आस्था नवल ने अपनी कहानी 'एमी' पढ़ी, जो एक तलाकशुदा लड़की के बारे में है और पूछा कि वे इसको लेख कहें या कहानी कहें, क्या यह कहानी होगी? इस पर स्वदेश राणा ने कहा कि इस कहानी में संवेदनशीलता है और साथ में यह भी कहा कि अगर संवेदनशीलता हो तथा कलम उठाने की ताकत हो तो कहानी अपने आप बन जाती है।
सुषमजी ने कहानी पर अपने विचार अभिव्यक्त करते हुए कहा कि नए प्रवासी कहानीकार ऑन लुकर की तरह होते हैं। उनकी भागीदारी जितनी अपनी संस्कृति में होती है उतनी भागीदारी यहां की जिंदगी में नहीं होती है इसलिए उनको कहानी एमी ऑन लुकर की दृष्टि में लिखी गई कहानी की तरह लगती है। संगीता जग्गीआ ने इस कहानी की युवती के संघर्ष पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि कई बार पूरी उम्र भी एक रिश्ते को पूरा नहीं कर पाती और कई बार एक क्षण में पूरी जिंदगी जी जाती है।
स्वदेश राणा ने अपनी कहानी 'निष्कलंकिनी' की पृष्ठभूमि बताई। उन्होंने कथा-गोष्ठी में अपनी कहानी के मुख्य पात्रों अम्बुजम, फिलिप इत्यादि का परिचय दिया और कहानी के कुछ अंश पढ़े। सुषमजी ने कहा कि स्वदेशजी का अंदाजे-बयान काबिले तारीफ होता है। अखिल सूद ने 'निष्कलंकिनी' कहानी के बारे में कहा कि वे इस कहानी से बहुत आनंदित हुए और जिस तरह से कहानी शुरू हुई, मुख्य पात्रों का परिचय इत्यादि जिस ढंग से बताया गया वह सब कुछ इतना समृद्ध लगा कि इस कहानी के कुछ अंश सुनना नि:संदेह सम्मोहित कर देने वाला अनुभव था।
स्वदेश राणा ने कहा कि बहुत बार वे स्वयं को लिखने के लिए बाध्य पाती हैं, क्योंकि उनकी कहानियों के किरदार उनके कानों पर दस्तक देते रहते हैं और जब तक वे उनको पन्नों पर न उतार दें, वे उनको चैन नहीं लेने देते। इस बात पर गीतांजलि चंदा ने प्रश्न किया कि स्वदेशजी अपनी लिखने की क्षमता का श्रेय किसी और यानी अपने पात्रों को क्यों देना चाहती हैं? राहुल बेदी ने भी इस बात से सहमति रखते हुए कहा कि स्वदेशजी लेखन में स्वयं की भूमिका को क्यों अस्वीकार करना चाहती हैं? इस बात के जवाब में सुषमजी ने कहा कि क्रिएट (सृजन) तो लेखक ही करता है। अत: लेखक अपने पात्रों को बनाता है, पर वह पात्र स्वयं को खुद ही जीते हैं। आस्था नवल ने स्कूल-कॉलेज के साहित्य की किताबों में लिखे-पढ़े जाने वाले कहानी के मुख्य भागों का जिक्र करते हुए कहा कि उनको पढ़ा तो जाता है, पर उनका अनुसरण तो नहीं किया जाता। इस बात पर सुषमजी ने कहा कि आधुनिक काल में कहानी का स्वरूप बहुत बदला और विकसित हुआ है। शांतनु गंगवार ने कहा कि उनको तीनों कहानियां बहुत अच्छी लगीं। उनको पहली कहानी के अंत का अंदाजा नहीं था और तीसरी कहानी के दृश्यों का विवरण बहुत प्रभावशाली लगा।
कथा-गोष्ठी के दूसरे भाग की शुरुआत में सर्वप्रथम विशाखा ठाकर ने अपनी कहानी 'गलीचा' पढ़ी। सीमा खुराना ने अपनी कहानी 'बूढ़ा शेर' पढ़ी। सुषम बेदी ने अपनी कहानी 'चेरीफूलों वाले दिन' पढ़ी।
विद्यार्थियों ने तीनों कहानियों पर एकसाथ अपनी प्रतिक्रिया देते हुए गलीचा कहानी को रोमांचक, बूढ़ा शेर कहानी को थॉट प्रोवोकिंग और संबंधों पर केंद्रित तथा चेरीफूलों वाले दिन को भावपूर्ण और नाना-नानी एवं दादा-दादी की याद दिला देने वाली कहानी बताया। मां कितनी भी बूढ़ी हो, उससे नाता अपनी पहचान का नाता होता है, मां एक छतरी की तरह बरखा से बचा लेती है, इत्यादि जैसी भावों से ओत-प्रोत पंक्तियों के माध्यम से इस कहानी चेरीफूलों वाले दिन में मां-बेटी और दादी-पोती के बीच के मधुर संबंधों का जिक्र होता है। इस कहानी को सुनकर स्वदेश राणा ने कहा कि सच में, नाती-पोते हमारी अमरता का प्रमाण-पत्र हैं! श्रोताओं में से अधिकतर ने यह कहा कि उन्होंने स्वयं को इस कहानी से जुड़ा हुआ महसूस किया।
अखिल सूद ने गलीचा कहानी के बारे में कहा कि यह एक सुखद कथा थी जिसकी कि शुरुआत ने ही सुंदर ढंग से पूरी कहानी को स्वर प्रदान किया और सुनने वालों को सचेत रखा और कहा कि सुषमजी और सीमाजी की कहानियां अच्छी और भावपूर्ण थीं और कथा-गोष्ठी में सभी लेखकों को सुनना निश्चय ही अच्छा अनुभव रहा।
कथा-गोष्ठी में कहानी के विभिन्न भागों, लेखन-प्रक्रिया इत्यादि पर हो रही चर्चा को सुनकर स्मिता शुक्ला ने कहा कि कभी सोचा नहीं था कि कहानी के किरदारों के लिए इतना सोचना पड़ता है! और डायस्पोरा से संबंधित कहानियों को सुनकर
उन्होंने यह भी कहा कि डायस्पोरा हमारी कहानी का हिस्सा है और वे कथा-गोष्ठी में ऐसी कहानियों को सुनकर उनसे रीलेट (जुड़ा हुआ महसूस) कर पाईं।
डायस्पोरा की बात पर गीतांजलि चंदा ने विद्यार्थियों से उनका मत जानने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रश्न किया कि उन्होंने कहानी सुनने के बाद किस बात से जाना कि कहानी डायस्पोरा से संबंधित थी या नहीं? कुछ और लोगों ने भी डायस्पोरा से जुड़ी कहानी को अधिक स्पष्ट भाव से जानना चाहा। इस विषय पर चर्चा हुई और स्पष्ट किया गया कि डायस्पोरा वह स्थिति है जिसमें जब किसी एक संस्कृति के लोग दूसरी संस्कृति के लोगों से मिलते हैं तो जिस तरह से उस स्थिति को देखते, समझते और निभाते हैं, उन्हीं को दर्शाती/ बताती हुई बातों/ कहानियों को हम डायस्पोरा से संबंधित कहते हैं।
सीमा खुराना ने विद्यार्थियों से उनका मत जानने के लिए प्रश्न किया कि क्या (उनके द्वारा) कहानी को पसंद करने के लिए उस कहानी का डायस्पोरा से संबंधित होना जरूरी है? इस प्रश्न के उत्तर में सभी छात्रों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की जिसका संक्षेप में निष्कर्ष यह रहा कि उनको प्रवासी जीवन के बारे में पढ़ना अच्छा लगता है, मगर उनके द्वारा कहानी को पसंद करने के लिए हर कहानी का प्रवासी जीवन से जुड़ा होना आवश्यक नहीं है। अत: उनको ऐसी कहानी पढ़ना अच्छा लगता है, जो रोचक हो और उनकी उत्सुकता को बनाए रखे। सुषमजी ने कथा-गोष्ठी के विषय में कहा कि कहानी वर्कशॉप शुरू करने का मुख्य उद्देश्य यही था कि लिखने वाले आपस में मिलकर चर्चा कर सकें।
हर बार की तरह इस बार भी कथा-गोष्ठी बहुत सफल रही। विस्तृत विचार-विमर्श और विद्यार्थियों की सहभागिता ने इसको अद्वितीय बना दिया।
प्रस्तुति : सविता नायक