भारत में फैलता 'लाल गलियारा'

पशुपतिनाथ से तिरुपति तक नक्सली साम्राज्य!

संदीपसिंह सिसोदिया
रूसी क्रांति से प्रेरित नक्सलवादी विचारधारा के लोगों के लिए 'नक्सलवाद' मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओत्सेतुंगवाद के क्रांतिकारी पर्याय के रूप में जाना जाता रहा है। नक्सलवाद के समर्थक मानते हैं कि प्रजातंत्र के विफल होने के कारण नक्सली आंदोलन का जन्म हुआ और मजबूर होकर लोगों ने हथियार उठाए लेकिन वास्तविकता यह है कि नक्सली आंदोलन अपने रास्ते से भटक गया है।

इसका तात्कालिक कारण है कि न व्यवस्था सुधर रही है और न इसके सुधरने के संकेत हैं, इसलिए नक्सली आंदोलन बढ़ रहा है। इसमें होने वाली राजनीति को देखकर सोचना पड़ता है कि वर्ग संघर्ष बढ़ाने के पीछे राजनीति है या राजनीति के कारण वर्ग संघर्ष बढ़ा है।

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कुछ समय पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या माना जाता रहा है, मगर अब इसने चरमपंथ की शक्ल अख्तियार कर ली है। नक्सलवाद का जन्म पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में नेपाल की सीमा से लगे एक कस्बे नक्सलबाड़ी में गरीब किसानों की कुछ माँगों जैसे भूमि सुधार औ र बड़े खेतिहर किसानों के अत्याचार से मुक्त्ति को लेकर शुरू हुआ था।

वर्तमान में नक्सलियों के संगठन पीपुल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) दोनों मुख्यतः बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हैं, जिनका शुमार पिछड़े व गरीब राज्यों में होता है। पीडब्लूजी का दक्षिणी राज्य आंध्र के पिछड़े क्षेत्रों में बहुत प्रभाव है।

नक्सलवादी नेताओं का हमेशा आरोप रहा है कि भारत में भूमि सुधार की रफ्तार बहुत सुस्त है। उन्होंने आँकड़े देकर बताया कि चीन में 45 प्रतिशत जमीनें छोटे किसानों में बाँटी गई हैं तो जापान में 33 प्रतिशत, लेकिन भारत में आजादी के बाद से तो केवल 2 प्रतिशत ही जमीन का आवंटन हुआ है।

एमसीसी और पीडब्लूजी संगठनों की हिंसक गतिविधियों के चलते इनसे प्रभावित कई राज्यों ने पहले ही प्रतिबंध लगा रखा है। इनमें बिहार और आंध्रप्रदेश प्रमुख हैं। इन राज्यों के खेतिहर मजदूरों के बीच इन चरम वामपंथी गुटों के लिए भारी समर्थन पाया जाता है। इस खेप में अब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश भी आ चुके है। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला, जिसकी सीमाएँ आंध्रप्रदेश से लगी हुई हैं, में नक्सलवादी आंदोलन गहराई तक अपनी पैठ जमा चुका है।

प. बंगाल से शुरू हुआ नक्सलवाद अब उड़ीसा, महाराष्ट्र, झारखंड और कर्नाटक में भी पैर पसार चुका है। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह भी इस पर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं और इससे निपटने के लिए केन्द्र से हर सम्भव सहायता देने का वादा कर चुके हैं, पर अब तक सरकार की ढुलमुल नीतियों व केंद्र-राज्य में सामंजस्य न होने का फायदा उठाकर बीते सालों में नक्सलवादियों ने पुलिस और विशेष दल के जवानों पर घात लगाकर किए जाने वाले हमले एकाएक बढ़ा दिए हैं।

दुनिया के एकमात्र हिन्दू राष्ट्र को खत्म कर इस समय माओवादी तत्व भारत और नेपाल में अपने चरम पर हैं और चीन की तथाकथित 'शह' से भूटान और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय उग्र संगठनों से हाथ मिलाकर नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर आंध्रप्रदेश के तिरुपति तक 'लाल गलियारा' (रेड कॉरिडोर) बनाने की जुगत में लगे हैं।

इनकी मंशा है कि दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को भारत से अलग किया जा सके तथा पूर्वोत्तर राज्यों को भी भारत से अलग किया जा सके, ताकि माओवादी अपना शिकंजा इन राज्यों पर जमा उन्हें भी नेपाल की भाँति हड़प लें।

‘जनताना सरकार’ (जन सरकार) का नारा देकर नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में नक्सलियों ने अपनी समानांतर सरकार और न्याय व्यवस्था शुरू कर दी है। गोरिल्ला लड़ाई में माहिर नक्सलवादी और माओवादी पुलिस और सुरक्षा बलों पर योजनाबद्ध तरीकों से हमले कर उन्हें अपना निशाना बनाते हैं।

उनकी रणनीति और युद्ध योजना के आगे अल्प प्रशिक्षित पुलिस बल पुराने हथियारों और तरीकों से चलते बेबस नजर आता है। यह चरमपंथी अपनी कार्रवाई करने के बाद दूसरे राज्यों की सीमा में भाग जाते हैं और जब तक उस राज्य की सरकार कुछ कदम उठाए, तब तक नक्सली कानून की पकड़ से काफी दूर निकल जाते हैं।

नक्सलवाद का जन्म पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में नेपाल की सीमा से लगे एक कस्बे नक्सलबाड़ी में गरीब किसानों की कुछ माँगों जैसे भूमि सुधार और बड़े खेतीहर किसानों के अत्याचार से मुक्त्ति को लेकर शुरू हुआ था।
इसकी छापामार पद्धति को देखकर साफ तौर पर मालूम पड़ता है कि इस तरह की रणनीति अधिकतर दक्षिण-पूर्व एशिया की सेनाएँ बनाती हैं। इनके हथियार, गोलाबारूद के कैलिबर व सैन्य रणनीति इस बात के पुख्ता सबुत है कि इन नक्सलियों को विदेशी ताकत का पुरजोर समर्थन मिल रहा है।

अंतरराष्ट्रीय संबंध : भारत के इस सशस्त्र वामपंथी आंदोलन ने पिछले कुछ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय संपर्क भी विकसित किए हैं। वर्ष 2001 में दक्षिण एशिया के 11 मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठनों ने मिलकर एक संगठन बनाया सी. कॉम्पोसा यानी कॉर्डिनेशन कमेटी ऑफ माओइस्ट पार्टीज ऑफ साउथ एशिया। इसमें मुख्य भूमिका नेपाल की सीपीएन (माओवादी) की है। यहाँ तक कहा जाता है कि किसी जमाने में एक-दूसरे के कट्टर विरोधी रहे पीपुल्सवार और एमसीसीआई को नजदीक लाने में भी सीपीएन (माओवादी) की महत्वपूर्ण भूमिका थी।

माओवादी पार्टी का संपर्क और समन्वय नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका के सशस्त्र क्रांतिकारी संगठनों से है। जानकार इसे नेपाल से लेकर आंध्रप्रदेश के समुद्र तट तक 'माओवादी बेस एरिया' बनाने की इस संगठनों की भविष्य की रणनीति के रूप में देखते हैं।

विडम्बना यह है कि भारत सरकार नक्सलवाद से निपटने के लिए न तो वैचारिक रूप से तैयार है न ही इसे खत्म करने के लिए दृढ़ मानसिकता बना पा रही है। पुराने कानून और लचर प्रशासनिक ढाँचे के साथ बेमन से लड़ी जा रही इस लड़ाई में सफलता के लिए एक विस्तृत योजना, कारगर रणनीति और प्रशिक्षित बल की आवश्कता है।

माओवादी तत्व चीन की तथाकथित 'शह' से भूटान और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय उग्र संगठनों से हाथ मिलाकर नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर आंध्रप्रदेश के तिरुपति तक 'लाल गलियारा' (रेड कॉरिडोर) बनाने की जुगत में लगे हैं।
सबसे ज्यादा आवश्यकता ऐसे नेतृत्व की है, जिसमें इस समस्या को समूल नष्ट करने की इच्छाशक्ति और विश्वास हो। केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने हाल के हमलों को गंभीरता से लेते हुए बीएसएफ और केंद्रीय अर्धसैन्य बलों के 15000 जवानों को इस समस्या से निपटने के लिए भेजने की स्वीकृति दी है।

इस समस्या से निपटने का सबसे कारगर तरीका है कि सबसे पहले नक्सली प्रभावित राज्य मिलकर एक केंद्रीय टास्क फोर्स का गठन करें, जिसे सभी राज्यों में कार्रवाई की स्वतंत्रता हो। साथ ही नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में शिक्षा और जनहित के कार्यों को प्राथमिकता से कराया जाए, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में स्वयंसेवी संस्थाओं को काम करने की छूट और प्रोत्साहन देना चाहिए। जनसाधारण और पिछड़े आदिवासियों के उत्थान को योजना और उनके बेहतर कार्यान्वयन का संकल्प लेना होगा।

नेपाल तथा पूर्वोत्तर से लगी सीमा पर चौकसी बढ़ाई जाए, जिससे हथियारों और गोला-बारूद की आपूर्ति पर रोक लगे। ऐसे स्थानीय तत्वों की पहचान करें, जो नक्सलियों को मदद देते हों। इस समस्या से निजात पाने के लिए सबसे जरूरी है जन-साधारण का समर्थन और विश्वास हासिल किया जाए।

बंदूक जिनके लिए राजनीति है और सशस्त्र राजनीतिक संघर्ष के जरिए भारत में नव-जनवादी क्रांति जिनका सपना है, वे हथियार छोड़ेंगे नहीं और उनकी उठाई माँगें पूरा करना फिलहाल सरकार के बस में नहीं दिखता, मगर एक बात ध्यान में रखना चाहिए कि केवल विध्वंस करना ही क्रांति नहीं है, क्रांति निर्माण का नाम भी है।

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