हम तो बेवकूफ हैं ना...!

-प्रकाश पुरोहित

Webdunia
सोमवार, 9 दिसंबर 2013 (19:43 IST)
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यह कहना शीला दीक्षित की विनम्रता नहीं, उनका अहम, गुस्सा और चिढ़ है! जो लोग इस बात पर माथापच्ची कर रहे हैं कि दिल्ली में कांग्रेस की ऐसी गत क्यों कर हुई तो उन्हें शीलाजी के इस जवाब से समझ में आ जाना चाहिए। सत्ता के साथ यही सबसे बड़ा दुर्गुण है कि जिसके पास चली जाती है, वही यह समझने लगता है कि रहती दुनिया तक उसे अब कुर्सी से हिलाने वाला कोई नहीं है। लेकिन यही लोकतंत्र की ताकत है कि जब कोई सत्ताधारी मुंहजोर और बारामाथे का होने लगता है तो उसे ऐसा झटका दिया जाता है कि फिर उठने में वक्त लग जाता है।

शीला दीक्षित जब पिछली बार जीती थीं तो उन्हें खुद यकीन नहीं आ रहा था कि वे फिर से मुख्यमंत्री बन गई हैं। बस, यहीं से उन्हें यह मुगालता हो गया कि मैं कुछ भी करूं... जनता के पास मुझसे बेहतर कुछ है ही नहीं तो चुनेंगी क्या! यदि आज केजरीवाल की 'आप' नहीं होती तो हो सकता था शीला दीक्षित का मुगालता बढ़ जाता और सच भी हो जाता। क्योंकि 'आप' ने भाजपा-कांग्रेस के भी तो वोट लिए हैं।

सत्ता ऐसा चने का झाड़ है कि जिसने भी इस पर चढ़ना चाहा है, औंधे मुंह गिरा है। इंदिरा गांधी से लेकर दिग्विजय सिंह और अटल बिहारी से लेकर सुंदरलाल पटवा तक सभी चने के झाड़ पर चढ़े और औंधे मुंह गिरे। राजस्थान में आज यदि 'आप' जैसी ही कोई पार्टी होती तो क्या वसुंधरा राजे को इतनी सीटें मिलतीं? क्योंकि ये ही वसुंधरा राजे थीं, जिन्हें दस साल पहले जनता ने सिरमाथे पर बिठाया था और राजस्थान सौंप दिया था। उसी समय छत्तीसगढ़ में रमनसिंह और मध्यप्रदेश में उमा भारती (यानी बाद में बाबूलाल गौर यानी शिवराज सिंह चौहान) भी मुख्यमंत्री बने थे।

यह तय है कि उमा भारती यदि मुख्यमंत्री बनी रहतीं तो वसुंधरा राजे की ही तरह भाजपा कभी भी मध्यप्रदेश से विदा हो चुकी होती। वसुंधरा राजे में वही घमंड और राजसी दर्प था, जो हमें शीला दीक्षित में नजर आया। इसके उलट रमनसिंह और शिवराज सिंह ने आम आदमी से दूरी कम की और सही में यह मंशा भी जाहिर की कि उन्हें जनता की बेहतरी के लिए कुछ करना है। यहीं सुंदरलाल पटवा चूक गए थे, दिग्विजय सिंह भटक गए थे और शीला दीक्षित में भी गुरूर आ गया था। जब आंदोलन की आग में दिल्ली खदबदा रही थी, तब शीला दीक्षित जले पर नमक ही बुरक रही थीं।

इन दस वर्षों में भाजपा ने अपना चरित्र बदला है, जबकि कांग्रेस ने भाजपा की तरह होने की कोशिश की। जब 2004 में भाजपा मुगालते की लहर पर सवार होकर जीत के सपने देख रही थी, तब इंडिया शाइनिंग जैसे नारों ने आम आदमी को तड़पा दिया था। प्रमोद महाजन जैसे मगरूर-बड़बोले और अहमी नेता के हाथ में अटलजी ने सारे सूत्र देकर यह मान लिया था कि जीत पक्की है और इसीलिए समय से पहले चुनाव करवा लिए थे।

आपातकाल में विद्याचरण शुक्ल से भी ज्यादा बदनाम प्रमोद महाजन, अटलजी के खास थे और तब भाजपा का हर नेता दांत पीस-पीस कर जीत के दावे कर रहा था। कांग्रेस की विनम्रता को लोगों ने पसंद किया और भाजपा की आक्रामकता को घर रवाना कर दिया। यदि आप ध्यान दें तो पता चलेगा कि सुषमा स्वराज और अरुण जेटली जैसे नेता भी आजकल सोच-समझकर और धिरपाई से बोलते हैं। कहीं ये मोदी का असर तो नहीं है... और अगर है तो शुभ है।

शीला दीक्षित जब यह कहती हैं कि हम तो बेवकूफ हैं ना... तब वे यह मान नहीं रही होती हैं, बल्कि सामने वाले को बेवकूफ जताने की हरकत कर रही होती हैं। भले ही वे ना मानें.. मगर हार तो यही कह रही है कि सच कहा आपने- 'हम तो बेवकूफ हैं!'

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