कामिनी रामरतन

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कामिनी रामरतन - 30 सितंबर, 1961 को गुयाना, वेस्टइंडीज में जन्म, वनस्पतिशास्त्र में एम.एस-सी.।

इनके बुजुर्ग 1960 के दशक से पहले हिंदुस्तान से जाकर गुयाना में बस गए थे। हिंदुस्तान के आदिवासियों से विशेष लगाव महसूस करती हैं। वर्तमान में आप गुयाना के एक कॉलेज में पढ़ाने का काम कर रही हैं। चुनौती के आईने में भारतीय युवाजहाँ चाह, वहाँ राह जैसी लोकोक्ति डॉ. दीपक आचार्य के संदर्भ में सटीक समझ पड़ती है। लगभग 10 वर्ष पूर्व जिस अनोखे और चुनौतीपूर्ण अभियान की शुरुआत डॉ. दीपक आचार्य ने सतपुड़ा की सुरम्य वादियों से की थी, अब उस अभियान को अंजाम तक पहुँचाने में डॉ. आचार्य सफल होते दिखाई दे रहे हैं।

दक्षिण मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा शहर से लगभग 75 किलोमीटर दूरी पर स्थित यह विशालकाय घाटी का धरातल लगभग 3000 फीट नीचे है। इस विहंगम घाटी में गोंड और भारिया जनजाति के आदिवासी रहते हैं। इन आदिवासियों के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं, किंतु ये आदिवासी आमजनों से ज्यादा तंदुरुस्त हैं। ये आदिवासी घने जंगलों, ऊँची-नीची घाटियों पर ऐसे चलते हैं, मानो किसी सड़क पर पैदल चला जा रहा हो। आधुनिकीकरण से कोसों दूर पातालकोट घाटी के आदिवासी आज भी अपने जीवन-यापन की परम्परागत शैली अपनाए हुए हैं। रोजमर्रा के खान-पान से लेकर विभिन्न रोगों के निदान के लिए ये आदिवासी वन संपदा पर ही निर्भर करते हैं। भुमका वे आदिवासी चिकित्सक होते हैं तो जड़ी-बूटियों से विभिन्न रोगों का इलाज करते हैं।

भुमकाओं के पास औषधीय पौधों का ज्ञान भंडार है। 1997 में डॉ. दीपक आचार्य अपने शोधकार्य के सिलसिले में पातालकोट पहुँचे। आदिवासियों के बीच रहकर कार्य करना चुनौतीपूर्ण था। सामान्यतः अपने बीच अजनबी की उपस्थिति से आदिवासी विचलित हो जाते हैं। कटु जिज्ञासा और दृढ़ निश्चितता के कारण डॉ. आचार्य इन आदिवासियों का दिल जीत गए। इस समय तक घाटी के आदिवासी भी नहीं जानते थे कि एक दिन दुनिया से दूर स्थित इस घाटी को विश्व जान सकेगा। औषधीय पौधों की खोज में डॉ. आचार्य पातालकोट घाटी के भुमकाओं से मिलते रहे। इसके अलावा छिंदवाड़ा के दानियलसन कॉलेज में उनका शोध व अध्यापन कार्य भी चलता रहा।

इसी कॉलेज की छोटी-सी प्रयोगशाला गवाह है उनके काम की, जहाँ डॉ. आचार्य ने आदिवासियों की चिकित्सा पद्धति को प्रमाणित करने के लिए जी-जान लगा दी। शुरुआती दौर में आदिवासियों के द्वारा बताई चिकित्सा पद्धति के प्रमाणीकरण से साबित होने लगा कि ये हर्बल औषधियाँ वर्तमान बाजार में उपलब्ध अनेक एलोपैथिक दवाओं से ज्यादा कारगर हैं। अपने शोधपत्रों को प्रकाशित कर डॉ. आचार्य ने पातालकोट के भुमकाओं का डंका विश्व पटल पर बजा दिया।

2002 आते-आते पातालकोट घाटी एक अन्य समस्या से जूझने लगी थी। आदिवासी पलायन करके दूसरे नजदीकी शहरों की ओर कूच करने लगे थे। जैविक दबाव बढ़ने के कारण और बाहरी लोगों के घाटी प्रवेश के कारण घाटी के औषधीय पौधे समाप्त होने लगे। अधिकतर भुमका अपनी जीवनबेला के अंतिम पड़ाव में थे। डॉ. आचार्य ने आदिवासी भुमकाओं के ज्ञान संरक्षण की सोची और फिर शुरू हुआ एक डिजिटल लायब्रेरी बनाने का सफर। आदिवासी चिकित्सकों की तमामा चिकित्सा पद्धतियों को विस्तृत रूप से संकलित कर एक डेटाबेस बनाया गया। भुमकाओं की युवा पीढ़ी अब इस पारम्परिक ज्ञान में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही थी, उन्हें बाहरी दुनिया और आधुनिकीकरण की समझ तो आ गई, किंतु इस अमूल्य ज्ञान को सीखने की समझ न आ पाई।

इस ज्ञान के महत्व को डॉ. आचार्य ने समझा और संकलित करने का बीड़ा उठाया। डॉ. दीपक आचार्य के अनुसार आधुनिक विज्ञान की सहायता से किसी एक नई दवा को बाजार में आने तक 15 वर्ष लग जाते हैं, इस दवा की खोज में कई बिलियन डॉलरों की लागत भी लग जाती है। आदिवासियों का हर्बल ज्ञान एक सूचक की तरह कार्य कर सकता है। उनका भरोसा है कि अनेक वर्षों और खर्चों को खत्म करने में यह ज्ञान एक प्रमुख स्रोत बन सकता है। पुरातन ज्ञान को नकारना समझदारी नहीं कही जाएगी। पातालकोट के आदिवासी लकवा, मधुमेह, त्वचा रोगों, पीलिया, बवासीर, हड्डी रोग और नेत्र रोगों को ठीक कर देने का दावा ठोंकते हैं।

वर्तमान में डॉ. दीपक आचार्य स्वयं अपनी कंपनी स्थापित कर चुके हैं। भुमकाओं को समर्पित यह कंपनी अभुमका हर्बल प्रायवेट लिमिटेड के नाम से जानी जाती है। डॉ. आचार्य की यह कंपनी मध्यप्रदेश के पातालकोट और गुजरात के डाँग के आदिवासियों की चिकित्सा प्रणालियों को आधुनिक विज्ञान के परिदृश्य में प्रभावित करने का कार्य कर रही है। अहमदाबाद स्थित इस कंपनी ने काफी रफ्तार से आदिवासियों के परंपरागत ज्ञान पर कार्य करना शुरू कर दिया है। पातालकोट और डाँग के आदिवासियों की चिकित्सा पद्धतियों से उन पद्धितियों का चयन किया जा रहा है, जो वर्तमान बाजार में उपलब्ध दवाओं से ज्यादा कारगर हैं तथा प्रयास किया जा रहा है कि आमजनों तक सस्ती, सुलभ दवाओं को पहुँचाया जाए।

इन हर्बल पद्धतियों के प्रमाणीकरण के पश्चात डॉ. आचार्य बड़ी फार्मा कंपनियों से मिलकर इन उत्पादों को बाजार में लाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसा करने पर प्राप्त रकम का बड़ा हिस्सा आदिवासियों को दिया जाएगा। ऐसा करने से इन आदिवासियों के ज्ञान को सम्मान तो मिलेगा, साथ ही उनकी आर्थिक तंगहाली से उन्हें निजात भी मिल सकेगी। इन चिकित्सा पद्धति का पेटेंट आदिवासियों के ही नाम होगा।डॉ. दीपक आचार्य30 अप्रैल, 197 को कटंगी, बालाघाट, मध्यप्रदेश में जन्म, सागर विवि से डॉक्टरेट। इतनी कम उमर में डॉ. आचार्य ने दुनियाभर में नाम कमाया है। उनकी कुछ प्रमुख उपलब्धियाँ गौर करने लायक हैं। मसलन- अमेरिकन दैनिक अखबार द वॉल स्ट्रीट जर्नल में कवर स्टोरी पर आने वाले वे पहले भारतीय हैं। उनके विभिन्न अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में दो दर्जन से अधिक शोधपत्रों का प्रकाशन हो चुका है। उन्हें यंग एचीवर्स अवार्ड 2004 से नवाजा जा चुका है।

अंतरराष्ट्रीय इथनोबॉटनी व औषधीय ज्ञान सम्मेलन 2005 में चयनित होने वाले वे इकलौते भारतीय हैं। अमेरिकन लेखिका शैरी एमजेल की पातालकोट के आदिवासियों और उनकी चिकित्सा पद्धतियों पर लिखी किताब में सहयोगी लेखक हैं। अपनी सारी उपलब्धियों का श्रेय डॉ. आचार्य अपनी माताजी को देते हैं, जिनकी प्रेरणा से वे आज इस मुकाम पर पहुँचे हैं।

साभार- गर्भनाल

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