पहाड़ की याद

- सरोज उप्रेती

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दिल्ली की भीषण गर्मी
जब तन को झुलसा जाती
ठंडी हवा ठंडा पानी
पहाड़ की याद ताजा हो आती

बड़ा-सा आंगन कोने में गोठ
आंगन में संतरा-नींबू अखरोट
कनेर ब्रूस के फूलों की बाढ़
भीनी-भीनी खुशबू फैलाती

हम सहेलियां नाले में जातीं
वहां से गगरी भर ले आतीं
रास्ते में कुछ गाते जातीं
आधी गगरी छलकती जाती

ईजा का धोती में सिकुड़ना
चूल्हे में खाना पकाते जाना
खाने की खुशबू घर में समाती
ईजा खाना परोसती जाती

बाबू का हुक्का गुड़गुड़ करना
सबेरे से बैठक का भर जाना
ठहाकों की गूंज भर जाती
चाय की सौंधी खुशबू आती

आंचल में अखरोट बांधना
चलते-चलते खाते जाना
पैरों की पाजेबें बजतीं
ठंडी हवा मन को भाती

नाले का पानी मीठा लगता
मिनरल वाटर फीका लगता
दिल मचल उड़ने को करता
पहाड़ी वादियां मन को भातीं।
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