एकनाथ शिंदे की शिवसेना के साथ बगावत के पीछे दरअसल कई अर्थ छिपे हुए हैं। यह सिर्फ राजनीतिक या सत्ता के लिए की गई बगावत नजर नहीं आती है, इसके पीछे कई वजहें शामिल हैं। हालांकि इसमें सत्ता परिवर्तन, असंतोष और विचारधारा जैसे तत्व भी निश्चित तौर पर हैं। लेकिन इस बगावत से सबसे ज्यादा आघात जिस चीज को लगा है, वो है शिवसेना के अस्तित्व का प्रतीक मातोश्री यानी ठाकरे का परिवारवाद।
अगर, बेहद ध्यान से इस पूरे घटनाक्रम को देखें तो यह बात समझ में आएगी कि एकनाथ शिंदे के साथ चालीस विधायकों की इस बगावत में सबसे ज्यादा आहत जो हुआ वो ठाकरे परिवार ही है।
सबसे पहला दृश्य याद करे तो समझ में आता है कि जैसे ही शिंदे की बगावत की खबर सामने आई वैसे ही उद्धव ठाकरे ने सीएम आवास वर्षा छोड़कर अपने निजी आवास मातोश्री जाने का फैसला किया, यह उनका इमोशनल कार्ड था, उन्होंने यह भी कहा कि अगर शिंदे चाहते हैं तो वे इस्तीफा देने के लिए तैयार है।
दरअसल, इस वक्त तक उद्धव ठाकरे को यह समझ में ही नहीं आया था कि वे कैसे रिएक्ट करे, क्योंकि वे इस बगावत को सिर्फ एक राजनीतिक असंतुष्टि या नाराजगी ही समझ रहे थे, लेकिन वक्त बीतने के साथ उन्हें लगा कि यह न सिर्फ राजनीतिक असंतोष है, बल्कि ठाकरे परिवार को भी चुनौती है। इसीलिए जहां उद्धव ठाकरे इस्तीफा देने की बात कर रहे थे तो वहीं शरद पवार से मिलने के बाद संजय राउत का बयान सामने आया कि उद्धव इस्तीफा नहीं देंगे और शिवसेना भी ठाकरे की ही रहेगी। जिसे आना है वो आए और जिसे जाना है वो जाए।
इस बयान का मतलब ही यह है कि उद्धव ठाकरे और शेष शिवसेना को बेहद बाद में यह समझ में आया कि शिंदे गुट न सिर्फ सत्ता में परिवर्तन चाहता है, बल्कि मातोश्री का महत्व भी घटाना चाहता है। इसके बाद ही शिवसेना का शिंदे गुट के खिलाफ वो रिएक्शन आया जिसके लिए शिवसेना जानी जाती है। शिंदे के खिलाफ ये जो हिंसक रिएक्शन आ रहे हैं वो सत्ता के कम और पार्टी की ओर से ज्यादा प्रेरित लगते हैं।
अब शिवसेना में जो छटपटाहट है वो सत्ता के लिए कम, बल्कि मातोश्री की साख बचाने के लिए ज्यादा है। क्योंकि सत्ता जाने से ज्यादा शर्मनाक शिवसेना के लिए शिंदे गुट द्वारा पार्टी को हाईजैक कर लेना होगा।
दरअसल, एकनाथ शिंदे ने जिस तरह से शिवसेना को चुनौती दी, ऐसा आज के पहले कभी नहीं हुआ। मुंबई में कभी ऐसा नहीं देखा गया कि उद्धव ठाकरे के पोस्टर पर कालिख पोती गई हो। या उद्धव ठाकरे के सामने दोगुना आकार में किसी दूसरे नेता के पोस्टर लगाए गए हों। इसलिए इस बगावत में न सिर्फ हिंदुत्व या राजनीतिक असंतोष है, इसमें कहीं न कहीं बागी हुई शिवसेना को परिवारवाद का भी डर है। जैसा कि शिंदे के बयान में सामने आया ही है कि पार्टी में लगातार उन्हें इग्नोर किया जा रहा था और उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे को हर मोर्चे पर आगे किया जा रहा है। इसलिए कहा जा सकता है कि एकनाथ शिंदे की इस बगावत में कई अर्थ निहित हैं।
हालांकि अगर यह बगावत परिवारवाद के खिलाफ है तो यह राजनीति के लिए कहीं न कहीं एक सुखद संकेत भी माना जाना चाहिए। कांग्रेस के परिपेक्ष्य में कहें तो परिवारवाद के चलते ही न सिर्फ कांग्रेस का बल्कि राष्ट्र का भी नुकसान हुआ है, क्योंकि आज देश के सामने कोई अच्छा विपक्ष मौजूद नहीं है। क्यों न किसी दिन ऐसी ही चुनौती गांधी परिवार के खिलाफ देखने को मिले या फिर कभी उत्तर प्रदेश में यादवों के खिलाफ।