोरंटो स्टार में प्रकाशित हुआ कि यहां पर एक खरीददार इतनी मासिक फी चुकाता है जो कि एक मॉडगेज (बंधक या रेहन फी) के बराबर होती है। अगर यहां पर बंधक सम्पत्ति पर ब्याज दर 5.5 प्रतिशत है तो यूएम वित्तीय संस्थान के किराए की फी 6.1 प्रतिशत थी।' 
 
सलीम इस बात पर दुख जाहिर करते हैं कि कुछ लोग इस्लाम के नाम पर चलने वाली इस धोखाधड़ी को उजागर कर रहे हैं। हमें यह करना चाहिए कि हम इस्लामी बैंकिंग की असफलताओं, कमजोरियों को उजागर करें लेकिन हम इस्लाम विरोधी होने के आरोप से बचे रहें। शरिया बैंकिंग की पहेली मुस्लिम समुदाय पर एक ऐसा दुखद कलंक है जिसे किसी स्वर्णिम काल का पुनर्जीवन समझा जा रहा है जो कि बीसवीं सदी का निर्माण है जोकि तर्क, विवेक और इस्लाम की भावना के विपरीत है, लेकिन यह हमारी कोई गलती के बिना सिर पर लाद दी गई है। शरिया बैंकिंग के झंडाबरदार अपने तर्कों की बजाय कुरान की आयतों को दोहराते हैं जोकि किसी भी कारोबार या निजी वित्तीय लेनदेन को अवैध करार देते हैं।
 
जबकि कुरान की आयतों से यह स्पष्ट है कि इसमें सम्पन्न सूदखोरों से कहा गया है कि वे कर्जदाताओं के प्रति नरमी दिखाएं और उसे कर्ज चुकाने के लिए अधिक से अधिक समय दें। कुरान में तो यहां तक कहा गया है कि कर्ज देने वाले व्यक्ति को अपना कर्ज ही पूरी तरह से भूल जाना चाहिए। जबकि शरिया के नियम, कानून गरीब पर थोपना उचित नहीं है। इस्लाम में समानता की बात कही गई है, लेकिन शरिया बैंकिंग के पक्षधरों के लिए सम्पन्न व्यक्ति ही पवित्र होता है और कुछ भी कर सकता है जबकि गरीबों से कहा जाता है कि वे बैंकों से दूर रहें।
 
जबकि असलियत यह है कि इस्लामी बैंक संचालित करने वाले अरबपति हैं और दुनिया के सम्पन्नतम लोगों में शामिल हैं जबकि मुस्लिम समाज की एक बड़ी आबादी एक डॉलर से भी कम आय में प्रतिदिन गुजारा करती है। शरिया बैंकों से इमाम मोटे होते जा रहे हैं, बैंक मालिक और वकील बहुत कमा रहे हैं और वे किसी भी चीज को इस्लामी नाम दे देते हैं जोकि उनके लिए लाभदायी होती है। अपनी किताब 'इस्लाम और दौलत : द इकॉनामिक प्रीडिकामेंट्‍स ऑफ इस्लामिज्म' में तिमूर कुरान लिखते हैं- एक जहाज बनाने, जमीन की रक्षा करने, किसी महामारी का इलाज करने या मौसम भी भविष्यवाणी करने का कोई एक इस्लामी तरीका नहीं है।'     
कौन हैं तारेक फतेह... पढ़ें अगले पेज पर....
      
 

कौन हैं तारेक फतेह : तारेक फतेह बीते डेढ़ दो सालों से अक्सर चर्चा में हैं क्योंकि वे अचानक से भारतीय आसमान पर उदित हुए हैं। भारत के मुसलमान उनसे पाकिस्तान के मुसलमानों से भी ज्यादा नफरत करते हैं। कम्युनिस्ट तो खैर गाली देते ही हैं।
 
लेकिन, तारेक फतेह के बारे में कम लोग जानते हैं कि वे मुसलमान तो हैं ही, मार्क्सिस्ट भी हैं। इस्लाम की उनकी आलोचना उनके मार्क्सिस्ट बैकग्राउंड के कारण ही है। तारेक पाकिस्तान में पत्रकार थे। जैसे एक मार्क्सवादी कठमुल्लापन और सत्तातंत्र के खिलाफ बोलता है वैसे ही उन्होंने भी बोलना शुरू किया। यह बात पाकिस्तानी सैन्य हुक्मरानों को हजम नहीं हुई। उन्होंने तारेक को जेल में डाल दिया। 
 
अंदर बाहर होते-होते आखिर में तारेक फतेह कनाडा चले गए और कनाडा में उन पाकिस्तानियों के समूह से जुड़ गए जो पाकिस्तान को एक प्रगतिशील और अपनी मिट्टी से जुड़ा पाकिस्तान देखना चाहते हैं, सऊदी अरब की फोटोकॉपी नहीं।
 
यहां इसी समूह से जुड़ने के बाद वे भारत आए और वही सब बोलना शुरू किया जो कनाडा के प्राइवेट चैनलों पर बोलते थे। वे घोषित तौर पर कठमुल्लेपन के खिलाफ लिखते बोलते रहे हैं। इसलिए कनाडा में सरकार उनकी सलाह भी लेती है, शायद मदद भी करती हो। इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ तारेक फतेह एक मुखर आवाज हैं। लेकिन भारत आकर जब वही सब बोलना शुरू किया तो पहला विरोध मुसलमानों ने ही दर्ज किया। वे कहते हैं कि 'मैं हिन्दुस्तानी मुसलमान हूं। राजपूत पंजाबी।' तुम अरब से आए होगे, मेरा पांच हजार साल से इस मिट्टी से रिश्ता है।'
 
यह तारेक फतेह की वह पहचान है जिससे आमतौर पर हिन्दुस्तानी मुसलमान को दूर किया जा रहा है। सऊदी के पैसे पर चलनेवाले मदरसों में होनेवाली पढ़ाई और मस्जिदों में होनेवाली तकरीर मुसलमानों को यह समझा रही है कि तुम पहले मुसलमान हो और आखिर में भी सिर्फ मुसलमान हो। इसके अलावा तुम्हारी कोई पहचान नहीं है। जो कुछ है वह सिर्फ अरबी संस्कृति है। अरबियों में भी उस नज्दी कबीले की संस्कृति जिसके लोग बीते कई दशकों से सऊदी अरब पर शासन कर रहे हैं। अरबियों में भी वैसे ही सांस्कृतिक विविधता है जैसे किसी देश या समाज में होती है। तरह तरह की पगड़ी, लबादा ये सब अरबियों को ही आपस में एक दूसरे से अलग पहचान देती हैं लेकिन सऊदी शासक के पैसे से जो नए तरह का इस्लाम फैलाया गया है वह दुनिया के मुसलमानों पर समान रूप से सऊदी संस्कृति लाद देना चाहता है।
 
अल्लामा इकबाल ने इसका विरोध किया था। वे मुसलमानों के लिए अलग जमीन चाहते थे लेकिन उस अलग जमीन पर अरबी इस्लाम को बेदखल करते थे। उनकी ख्वाहिश थी कि एक हिन्दुस्तानी इस्लाम होना चाहिए जो यहां की मिट्टी, सभ्यता और संस्कृति में रचा बसा हो। दुर्भाग्य ये है कि मुसलमानों ने अलग पाकिस्तान तो ले लिया लेकिन हिन्दुस्तानी इस्लाम हासिल नहीं कर पाये। उन्होंने अरबी इस्लाम को अपनी सांस्कृतिक पहचान बना लिया। जाहिर है, ऐसे में कोई तारेक फतेह जैसे मुसलमान सीना ठोककर कहते हैं कि वह हिन्दुस्तानी मुसलमान हैं और उसे औरंगजेब से नहीं बल्कि दाराशिकोह से मोहब्बत है तो जेहनी तौर पर बीमार मुससमान उसका विरोध शुरू कर देते हैं।
 
कमी तारेक फतेह में नहीं है, कमी है इन मुसलमानों में जिन्हें इस कदर गुमराह कर दिया गया है कि वे अपनी जमीन को अपनी कहने से डर रहे हैं। अपनी पहचान को अपनी बताने से डर रहे हैं। तारेक फतेह इस जड़ता के खिलाफ पानी में फेंके गये उस कंकर के समान हैं जिसने पूरे पानी में हलचल पैदा कर दिया है।
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