नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता पर कोई निर्णय लेने से पहले उसका पूरा ध्यान उन 2 महिलाओं को राहत देने पर है, जिन्होंने तलाक-ए-हसन प्रथा से पीड़ित होने का दावा किया है।
तलाक-ए-हसन मुसलमानों में तलाक देने का वह तरीका है, जिसमें कोई व्यक्ति तीन माह की अवधि में प्रत्येक माह एक बार तलाक बोलकर अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है। न्यायमूर्ति एसके कौल और न्यायमूर्ति अभय एस. ओका की पीठ ने याचिकाकर्ता महिलाओं के पतियों को मामले में पक्षकार बनाया और संबंधित याचिकाओं पर जवाब मांगा।
पीठ ने कहा, हम समझते हैं कि आप अपने लिए कोई समाधान चाहती हैं। हम इस चरण में इस सीमित पहलू पर प्रतिवादी-पतियों को केवल नोटिस जारी करेंगे। कभी-कभी हमारी चिंता बड़ा मुद्दा उठाने की होती है, लेकिन तब पक्षकारों को जो राहत चाहिए, वह गौण हो जाती है।
पीठ ने कहा, हमारे सामने दो व्यक्ति हैं, जो राहत चाहते हैं और हम उसे लेकर चिंतित हैं। हम बाद में देखेंगे कि क्या मुद्दे बच रहे हैं। न्यायालय बेनज़ीर हिना और नाज़रीन निशा द्वारा दायर अलग-अलग याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें उन्होंने तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी।
हिना की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने दलील दी कि मामले में पति को पक्षकार बनाया जा सकता है और उन्हें भी नोटिस भेजा जा सकता है। उन्होंने न्यायालय को सूचित किया कि दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित याचिका को वापस ले लिया गया है, लेकिन पति मध्यस्थता के लिए नहीं गया।
वहीं निशा की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता रंजीत कुमार ने कहा कि पीड़ित महिला को तलाक दिया गया है और गुजारा भत्ता दिया गया है। उच्चतम न्यायालय ने मामले की अगली सुनवाई के लिए 11 अक्टूबर की तारीख निर्धारित की है।
गाजियाबाद निवासी हिना ने सभी नागरिकों के लिए तलाक से संबंधित तटस्थ प्रक्रिया एवं एक समान आधार को लेकर दिशानिर्देश तैयार करने की भी मांग की है।(भाषा)