गजल : सितम करता है

- मुश्फि़क ख्‍वाजा

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सितम भी करता है, उसका सिला1 भी देता है
कि मेरे हाल पे वह मुस्कुरा भी देता है
शिनावरों2 को उसी ने डुबो दिया शायद
जो डूबतों को किनारे लगा भी देता है
यही सुकूत3, यही दश्ते-जाँ4 का सन्नाटा
जो सुनना चाहे कोई तो सदा भी देता है।

अजीब कूचा-ए-कातिल5 की रस्म है कि यहाँ
जो कत्ल करता है वह खूँ-बहा6 भी देता है
वह कौन है कि जलाता है दिल में शम-ए-उम्मीद
फिर अपने हाथ से उसको बुझा भी देता है
वह कौन है कि बनाता है नक्श पानी पर
तो पत्थरों की लकीरें मिटा भी देता है ।

वह कौन है कि जो बनता है राह में दीवार
और उसके बाद नई राह दिखा भी देता है
वह कौन है कि दिखाता है रंग-रंग के ख्वाब
अँधेरी रातों में लेकिन जगा भी देता है
वह कौन है कि गमों को नवाजता7 है मुझे
गमों को सहने का फिर हौसला भी देता है
मुझी से कोई छुपाता है राजे-गम-सरे-शाम
मुझी को आखिरे-शब8 फिर बता भी देता है।

1. बदला 2. तैराकों 3. खामोशी 4. प्राण का जंगल 5. वधक (प्रेमिका) की गली 6. वह धन जो प्राणों के बदले में दिया जाए 7. कृपा करना 8. रात का अंत।
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