चिरौंजी लीजिए, कच्चे दूध के संग । सोते समय लगाइए, निखरे मुँह का रंग॥ या सरसों तेल पकाइए, दूध आक (मदार) डाल । मालिश करिए छान कर, खुश्क खाज का काल ॥
इस तरह के घरेलू नुस्खे बताने वाले और इन घरेलू नुस्खों में इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटियाँ अब बीते दिनों की बात होती जा रही हैं। ये जड़ी-बूटियाँ अब विलुप्त होने की कगार पर है। 'हंसराज', 'कामराज', 'हरजोड़', 'वच', 'आंबा हल्दी', 'चित्रक' और 'कलिहारी' सरीखी औषधीय गुणों वाले तमाम पौधे गायब हो चुके हैं। 1859 में लखनऊ में औषधीय पौधों की एक हजार प्रजातियाँ पाई जाती थीं जो अब घटकर 400 रह गई हैं।
' वच' की जड़ का इस्तेमाल गुर्दा रोग के लिए होता है जबकि 'हंसराज' साँप का विष उतारने में काम आता है । 'कामराज' का प्रयोग मुँह के छाले और डायरिया की रोकथाम के साथ शक्तिवर्धक के रूप में होता है। 'चित्रक' का सेवन क्षय मरीजों को कराया जाता है। बुखार के इलाज में कारगर गोमती के किनारे मिलने वाली 'कलिहारी' खत्म हो गई है।
उत्तर प्रदेश में औषधीय गुणों वाले पौधों की संख्या पाँच सौ से भी ऊपर है जो बीमारी से निजात दिलाते हैं। बावजूद इसके विलुप्त हो रहे इन औषधीय गुणों वाले पौधों में से पचास तो ऐसे हैं जिन्हें बचाना नितांत जरूरी है। इसमें गोरखपुर के कैंप्यिरगंज इलाके में पाई जाने वाली 'दुधई', 'दूधिया' या 'दुद्धी' नाम से लोकप्रिय वह पौधा है जो कमर के दर्द या कमर में चिलक समा जाने के समय इस्तेमाल होता है।
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इसी इलाके में पाई जाने वाली 'चकवार्ड' भी शायद अब नहीं दिखाई दे जिसका प्रयोग फोड़े-फुंसियों के इलाज में किया जाता है । खाँसी, दमा और प्रसूति रोगों में इस्तेमाल किया जाने वाला 'अडूसा', जिसे स्थानीय इलाके में रूसा और बासा के नाम से जाना जाता है, के साथ ही साथ, बुखार, हैजा, दाँत और पेट दर्द में लाभदायक 'तिमुरू' भी खत्म होने के कगार पर हैं । गेहूँ के खेतों में स्वतः उगने वाला 'बथुआ' भी दुर्लभ हो गया है।
उदर रोग और बुखार में इस्तेमाल की जाने वाली 'सर्पगंधा' जिसे 'धवल वरुवा' और 'चंद मखा' के नाम से जाना जाता है, वह भी दिखना बंद हो गया है। मैदानी इलाकों में पाया जाने वाला फोड़े-फुंसी के इलाज में कारगर 'पत्थरचटा' और 'बड़ी चड़ीद' भी विलुप्त प्रजातियों में शुमार हो गया है।
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पायरिया और मूत्र विकार में दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला 'चिरचिराह' और 'चकवा' नाम की प्रजाति भी गायब हो रही है। यह लखनऊ मंडल में पाई जाती है। इसका प्रयोग स्मरणशक्ति बढ़ाने, सूखा रोग, पीलिया और साँप-बिच्छू काटने में भी किया जाता है।
तालाबों और दलदल इलाके में पाया जाने वाला घावों में लाभदायक 'वौचचूर्ण' ही नहीं श्वांस, ज्वर, आँख और कुष्ठ रोग में लाभदायक 'ममीरी' और 'चवन्नी घास' भी जल्दी ही दिखना बंद हो सकती है। रक्त शोधक औषधि के रूप में इस्तेमाल होने वाली 'वाराही' या 'गेठा' समाप्त हो रही है। शहद के साथ लेने पर दाँत एवं मूत्र संबंधी विकारों से छुटकारा दिलाने वाली 'कंटकारी' या 'भटकटैया' के साथ-साथ आंबा हल्दी, मदार, आक मदार, अकवा पौधों को खोजने के लिए काफी समय गंवाना पड़ सकता है।
कानपुर इलाके में पाया जाने वाला 'पुर्ननवा', जो आँत की बीमारी और मुँह के छाले में लाभदायक होता है, भी दुर्लभ हो चुका है। स्वप्नदोष की कई बीमारियों में लाभदायक धतूरा, आँख की बीमारी के लिए उपयोगी 'सत्यानाशी' का दूध भी खोजे नहीं मिल रहा। इसका उपयोग दाद-खाज की दवा के रूप में भी किया जाता है।
धान के खेतों में खुद-ब-खुद उग आने वाली 'गोरखमुंडी' ही नहीं, पीलिया की अचूक दवा 'अमरबेल' या 'आकाशबेल' को भी हम सहेज कर नहीं रख पाए। हर जगह मिलने वाली 'मकोई रसभरी' अब खोजे नहीं मिलती है। गाँव में दाइयाँ गर्भवती स्त्री की पीड़ा दूर करने के लिए इसका इस्तेमाल करती थीं।
चोपन के जंगलों में पाया जाने वाला 'काला वनकवाच' या 'काली काँच की जड़' ही नहीं 'भटकटैया' भी अब हमारे लिए बीते दिनों की बात होती जा रही है। 'वनकवाच' की जड़ पीस कर पीने से स्वप्नदोष और नपुंसकता की बीमारी दूर होती है जबकि 'भटकटैया' से दाँत दर्द और पायरिया में फायदा पहुँचता है।
अधकपारी में लाभदायक 'अगरपुष्पी' या 'मदरवर्ट' तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में खाई और मेड़ों पर उगने वाली कमर दर्द, गठिया और बाई रोगों में लाभदायक 'सिंदवार' अब नदारद है। शिवालिक वन प्रभाग में पाया जाने वाला 'अमलताश' हर जगह मिलने वाला 'हरसिंगार' पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाने वाली 'जंगली प्याज' अब संरक्षित पौधों की श्रेणी में शुमार हो गए हैं। 'हरसिंगार' का उपयोग पथरी रोग में जबकि नजला, खाँसी और उल्टी के साथ ही साथ जंगली प्याज कीटनाशक के रूप में उपयोग होता है।
प्रदेश भर में पाई जाने वाली 'वन तुलसी' या 'तुतरलंग' बलतोड़ पर लगाने पर लाभकारी होता है। मैदानी इलाकों में पाई जाने वाली 'कठजामुन' की गुठलियों से मधुमेह की दवा बनती है। 'गिलाय' से अम्ल पित्त, रक्त पित्त, एलर्जी और बुखार से निपटा जा सकता है। मैदानी इलाकों में पाए जाने वाले 'हुरहुर' का प्रयोग कान के दर्द और हड्डी की मजबूती के लिए किया जाता है।
गोबर के ढेर पर या दीवारों के किनारे उग आने वाले 'कुकरौंधा' से घाव ठीक होते हैं जबकि जंगली इलाकों में उगने वाली 'कंज' मलेरिया बुखार में लाभदायक है। 'भंगरईया' का प्रयोग दाँत दर्द और बवासीर में किया जाता है। दाँत दर्द में 'सिहोर' भी बेजोड़ माना जाता है।
विलुप्त हो रही इन औषधियों के बारे में अपर निदेशक वन संरक्षक मोहम्मद एहसान बताते हैं, 'यह सभी पेड़-पौधे स्वतंत्र रूप से उग आते हैं। इनकी बुआई नहीं होती है। इस तरह कुल सत्ताईस हजार वानस्पतिक प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं। इनमें 44 फीसदी औषधीय गुणों से भरपूर हैं।
विलुप्त होने का सबसे अधिक संकट औषधीय पौधों पर है। वैज्ञानिक इसकी वजह जलवायु में परिवर्तन बताते हैं। 1859 में डॉक्टर टी. एंडरसन ने पहली बार लखनऊ में औषधीय पौधों की 1914 मूल प्रजातियों की पहचान की थी जबकि एनबीआरआई के वैज्ञानिक डॉ.एस.एल. कपूर ने 1858 में आठ सौ वनस्पतियों की मूल प्रजातियों को सूचीबद्ध किया था लेकिन आज इनमें सिर्फ 400 बची रह गई हैं।