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प्रवासी कविता : इंसान खिलाफ इंसान के

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रेखा भाटिया

कितने परिवर्तनों की बात करें
कितने जुल्म सहे हैं यह गिनें
कुछ परिवर्तन आया भी तो
क्या जुल्म होने बंद हो गए !
 
इंसान का जुल्म इंसान के खिलाफ
इंसान का जुल्म मानवता के खिलाफ
इंसान ही इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन
क्या सिख पाया अपने इतिहास से !
 
भाषा, ज्ञान-विज्ञान, बुद्धि-कौशल, सभ्यता
कुदरत ने दिया तो सब कुछ है इंसान को
इंसान का जुल्म कुदरत के खिलाफ भी
कुदरत को खंगाला सीमाओं से परे !
 
इंसान का जुल्म जानवरों के खिलाफ भी
पिंजरे में डाल, भूखा रखा बनाया गुलाम
मन किया कभी खा लिया कभी शिकार
कभी सर्कस, कभी चिड़ियाघर में तमाशा !
 
अमीर ने ताकत से कमजोर को दबाया
कभी रंग, कभी नस्ल, कभी धर्म-वर्ण
गुलामी में पिसते रहे इंसान, गांव, देश
सलाखों में, पिंजरों में दबाए गए उठे सुर !
 
ताकतों की भूख, पैसे की भूख
लोभ ऐशों-आराम की भूख
बदला, अहंकार, जलन, आक्रोश
युद्ध, आतंकवाद, धर्म, जात-पात !
 
अवतार, मसीहा भी इंसान के लिए
सुकून, शांति के लिए चौखट पर
दया करुणा की दुआ मांगता इंसान
शीश भी झुकाता, पैसे का भोग लगाता !
 
जानवर चलते प्रकृति के नियमों से
इंसान चलता नियमों के खिलाफ
आंदोलन, धरने, हिंसा, प्रदर्शन
इंसानों का इंसानों के खिलाफ ही !
 
सारा वैभव, सारी ताकत पाकर भी
अंत गुहार लगाता हे भगवान् इतना दर्द
बड़ा ही अजीब है, क्या चाहता है इंसान
इंसान ही इंसान को खुश नहीं रख पाया !
 

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