आखिर क्‍यों हो रहा है मराठा आरक्षण आंदोलन, क्‍या कहते हैं महाराष्‍ट्र के मराठे?

नवीन रांगियाल
महाराष्‍ट्र मराठा आरक्षण की आग में जल उठा है। राज्य के करीब 10 जिलों में आरक्षण हिंसक रूप ले चुका है। आरक्षण की मांग को लेकर 25 लोगों ने आत्‍महत्‍या कर ली। हिंसा के संबंध में पुलिस अब तक 141 मामले दर्ज कर चुकी है और 168 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। हिंसा से सबसे ज्‍यादा बीड जिला प्रभावित हुआ है। यहां राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार गुट) के विधायक प्रकाश सोलंके और संदीप क्षीरसागर (शरद पवार गुट) के घरों को प्रदर्शनकारियों ने आग लगा दी थी।

इस बीच आरक्षण आंदोलन की इस पूरी तस्‍वीर को समझने और इसके वर्तमान और अतीत को जानने के लिए वेबदुनिया ने महाराष्‍ट्र के कई पत्रकारों और विशेषज्ञों से चर्चा की। जानते हैं आखिर क्‍या है मराठा आरक्षण के पीछे की पूरी कहानी...

इस मुद्दे में सोशल एंगल ज्‍यादा है
महाराष्‍ट्र के लोकमत (मराठी) के नागपुर संपादक श्रीमंत माने ने वेबदुनिया को बताया कि मराठा आरक्षण मुद्दे में सोशल एंगल ज्‍यादा है। इसमें भी यह विषय गरीब मराठों का है। दरअसल, गरीब मराठों और आम लोगों का राजनीतिक प्रतिनिधियों में अब ज्‍यादा भरोसा नहीं रहा है। अमीर और गरीब मराठों के बीच एक बड़ी खाई है। ऐसे में मराठा समाज के निचले तबके का भरोसा नहीं रहा है। क्‍योंकि मराठा लंबे समय से आरक्षण की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं। कई बार कोर्ट कचहरी के चक्‍कर काट चुके हैं। ऐसे में उन्‍हें महसूस होता है कि उनके साथ अन्‍याय हुआ है
हाल ही में (बुधवार को) हुई सर्वदलीय बैठक करने का मतलब भी यही है। क्‍योंकि इस बैठक में सभी दलों ने कहा कि हम आरक्षण देगें, लेकिन पहले आपको आंदोलन पीछे लेना होगा।

श्रीमंत ने बताया कि वहीं कहा जाता है कि यह पूरा आंदोलन राजनीति से प्रेरित है या इसे कोई पोलिटिकली ऑपरेट करता है तो ऐसा बिल्‍कुल नहीं है। दरअसल, इसके पीछे एक पूरा सामाजिक परिदृश्‍य है। मराठवाड़ा रीजन की स्‍थिति राज्‍य के बाकी हिस्‍सों से अलग है, क्‍योंकि निजाम के शासन में भी मराठों को आरक्षण दिया गया था, लेकिन बाद में महाराष्‍ट्र में शामिल होने के बाद यह आरक्षण नहीं रहा। क्‍योंकि जब कादलकर और मंडल जैसे कमीशन आए, तो इसके तहत कुनबी कम्‍युनिटी को आरक्षण दिया गया, लेकिन मराठों को नहीं दिया गया। मराठवाड़ा में कुनबी के कम होने का कारण यह है कि वहां मराठा आरक्षण था तो कुनबी सर्टिफिकेट लेने की कोई जरुरत नहीं थी। लेकिन विदर्भ में 99 प्रतिशत मराठों के पास कुनबी सर्टिफिकेट हैं। कुनबी ने भी कुनबी सर्टिफिकेट लिए और मराठों ने भी लिए, इस तरह सबके पास सर्टिफिकेट हैं, कुछ को छोड़ दे तो।

विदर्भ से कोई सीएम नहीं रहा
आरक्षण को लेकर एक सवाल यह भी उठता रहा है कि महाराष्‍ट्र के ज्‍यादातर मुख्‍यमंत्री मराठा रहे हैं। शरद पवार और अजीत पवार भी मराठा है। विलास राव देशमुख भी मराठा थे। ऐसे में अब तक मराठों को आरक्षण क्‍यों नहीं दिया गया, इस पर श्रीमंत माने ने बताया कि वेस्‍टर्न महाराष्‍ट्र में अलग स्‍थिति है। ज्‍यादातर सीएम मराठवाड़ा, पश्‍चिम महाराष्‍ट्र या मुंबई से आए, विदर्भ से कोई मराठा सीएम नहीं रहा, क्‍योंकि यहां सभी कुनबी हैं। नार्थ महाराष्‍ट्र को कभी चीफ मिनिस्‍टरशिप नहीं मिली। इस वजह से पश्‍चिम महाराष्‍ट्र की जो रूलिंग कम्‍युनिटी है वो सामाजिक प्रतिष्‍ठा को सबसे आगे रखती है। वो समझते हैं कि कुनबी होने से या आरक्षण लेने से ज्‍यादा अच्‍छा है कि हम वहां अपना एक सोशल स्‍टेटस स्‍थापित करे। हालांकि असल बात यह है कि कुनबी और मराठा एक ही हैं। राजस्‍वी साहू महाराज कुनबी थे, उन्‍हें उत्‍तर प्रदेश के कुर्मी समाज ने राजस्‍वी पद दिया था। शिवाजी महाराज भी खुद को कुनबी मानते थे। तुकाराम के अभंग में भी ‘अच्‍छा हुआ मुझे कुनबी बनाया’ इस तरह का जिक्र आता है।

सरकार के पास कोई रोडमैप नहीं
श्रीमंत ने बताया कि जहां तक वर्तमान स्‍थिति की बात करें तो वर्तमान सरकार के पास आरक्षण को लेकर कोई रोडमैप नहीं है। क्‍योंकि यह सरकार एक्‍सीडेंटली आई थी। अभी भी सरकार के पास आरक्षण को लेकर कोई प्‍लान नहीं है। सरकार ने पहले मराठों को जो आरक्षण दिया था, वो एसईबीसी (SEBC) में दिया था, यानी वे लोग जो सोशली और इकोनॉमिकली बैकवर्ड हैं। लेकिन वो सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं पाया। क्‍योंकि ओबीसी के बाहर किसी को आरक्षण देना एक बहुत उलझा हुआ काम है। साथ ही उस समय कोर्ट में आरक्षण को लेकर क्‍या बहस की गई, क्‍या दलीलें दी गईं यह किसी को नहीं पता। इस वजह से जब ठाकरे सरकार आई तो यह कैंसल हो गया। यह तो अभी अनशन पर बैठे मनोज जरांगे पर पुलिस की लाठीचार्ज की वजह से एकनाथ शिंदे सरकार को बीच में आना पड़ा, क्‍योंकि इसमें पुलिस की गलती थी। जिसमें गृहमंत्री को माफी भी मांगना पड़ी।

सरकार के पास क्‍या विकल्‍प है?
श्रीमंत माने सहित महाराष्‍ट्र की राजनीतिक पत्रकारिता करने वाले कई पत्रकार बताते हैं कि सरकार इस मुद्दे पर फंसी हुई है। श्रीमंत माने ने बताया कि सरकार के पास क्‍या विकल्‍प है? इसकी बात करें तो दरअसल, यह सरकार के लिए आसान नहीं है कि एक प्रतिष्‍ठित समाज को एसीबीसी में एडजस्‍ट किया जाए। क्‍योंकि ऊपर के कुछ स्‍थापित लोगों को देखकर यह नहीं कह सकते कि यह समाज फॉरवर्ड है, ज्‍यादातर लोग बैकवर्ड ही हैं। सरकार के पास दूसरा ऑप्‍शन है पूरे मराठा समाज को ओबीसी में डाल दें। अमेंडमेंट 102 के तहत जो अधिकार दिए गए थे वे अधिकार केंद्र सरकार ने राज्‍यों को दिए हैं। उसके आधार पर मराठा समाज को ओबीसी में डालने का एक विकल्‍प हो सकता है, लेकिन इसमें ओबीसी का जो एक्‍सिस्‍टिंग समाज है उनका विरोध है कि मराठा को ओबीसी में नहीं डाल सकते, क्‍योंकि इससे उनका हक मारा जाएगा। और भी तबके हैं जो ऐसा करने से नाराज होंगे। सरकार के पास तीसरा विकल्‍प है कि पुराने दस्‍तावेज खोजे जाएं और जहां- जहां कुनबी लिखा है उन्‍हें कुनबी सर्टिफिकेट दिया जाए। लेकिन यह पहले हो चुका है। दरअसल, जिसके जाति प्रमाण पत्र पर मराठा लिखा हुआ है उसको यह फायदा नहीं मिलने वाला है। वैसे भी 100 साल पुराना कोई दस्‍तावेज मिलेगा नहीं। दूसरा महाराष्‍ट्र में यह फैक्‍ट भी है कि यहां रहने वाला कोई भी जाति का हो, वो मराठा ही माना और कहा जाता है। तो कुल मिलाकर सरकार के पास आरक्षण के मामले में फंसी हुई है। सरकार ने पहले भी टाइम मांगा था, फिर से टाइम मांग रही है, क्‍योंकि उसके पास कोई रोडमैप नहीं है, बस सरकार को यह दिखाना है कि वो आरक्षण पर कुछ कर रही है।

क्‍या मप्र, छत्‍तीसगढ और राजस्‍थान चुनाव पर फर्क पड़ेगा?
श्रीमंत माने बताते है कि देखिए मराठों के साथ अन्‍याय तो हुआ है। लंबे समय से शांति मार्च निकाल रहे हैं, कोर्ट कचहरी के चक्‍कर काट रहे हैं। बावजूद इसके सरकार आरक्षण के मुद्दे पर मराठों को टाल रही है, क्‍योंकि मप्र, छत्‍तीसगढ और राजस्‍थान में चुनाव हैं तो इसका फर्क पड़ सकता है। चुनावी राज्‍यों के मतदाता देखेंगे कि ओबीसी का हक मारा जा रहा है। जबकि मध्‍यप्रदेश में ओबीसी सीएम है, राजस्‍थान और छत्‍तीसगढ में ओबीसी सीएम है। जबकि तेलंगाना में अमित शाह जीतने पर ओबीसी सीएम की बात करते हैं।

क्‍या शरद पवार का खेल है?
दूसरी तरफ महाराष्‍ट्र में यह चर्चा भी है कि आरक्षण आंदोलन का यह पूरा खेल एनसीपी के शरद पवार का बिछाया हुआ राजनीतिक खेल है। अमरावती और बीड में एक फ्रीलॉन्स पत्रकार ने अपना नाम प्रकाशित नहीं करने के आग्रह पर वेबदुनिया को बताया कि महाराष्‍ट्र में सबसे ज्‍यादा मराठा मुख्‍यमंत्री रहे हैं। लेकिन किसी ने मराठों को आरक्षण नहीं दिया। नागपुर अधिवेशन में देवेंद्र फडणवीस ने मराठों को आरक्षण देने की घोषणा की थी, जबकि देवेंद्र फडणवीस मराठी ब्राहमण हैं। इस घोषणा से फडणवीस सरकार मराठों में हीरो बन गई थी, लेकिन जब महाविकास अघाडी में ठाकरे की सरकार आई तो यह आरक्षण कैंसल हो गया, क्‍योंकि सरकार सुप्रीम कोर्ट में दस्‍तावेज ही नहीं पेश कर पाई। कभी तारीख पर नहीं जाते थे तो कभी आरक्षण की लड़ाई पर ध्‍यान ही नहीं दिया गया। इस बीच कभी शरद पवार और ठाकरे की सरकार के दौरान आरक्षण की मांग नहीं उठी, न ही कोई आंदोलन हुआ। अब जबकि एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फडणवीस की सरकार है तो एक बार फिर से आरक्षण का यह खेल खेला जा रहा है। इसके पीछे शरद पवार का खेल है, क्‍योंकि देवेंद्र फडणवीस मराठा नहीं, बल्‍कि एक मराठी ब्राह्मण हैं और शरद पवार की राजनीति शुरू से ब्राह्मण विरोधी रही है। उन्‍होंने बताया कि मराठों को आरक्षण दिया जाना चाहिए, लेकिन इसका तकनीकी ग्राउंड भी देखना होगा।

आंदोलन की आक्रामकता सरकार की परेशानी
नागपुर और गढ़चिरोली में लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे वरिष्‍ठ पत्रकार फहीम खान ने वेबदुनिया को बताया कि महाराष्ट्र में मराठा समाज को आरक्षण की मांग को लेकर जो आंदोलन चल रहा है उसमें मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरांगे पाटिल की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। मराठा समाज उनके साथ खड़ा है। अबकी बार जिस तरह की भूमिका आंदोलन को द्वारा ली जा रही है ऐसा लगता है कि मराठा आरक्षण को लेकर राज्य सरकार को ठोस कदम उठाने ही पड़ेंगे। इससे पहले महाराष्ट्र में मराठा समाज अपने आरक्षण को लेकर इतना गंभीर और आक्रामक नजर नहीं आया था लेकिन इस बार उनकी आक्रामकता सरकार के लिए परेशानी का कारण बनी हुई है। इस मामले में मराठा समाज के लिए अच्छी बात यह है कि राज्य की कई राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक संगठन, विभिन्न समाज मराठा समाज के आंदोलन को अपना समर्थन घोषित कर चुके हैं।

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