स्मृतिपटल पर वे क्षण किसी चलचित्र की भांति अंकित हो चुके हैं जिनकी अमिट छाप से पीछा छुड़ाने की असफल कोशिश करता तो भी सफलता नहीं हो पाता हूं। प्रथम बार इस वार्षिक अमरनाथ यात्रा, जिसके बारे में सुन तो बहुत रखा था लेकिन कभी अवसर नहीं मिला था भाग लेने का। अमरनाथ यात्रा में भाग लेने का मौका उस समय मिला जब वर्ष 1994 में पाक परस्त आतंकवादियों ने उस यात्रा को रोकने की धमकी दे डाली थी, जिसके प्रति अभी तक यही कहा जाता रहा है कि यह न कभी रुकी है और न ही कभी रुकेगी।
इन शब्दों में सच्चाई भी छिपी है क्योंकि गत वर्ष यात्रा के दौरान हुए हादसे के बावजूद भी यह यात्रा नहीं रुकी थी। हालांकि यह बात अलग है कि चाहे अंतिम दिन तीन चार सौ लोगों ने ही भाग लिया, लेकिन उस कथन की लाज अवश्य रखी गई थी कि ‘न कभी रुकी है और न कभी रुकेगी अमरनाथ यात्रा’।
वर्ष 1994, 1995, 1996 तथा 1997 में लगातार भाग लिया था मैंने अमरनाथ यात्रा में और दो बार तो आतंकवादी ‘प्रतिबंध’ का सामना करना पड़ा था, लेकिन 1996 में प्राकृतिक हादसे के रूप में प्राकृतिक प्रतिबंध की यादें अभी तक मन-मस्तिष्क पर तरोताजा हैं जिनको कई बार मिटाने की कोशिश तो की गई लेकिन उन लोगों की चीख-पुकार जो भयानक सर्दी और विपरीत मौसम के कारण अव्यवस्थाओं के बीच मौत से जूझ रहे थे, के स्वर आज भी कानों में गूंजते हैं। हांलाकि वर्ष 1996 की अमरनाथ यात्रा उन सभी को याद रहेगी, जिन्होंने इसमें भाग लिया था और उनका घरों को वापस लौटना नया जन्म पाने से कम नहीं था।
हालांकि वर्ष 1996 में 21 अगस्त तक तो सब कुछ कुशलतापूर्वक चलता रहा था और सारी गड़बड़ 21 अगस्त की मध्य रात्रि को आरंभ हुई थी जब जोरदार बारिश और हिमपात की शुरुआत से ऐसा लगा था जैसे भगवान शिव ने क्रोधित होकर अपनी तीसरी आंख खोली हो और उसमें समाने के लिए जनसमूह को निशाना बनाया हो। वैसे भी अनुमान से दोगुने लोगों द्वारा यात्रा में भाग लेने के कारण सारी व्यवस्थाएं गड़बड़ा गई थीं और अगर कोई व्यवस्था सही सलामत थी तो वह थी उन लंगर वालों की जो प्रति वर्ष आने वालों की सेवा किया करते हैं।
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