Dharma Sangrah

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

महाराष्‍ट्र की राजनीति में नई दुकान... प्रोप्रायटर्स हैं ठाकरे ब्रदर्स, हमारे यहां मराठी पर राजनीति की जाती है

Advertiesment
हमें फॉलो करें Raj uddhav thackeray
webdunia

नवीन रांगियाल

महाराष्‍ट्र में उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का एक साथ आना कोई बहुत चौंकाने वाला फैसला नहीं है। सत्‍ता और विपक्ष की राजनीति के अतीत में जाएं तो कमोबेश हर पार्टी ने यही किया है। अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए अगर मराठी भाषा का इस्‍तेमाल कर रहे हैं तो राजनीतिक दृष्‍टिकोण से यह कोई हैरान करने वाली बात नहीं है। वैसे भी वे पहले साथ ही थे— फिर अलग हुए और फिर साथ आए हैं। यह महाराष्‍ट्र की राजनीति में नई दुकान है। इस बार प्रोप्रायटर्स हैं ठाकरे ब्रदर्स और इनका स्‍लोगन है... हमारे यहां मराठी पर राजनीति की जाती है!

साथ होने का बहाना मराठी भाषा है। राज ठाकरे ने साफतौर से कहा भी है कि हम ‘मराठी एकता’ की वजह से एक ही मंच पर आए हैं। इसमें कुछ नया नहीं है। यह नई राजनीति का दस्‍तूर है। जैसे साहित्‍य में नई हिंदी का ट्रेंड चलन में है। वहां भी दलित साहित्‍य, स्‍त्री साहित्‍य और आदिवासी कविता, पेट्रिआर्की, फैमिनिज्‍म और नारी स्‍वतंत्रता आदि कंटेंट और ओपिनियन बेहद आम हैं और गर्व के साथ प्रस्‍तुत किया जाता है। लिट्रेचर से लेकर पॉलिटिक्‍स तक और धर्म से लेकर सिनेमा तक कोई ऐसा एलिमेंट नहीं है जो समाज को जोड़ने के लिए जरूरी तो है लेकिन अब हर जगह खंड- खंड नजर आता है।

बात राजनीति की है तो बहुत पुरानी बात नहीं है जब धुरविरोधी विचारधारा के बावजूद मोदी की भाजपा ने जम्‍मू- कश्‍मीर में मेहबूबा के साथ मिलकर सरकार बनाई। हाल ही में अजीत पवार के नेतृत्व में एनसीपी और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना का एक धड़ा टूटकर अपनी अपनी पार्टियों से अलग हुआ और भाजपा की गोद में जा बैठा था। यह अतीत की राजनीति में होता रहा है— और आगे भी होता रहेगा।

राजनीति दृष्‍टिकोण से देखा जाए तो इसमें बुरा क्‍या है। यही सब करना ही तो राजनीति है। तो फिर सोशल मीडिया से लेकर राष्‍ट्रीय मीडिया में राज-उद्धव के मिलन को लेकर यह छिछालेदर क्‍यों है। जो लोग इन्‍हें गरिया रहे हैं वे क्‍यों गरिया रहे हैं। वो क्‍या दर्द है जो इस तरह की राजनीति पर आम जनता में एक खीज और एक तरह की चिढ पैदा कर रहा है।

दरअसल, इन सारी आलोचनाओं के बीच आम लोगों में ‍बिटवीन द लाइन जो पीड़ा है वो है तमाम मुद्दों पर खंड-खंड होते वर्ग। जगह जगह टूटते और बिखरते लोग। इस वक्‍त देश के कई राज्‍य ऐसे हैं जो भाषाई, जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय और सांस्‍कृतिक विवाद की वजह से कलेक्‍टिवली देश की एक बेहद खराब छवि पेश कर रहे हैं। ठाकरे एंड ठाकरे के 20 साल बाद ‘भरत मिलाप’ ने एक बार फिर यह साबित किया है कि देश की राजनीति में विचारधारा पर अवसरवाद हावी होता रहेगा।

तो यह होता रहेगा— इममें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए— लेकिन महाराष्‍ट्र में मराठी में बात नहीं करने पर मराठी भाषी लोगों द्वारा गैर मराठियों की पिटाई करने के जो दृश्‍य आए हैं वे न सिर्फ चौंकाने वाले बल्‍कि बहुत डराने वाले हैं। यह एक तरह की सांस्‍कृतिक अराजकता या मिलीजुली और जरूरी मिलीजुली संस्‍कृति पर आघात है। जरूरी इसलिए कि अगर ऐसा सभी करेंगे तो मराठियों का हिंदी भाषा वाले राज्‍यों में काम नहीं चलेगा और हिंदी वालों का कन्‍नड़ और तमिल में। कन्‍नड़ में हिंदी के विरोध में मारपीट के दृश्‍य देखने को तो मिले ही हैं, ठीक ऐसे ही हालात महाराष्‍ट्र में हिंदी को लेकर हैं। अलग- अलग राज्‍यों से जो दृश्‍य सामने आए हैं उन्‍हें देखकर तो यह सवाल भी उठता है कि क्‍या यह किसी तरह का हिंदी विरोधी अभियान है?

सवाल यह है कि अगर भाषाई, क्षेत्रीय और तमाम तत्‍वों को लेकर राजनीति की जाती रहेगी तो क्‍या देश का सामाजिक ढांचा कानूनी और नियमों के मुताबिक संचालित हो सकेगा? क्‍या मध्‍यप्रदेश में मराठी फिल्‍में रिलीज हो सकेगी। क्‍या भविष्‍य में रविंद्रनाथ टेगौर का बंगाली उपन्‍यास मराठी में अनुवाद किया जा सकेगा या क्‍या शिवाजी सावंत की मराठी कृति मृत्‍युजंय को हिंदी में पढ़ना सुलभ होगा— क्‍या यह कभी संभव था कि मराठी में बनी सैराट फिल्‍म को सबसे ज्‍यादा हिंदी भाषी राज्‍यों में देखा और पसंद किया जाता। क्‍या यह मुमकिन था कि अप्‍सरा आली गीत पर सबसे ज्‍यादा गैर मराठी युवतियां नाचती नजर आती— अगर यह भाषा की ही बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी।

दूसरा दुख है आम जनता का— जो नेताओं व पार्टियों के चुनावी और राजनीतिक षड़यंत्रों का शिकार हो जाती हैं। जिस जनता को यह भ्रम है कि उनका एक वोट सत्‍ता बनाता है और सरकारों को खारिज भी कर देता है क्‍या वाकई इन राजनीतिक षड़यंत्रों के सामने उस वोट की कीमत अभी भी बची है?

मुद्दा यह है कि अब आम जनता को यह तय करना होगा कि वो पार्टियों और नेताओं के राजनीति षड़यंत्रों के सामने इसी तरह हर बार शिकार होती रहेगी या वे पॉलिटिकली इंटेलिजेंस का इस्‍तेमाल करना सीखेगी। जनता पॉलिटिकल इंटेलिजेंट अपने खोए हुए वोट की कीमत फिर से हासिल करेगी या वो हर बार की तरह बार बार 'राजनीतिक ठगों' के हाथों धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के नाम पर शिकार होती रहेगी?

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

Maharashtra : 20 साल बाद उद्धव-राज साथ, किसे नफा, किसे नुकसान, क्या महाराष्ट्र की राजनीति में लौट पाएगी 'ठाकरे' की धाक