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प्रवासी संसार : भाषा और संस्कृति

हमें फॉलो करें प्रवासी संसार : भाषा और संस्कृति
11वें विश्व हिन्दी सम्मेलन, मॉरीशस में डॉ. पद्मेश गुप्त, यूके के प्रतिनिधि का संबोधन

 
मैं अपनी बात शुरू करता हूं लंदन के हमारे प्रिय शायर सोहन राही के गीत की इन पंक्तियों से-
 
'कोयल कूक पपीहा बानी, ना पीपल की छांव,
सात समंदर पार बसाया हमने ऐसा गांव,
हमरा ऐसा गांव रे, हमरा ऐसा गांव!'
 
भारत से बाहर नए देश में, नए परिवेश में, नए वातावरण में, नई भाषा में, नई संस्कृति, नए संस्कार, नए कानून, नए खानपान, वेशभूषा में जब भारत की संस्कृति विकसित होने लगती है, अपनी जगह बनाने लगती है, वह है प्रवासी संसार!

 
जब भारत का कोई नागरिक भारत से बाहर जाता है तो मेरा मानना है कि उसकी परिधि में संपूर्ण भारतवर्ष बसता है और उसके साथ फिर बसने लगता है प्रवासी संसार! एक दोहरे जीवन के साथ जीता है हर प्रवासी नागरिक। एक तरफ मन-मस्तिष्क में भारत और भारतीय संस्कार तथा दूसरी तरफ नए देश के प्रति उसकी जिम्मेदारियां, निष्ठा, प्रतिबद्धता!
 
उस नागरिक का फिर बढ़ता है परिवार, जन्म लेती है नई पीढ़ी, जो मनाती है भारत के तीज-त्योहार। बोलती है भारतीय भाषा, पहनती है भारतीय लिबास, गुनगुनाती है भारतीय गीत-संगीत और उसके साथ गूंजने लगता है प्रवासी संसार! यह परिवार फिर बनाने लगता है अपनी नई पहचान। छोटा-बड़ा जो भी काम करता है, उसकी समस्त उपलब्धियां नए देश में बनाती हुई अपनी पहचान है प्रवासी संसार!

 
मैं मानता हूं कि अधिकांश प्रवासी भारतीय जब कोई खत लिखते हैं, घर-परिवार को अपने अनुभवों और व्यथा से भरा पत्र लिखते हैं तो आरंभ हो जाता है अत्यंत मौलिक और सच्चा हिन्दी साहित्य! वह साहित्य, जो व्यक्तिगत भाव, व्यक्तिगत अनुभव होते हैं और व्यक्तिगत ही रह जाते हैं। परंतु कुछ प्रवासी अपनी लेखन क्षमता को गंभीरता से लेते हैं, लोगों के साथ बांटते हैं, प्रकाशित करवाते हैं जिसे हम आज की तारीख में 'प्रवासी साहित्य' कहते हैं।

 
फिर आरंभ होता है इस प्रवासी साहित्य का मूल्यांकन! यह एक बड़ा और महत्वपूर्ण विषय है। विदेशों में 4 प्रकार के हिन्दी लेखक हैं, जो हिन्दी साहित्य का सृजन कर रहे हैं। पहले, जो भारतीय मूल के विदेश में जन्मे या विदेशी मूल के लेखक। दूसरे, जो युवावस्था में भारत छोड़कर विदेश में आकर बस गए। तीसरे, जो हिन्दी के रोजगार से जुड़े रहे, जैसे अध्यापक या पत्रकार और चौथे वह, जो भारत में हिन्दी साहित्य से जुड़े रहे और 30-35 वर्ष की आयु के बाद विदेश आए।

 
भाषा और शिल्प की दृष्टि से आप सब में अंतर पाएंगे, परंतु भाव, अहसास, अनुभवों और विषयों में आपको समानता मिलेगी। प्रवासी भाव, प्रवासी अनुभव, प्रवासी पीड़ा, संघर्ष और उपलब्धियां अपने शहर-गांव में रहने वालों के मुकाबले दूर देश में रहने पर स्वाभाविक रूप से अलग होती हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मैं मानता हूं 'रामायण' के इस संदर्भ को। जब प्रवासी साहित्य की बात उठती है तो मुझे जो संभवत: पहली और सबसे श्रेष्ठ और उत्कृष्ट रचना लगती है, वह यह है-
 
 
'नेयं स्वर्णपुरी लंका रोचते मम लक्ष्मण।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।'
 
अर्थात जब लंका जीतने के बाद लक्ष्मण ने राम से कहा कि 'यह स्वर्णपुरी सोने की लंका जीतने के बाद इसे छोड़कर हम वापस चलें? तब राम ने कहा कि हे लक्ष्मण, तुम इस स्वर्णपुरी पर आकर्षित मत हों, अपनी जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक सुन्दर होती है।'

 
मेरा तो मानना है कि आज हिन्दी साहित्य को सच्चे रूप में वैश्वीकरण करने का श्रेय प्रवासी लेखकों को सबसे अधिक जाता है। आज विश्वभर के अनुभवों से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले प्रवासी हिन्दी लेखक ही तो है। अब जब हमारे हिन्दी साहित्य के विशेषज्ञ प्रवासी साहित्य का मूल्यांकन करते हैं, तो मेरा विनम्र निवेदन है कि आप उसे भाषा या शिल्प के तराजू से न तौलें बल्कि विषयवस्तु और मौलिकता के आधार पर तौलें। भाषा में यदि त्रुटि है या कमजोरी है, तो उससे वास्तविकता नहीं बदल जाती है।
 
हां, मैं मानता हूं कि प्रवास में रह रहे कुछ लोग लंदन-अमेरिका के पते का लाभ उठा रहे हैं, दूसरी भाषा के साहित्य का अनुवाद कर अपनी मौलिक रचना बताकर अच्छे-अच्छे साहित्य विशेषज्ञों, प्रकाशकों और संस्थाओं को गुमराह कर अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को अंजाम दे रहे हैं, पुरस्कार पा रहे हैं। परंतु ऐसे कुछ गिने-चुने लोगों के कारण हिन्दी और भारतीय साहित्य के वैश्वीकरण को न रोकिए। हिन्दी और साहित्य के वातावरण से बहुत दूर नए परिवेश में मासूम लेखन कर रहे हैं और अत्यंत मौलिक साहित्य को प्रेरणा और मार्गदर्शन की जरूरत है।

 
मेरा निवेदन है कि जिन महानुभावों को प्रवासी लेखकों की भाषा, शिल्प इत्यादि से कष्ट है, नाराजगी है, वह अपनी जगह जायज है और बहुत जायज है, लेकिन यदि क्रोध निकालना है तो उन प्रकाशकों, समीक्षाकारों, संपादकों और पत्रकारों पर निकालिए, जो शायद कहीं न कहीं अपने निजी लाभ के लिए ऐसे लेखकों को छापते हैं, पुरस्कृत करते हैं या फिर ऐसी भूमिकाएं और समीक्षाएं लिखते हैं, जो प्रवासी मासूम लेखकों को गुमराह करती हैं।

 
प्रवासी लेखन को परीक्षक के रूप में नहीं, शिक्षक के रूप में देखिए और उसे प्रेरणा और मार्गदर्शन दीजिए। साहित्य संसार में प्रवेश न देने की जगह उसे अपने प्रयासशील विद्यार्थियों की तरह पनाह दीजिए। प्रवासी लेखन को तिरछी निगाह से देखने की बजाए यदि आप पलकों पे बिठाएंगे, तो हिन्दी साहित्य का ऐसा वैश्वीकरण होगा, जो दुनिया में किसी भी भाषा में नहीं हो सकता।
 
मैं मानता हूं कि हिन्दी के वैश्वीकरण में प्रवासी लेखन का सबसे बड़ा योगदान है। भाषा की दृष्टि से देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि विश्व में कितने लोग हिन्दी बोलते हैं, कितने देश हिन्दी बोलते हैं। परंतु सोचिए, अगर आज से सौ-दो सौ साल बाद अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, योरप के लोगों को यह जानना हो कि सौ-दो सौ साल पहले उनकी दुनिया, उनका समाज, उनके लोग कैसे थे और उन्हें यह पता लगे कि यह जानने के लिए उन्हें हिन्दी साहित्य पढ़ना पड़ेगा, तब मैं मानता हूं कि हिन्दी का सच्चा वैश्वीकरण हुआ है। यह सिर्फ प्रवासी लेखक कर रहे हैं, जो आज दुनियाभर में उनके समाज में, उनके निवास कर रहे देश में जो कुछ हो रहा है, वह अनुभव हिन्दी में लिख रहे है और हिन्दी साहित्य को वैश्विक स्तर पर समृद्ध कर रहे हैं।
 
 
इसे और गहराई से समझना है तो अनिल जोशी की हाल ही में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'प्रवासी लेखन' को पढ़िए और प्रवासी साहित्य की विशेषताओं को समझिए, लंदन की दिव्या माथुर द्वारा संग्रहीत विश्व की अनेक महिला लेखकों की कहानियों के संग्रह 'इक सफर है साथ-साथ' को पढ़िए।
 
इसके अलावा मैं अधिक गहराई में न जाते हुए कहता हूं कि आज के वर्तमान काल में हिन्दी सिनेमा का हिन्दी भाषा के वैश्वीकरण में जितना योगदान है, उतना किसी और प्रचलित विधा का नहीं है। आज योरप और रूस के कितने ही हिन्दी के शिक्षक हिन्दी गीतों के माध्यम से छात्रों को पढ़ा रहे हैं। मुझे यह जानकर प्रसन्नता भी हुई और आश्चर्य भी कि जब ऑक्सफोर्ड में मेरे कुछ अरबी मित्रों ने बताया कि खाड़ी के देशों में उनके अभिभावक उन्हें बचपन में हिन्दी सिनेमा तो देखने की अनुमति देते थे और देते हैं, परंतु अमेरिकी सिनेमा नहीं। कारण कि उन्हें लगता है कि भारतीय सिनेमा उन्हें संस्कारी संदेश देते हैं।

 
अब मैं अंत में कहना चाहता हूं कि भाषा हो या संस्कृति, प्रवासी संसार के इस निर्माण में सबसे जमीनी और महत्वपूर्ण योगदान है संस्थाओं का! हजारों प्रवासी भारतीयों में से कोई एक जागरूक व्यक्ति 4 लोगों को एकत्रित कर एक संस्था का गठन करता है। यह संस्था न केवल अपने लोगों को बल्कि विदेशी मूल के नागरिकों को भारतीय भाषा और संस्कृति की ओर आकर्षित करती है और अपना बनाती है।
 
यह हिन्दी और संस्कृति की संस्थाएं ही हैं, जो विश्वभर में, कोने-कोने में, गली-मुहल्लों में, भारतीय भाषाओं और संस्कृति को न केवल जीवित रखे हैं, अपितु कितने ही विदेशी मूल के लोगों और नई पीढ़ी को भारत से जोड़ रही है। अक्सर बात उठती है कि इस विश्व हिन्दी सम्मेलन से क्या होता है? बहुत से लोग इसे राजनीति की दृष्टि देखते हैं, तो बहुत से इसे गंभीरता से नहीं लेते।

 
मैं अपने अनुभव के आधार पर यदि ब्रिटेन की बात करूं तो 1999 में 6ठे विश्व हिन्दी सम्मेलन का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा। यहां मैं सरकारी डाटा की बात नहीं कर रहा हूं, अपने निजी अनुभवों का यथार्थ बताना चाहता हूं बाकी देशों में क्या हुआ, नहीं कह सकता, परंतु उस एक व्यक्ति जिसने 1975 में हुए नागपुर के विश्व हिन्दी सम्मेलन से लेकर अब तक के समस्त विश्व सम्मेलनों को अनुभव किया है, सम्मिलित हुए हैं, इस आयोजन को अत्यंत गंभीरता से लिया है, प्रकाश डाल सकते हैं, मेरे पिता डॉक्टर दाऊजी गुप्त।

 
1999 के बाद यूके में हिन्दी की गतिविधियों ने ऐसी गति पकड़ी कि देखते ही देखते ब्रिटेन विश्व में हिन्दी का मुख्य केंद्र बन गया। 6ठे विश्व हिन्दी सम्मेलन का मुख्य विषय था, 'हिन्दी एवं भावी पीढ़ी' और सन् 2001 से आज 17 वर्ष हो रहे हैं, 'हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता' के आयोजन हो रहे हैं जिसमें 30 से 35 हिन्दी शिक्षण केंद्र और सैकड़ों हिन्दी के विद्यार्थी भाग लेते हैं। हिन्दी के चयनित विजेताओं को भारत यात्रा पर ले जाया जाता है।

 
6ठे विश्व हिन्दी सम्मेलन से पहले इंग्लैंड में सिर्फ 3 से 4 हिन्दी की संस्थाएं थीं। आज यहां हर बड़े शहर में हिन्दी की अत्यंत सक्रिय संस्थाएं काम कर रही हैं। जो वार्षिक अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन ब्रिटेन के 4 शहरों में होते थे, अब 12-13 नगरों में होते हैं, भारत के बाहर विश्व में शायद ब्रिटेन ही वह देश है, जहां से प्रतिवर्ष सबसे अधिक मात्रा में हिन्दी की पुस्तकें प्रकाशित होती हैं, समय-समय पर बड़े ही सुनियोजित ढंग से अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी महोत्सव, शिक्षकों के अधिवेशन, हिन्दी छात्रों के वाद-विवाद और भाषण के कार्यक्रम जैसे कितने ही आयोजन निरंतर होते रहते हैं।

 
6ठे विश्व हिन्दी सम्मेलन के बाद उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान से लेकर भारत के कई और राज्यों से ब्रिटेन के हिन्दी लेखक और कार्यकर्ता पुरस्कृत होने लगे, उन्हें पहचान मिलने लगी। पिछले 3 वर्षों से लगातार केंद्रीय हिन्दी संस्थान ब्रिटेन के हिन्दीकर्मियों को पुरस्कृत कर रहा है। पिछले 10 वर्षों में ब्रिटेन के 3 लोगों को हिन्दी शिक्षण और साहित्य के क्षेत्र में इंग्लैंड की महारानी द्वारा सम्मान मिला है, यहां तक कि 2007 में डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी की अध्यक्षता में विदेश मंत्रालय, भारत सरकार की सम्मान समिति यह निर्णय लेने पर बाध्य हो गई कि ब्रिटेन की इतनी अधिक हिन्दी गतिविधियों को देखते हुए विश्व हिन्दी सम्मेलनों में एक नहीं, बल्कि दो लोगों को सम्मान दिया जाना चाहिए।

 
परंतु मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आश्चर्य है कि इस वर्ष यहां 11वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भारत सरकार को ब्रिटेन से एक भी ऐसा योग्य व्यक्ति नहीं मिला जिसे पुरस्कृत किया जा सके। इससे ब्रिटेन के हिन्दी कार्यकर्ताओं के मनोबल को चोट पहुंची है। लेकिन फिर भी ब्रिटेन के अनेक कार्यकर्ताओं और संस्थाओं ने बड़े स्नेह और उत्साह से 12वें विश्व हिन्दी सम्मेलन को लंदन में कराने का भारत सरकार को निमंत्रण और प्रस्ताव भेजा है।

 
मेरा निवेदन है कि आप हमारे इस आग्रह को स्वीकार करें और हमें एक और विश्व हिन्दी सम्मेलन करवाने का अवसर प्रदान करें। यूके का प्रतिनिधित्व करते हुए मैं अंत में यह निवेदन करता हूं कि ब्रिटेन में हो रही हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता के चयनित विजेताओं को जो भारत यात्रा के लिए सहयोग बंद हो गया है, उसे फिर से आरंभ करे और केंद्रीय हिन्दी संस्थान जैसी संस्था अपना एक केंद्र लंदन में खोले या किसी स्थानीय संस्था को मान्यता प्रदान करके हिन्दी शिक्षण का विस्तार करे।

 
इन शब्दों के साथ मुझे आज यहां वक्तव्य देने का अवसर प्रदान करने के लिए हृदय से अपना आभार और धन्यवाद अर्पित करता हूं।

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