कॉन फिल्म समारोह : भारत पीछे क्यों?

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कॉन फिल्म समारोह दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह है। इसकी ज्यूरी बेहद सख्त है। प्रतियो‍गी खण्ड की हर फिल्म को हर तरीके से जांचा परखा जाता है और उसके बाद ही इस खण्ड में किसी फिल्म को शामिल किया जाता है। दुनिया में निर्मित हर चर्चित फिल्म पर ज्युरी की निगाह रहती है। हर देश अपनी तरफ से श्रेष्ठ फिल्म का चयन कर यहाँ भेजता है। उसके बाद ज्युरी ही फैसला करती है कि यह फिल्म प्रतियोगी खण्ड में शामिल करने लायक है या नहीं। यदि किसी कारण से कोई सशक्त फिल्म की एंट्री नहीं हो पाती है तो ज्युरी अपनी तरफ से इस फिल्म को समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रित करती है। इस फिल्म समारोह का 60वाँ संस्करण 15 मई से शुरू हो रहा है।

हमारी फिल्मों के स्तर की हम ‍भलें ही कितनी भी तारीफ कर लें, लेकिन विश्व के अन्य देशों की फिल्मों के मुकाबले में हम बेहद पीछे हैं। हजारों की संख्या में फिल्में हमारे यहाँ बनती है। कई देशों में यह फिल्में प्रदर्शित होती है लेकिन अभी भी हम ऐसी फिल्म नहीं बना पाते जो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में सराही जाए। तकनीकी रूप से हमारा स्तर जरूर बढ़ा है लेकिन कहानी, विषय और अभिनय का स्तर अभी भी नीचा है।

ऐश्वर्या राय और नंदिता दास को ज्यूरी का सदस्य बनाया गया था तब हमारे देश में इस समारोह को लेकर खूब चर्चा हुई थी। लेकिन फिल्मों को लेकर चर्चा का मौका बहुत कम मिला है। बहुत कम लोगों को जानकारी होगी भारत की तरफ से ‘चाइनीज़ व्हिस्पर’ नामक फिल्म को कॉन फिल्म समारोह में प्रतियोगी खण्ड में भेजा जा रहा है। ‘गुरु’ जैसी कमर्शियल फिल्मों को तो सिर्फ पॉपुलर सिनेमा की श्रेणी में शामिल किया जा रहा है। ‘अदिति सिंह’ नामक एक और फिल्म को हम हमारा सिर्फ इसलिए मान सकते हैं कि यह भारतीय मूल के व्यक्ति ने बनाई हैं।

‘लगान’ और ‘रंग दे बसंती’ जैसी फिल्मों को बनाकर हमारे निर्माता-निर्देशक बेहद खुश होते हैं कि उन्होंने महान फिल्म की रचना की है। लेकिन ये दुनिया की श्रेष्ठतम फिल्मों के आगे नहीं ठहर पाती है। इस तरह के समारोह में वे फिल्में ही चर्चित या पुरस्कृत होती है जिनमें यूनिवर्सल अपील होती है। जिस फिल्म को देखकर विश्व के किसी भी क्षेत्र से आया व्यक्ति अपने आपको जोड़ सकें। फिल्म की अपील विश्वव्यापी होना चाहिए।

सत्यजीत रे भारत के एकमात्र ऐसे निर्देशक रहे हैं जिनकी फिल्मों को कॉन फिल्म समारोह में दिखाने के लिए आमंत्रण दिया गया। समय-समय पर भारत की गिनी-चुनी फिल्मों ने इस समारोह में हलचल दिखाई। 1956 में सत्यजीत रे द्वारा निर्मित ‘पाथेर पांचाली’ को बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट का अवॉर्ड मिला था। ‘पिरावी’, ‘गरम हवा’, ‘पुष्पक’, ‘सलाम बाम्बे’ जैसी फिल्में भी सराही गई। ‘पिरावी’ और ‘सलाम बाम्बे’ को बेस्ट फर्स्ट फिल्म अवॉर्ड से नवाजा गया था।

भारतीय निर्देशकों को गहरा विश्वलेषण करना होगा तभी वे इस समारोह में पुरस्कृत होने की बात सोच सकते हैं।

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