क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का तिलिस्म या मैजिक टूट रहा है? या कहें कि मोदी की मौजूदगी अब भाजपा की जीत की गारंटी नहीं रही? इस तरह के और भी कई सवाल हैं जो पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद ही उठने लगे हैं। इस तरह के सवाल उठना इसलिए भी लाजिमी है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने बंगाल चुनाव में एक तरह से खुद की 'छवि' को ही दांव पर लगा दिया था।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस बार बंगाल चुनाव में भाजपा को 2016 के चुनाव के मुकाबले करीब 24 गुना फायदा हुआ है। पिछले चुनाव में भाजपा ने 3 सीटें जीती थीं, जबकि इस बार उसके खाते में 77 सीटें आई हैं। लेकिन, जिस तरह से प्रधानमंत्री ने बंगाल चुनाव में खुद को पेश किया उससे ऐसा लग रहा था कि भारत में इस समय सिर्फ बंगाल में ही चुनाव हैं। मोदी के संदर्भ में देखें तो तमिलनाडु और केरल में तो मानो चुनाव थे ही नहीं।
इस चुनाव में पीएम मोदी ने एक तरह खुद को ममता बनर्जी की बराबरी पर लाकर खड़ा कर दिया, लेकिन जब परिणाम आए तो ममता उनसे एक पायदान ऊपर निकल गईं। आमतौर पर कहा जाता है कि मोदी मतदाताओं की नब्ज को पहचानते हैं, उनसे खुद को 'कनेक्ट' भी कर लेते हैं, लेकिन बंगाल में वे ऐसा नहीं कर पाए। यहां वे चूक गए।
बड़ी फौज भी नहीं बचा पाई हार : मोदी की सभाओं में भीड़ तो जुटी, लेकिन यह भीड़ वोटों में कन्वर्ट नहीं हो पाई। इसके उलट रैलियों में बिना मास्क वाली भीड़ को लेकर उनकी आलोचना ही हुई। अकेली ममता के मुकाबले मोदी के नेतृत्व में भाजपा के 30 से ज्यादा दिग्गज बंगाल के चुनावी रण में उतर गए थे, लेकिन फिर भी 'जीत' से कोसों दूर रह गए।
स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने बंगाल चुनाव में डेढ़ दर्जन से ज्यादा रैलियां की थीं। वे और भी रैलियां करने वाले थे, लेकिन कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच उन्होंने ये रैलियां रद्द कर दी थीं। यहां भी मोदी जी कांग्रेस नेता राहुल गांधी से मात खा गए। राहुल गांधी ने कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच न सिर्फ अपनी रैलियां पहले ही रद्द कर दी थीं, बल्कि अन्य राजनीति दलों से भी ऐसा ही करने की अपील की थी।
मुश्किलें बढ़ाएंगी ममता : ममता बनाम मोदी की लड़ाई का असर आने वाले समय में राष्ट्रीय राजनीति में भी देखने को मिले तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि ममता ने जिस तरह नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम को चुनौती दी है, वे विपक्ष के लिए 'उम्मीद' की किरण बन सकती है। उनके नेतृत्व में निकट भविष्य में विपक्ष एकजुट हो सकता है। ममता की जीत के बाद विपक्ष के नेताओं के बयान भी इसी ओर संकेत कर रहे हैं। हालांकि यह भी सही है कि बिखरे हुए विपक्ष में अभी वह ताकत नहीं बची है जो राष्ट्रीय स्तर पर मोदी को चुनौती दे सके।
दिग्गज भी हुए धराशायी : बंगाल के चुनाव परिणाम पर नजर डालें तो यह पूरी तरह साफ हो जाएगा कि भाजपा ने दांव पर तो सब कुछ लगा दिया, लेकिन हासिल बहुत थोड़ा ही हो पाया। आश्चर्य की बात तो यह है कि केन्द्रीय मंत्री का पद छोड़कर टॉलीगंज से चुनाव लड़े बाबुल सुप्रियो अपनी सीट नहीं बचा पाए। टीएमसी के अरूप बिश्वास ने बाबुल सुप्रीयो को 50 हजार से ज्यादा वोटों से हराया, जबकि 2016 में बिश्वास 9896 वोटों से जीते थे।
इसी तरह हुगली से लोकसभा चुनाव जीतने वालीं लॉकेट चटर्जी चुंचुरा से विधानसभा चुनाव हार गईं। टीएमसी के असित मजुमदार ने उन्हें 18000 से भी ज्यादा मतों से हराया। भाजपा के प्रचारकों की पूरी फौज लगने के बाद भी दिग्गज नेता अपनी सीटें नहीं बचा पाए। भले ही भाजपा यह खुशफहमी पाल सकती है कि उसका प्रदर्शन बंगाल में अच्छा रहा है, लेकिन उसे हार के सदमे से निकलने में काफी वक्त लगने वाला है।