भिखारी (पहला भाग)

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- कुमार विश्वजी त

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10 जुलाई 1968 को भागलपुर, बिहार में जन्म। दिल्ली विश्वविद्यालय से संस्कृत में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर । ‘वह पाग ल ’ और ‘जीवन प्रतिक्ष ण ’ कहानियाँ प्रकाशित। कुछ समय तक स्वतंत्र तौर पर हिंदुस्तान अखबार से भी जुड़े रहें। गजलें और कविताएँ भी लिखते हैं। वर्तमान में भारतीय पुलिस सेवा में अधिकारी ।

भिखारी सेठ सुनहरी लाल केजरीवाल के कपड़े का व्यापार बड़ा था। उन्होंने जब काम शुरू किया था तब कोई नहीं जानता था कि एक दिन वे इतने बड़े उद्योगपति बन जाएँगे। रईसों में उनकी गिनती होगी। मुंबई के पास थाणे में अपनी कपड़े की मिल होगी। उस मिल में हजारों लोग काम करेंगे और उनके परिवार वाले उन्हें दुआएँ देंगे।

दुआ का असर और किसी पर होता हो अथवा नहीं। सेठ सुनहरीलाल पर अवश्य हुआ था। और वे दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करने लगे। रईस तो बन ही गए थे, अब मशहूर भी हो गए थे पूरे इलाके में सेठ तो कई थे। केवल वे ही थे, जो रईस कहलाते थे। इतने पैसों का वे क्या करेंगे? आम लोगों में बहस का यह मुद्दा गंभीर था। और हो भी क्यों न? जहाँ लोगों को दो जून की रोटी जुटाना भी भारी पड़ता था वहीं सुनहरी लाल विदेश भ्रमण कर लोगों की सूखी आँतडि़यों पर लात मारते जाते थे। उन जैसे रईसों को इससे कोई पर्क नहीं पड़ता कि करोड़ो भारतीय भूख से बिलबिलाते रहें या नोंच-खसोट कर एक दूसरे को ही मार डालें। उन्हें तो अपने संपन्न जीवन का दिखावा करना था। अपनी मशहूरियत के मुताबिक जीवन जीना था। लोगों की परवाह क्यों? जैसे वे इंसान नहीं बल्कि धरती पर रेंगने वाले कीड़े हों। मसले-कुचले जाने का कितना खयाल किया जा सकता है ।

इन सबके बावजूद नवगछिया के बाशिन्दों में उनकी बड़ी इज्जत थी। पैसे से इंसान की इज्जत होती है। आदमी भगवान बन बैठता है। कमाने की हुनर होना चाहिए। सुनहरीलाल में यह हुनर कूट-कूट कर भरा था। शहरवासियों का यहीं मानना था। उनकी दूसरी मशहूरियत थी कि वे परले दर्जे के कंजूस थे। कंजूस क्या वे तो मक्खीचूस थे। कोई अठन्नी भी माँग ले तो बिगड़ैल घोड़े की तरह बिदक जाते थे। चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे कि पैसा कमाना कोई खेल नहीं है। और फिर उन्होंने पैसा इसलिए नहीं कमाया कि दूसरों पर बर्बाद करें। ईमानदारी से चार पैसे कमाओ तो जानोगे कि पैसा कैसे कमाया जाता है। अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने कितनी ईमानदारी से पैसा कमाया था? फिर भी यह बात तो थी ही कि ऐसे पैसे कमाने वाले भी कितने थे? लेन-देन के मामले में बड़े हिसाबी थे। पाँच पैसे की हेराफेरी भी उन्हें कबूल नहीं थी। वे अक्सर कहा करते थे कि व्यापार ऐसे ही खड़ा नहीं हो जाता? रातों की नींद और दिन का चैन गँवाना पड़ता है। ऋण देते थे, लेनिक पाई-पाई वसूल किए बिना छोड़ते नहीं थे। माँगने पर शायद पाँच रूपए भी दे दें, परंतु ऋण का एक पैसा भी छोड़ने को राजी नहीं होते थे। साम, दाम, दंड, भेद हर नीति से वे न केवल वाकिफ थे, बल्कि आजमाने में भी हिचकते नहीं थे। इसलिए लोग उनसे डरते भी थे। रईसो के हर गुण उनमें मौजूद थे। शहर के बीचो-बीच उनका पुश्तैनी मकान था। ज्यादा बड़ा तो नहीं था, लेकिन हर सुख-सुविधा का इंतजाम था।

शहर के बीचों बीच होने से सुनहरीलाल को पसंद नहीं था। चिल्ल-पों की तरह-तरह की आवाजें बेदर्द थीं। सुख से जीने नहीं देती थी। शांति की ख्वाहिश थी। इसलिए शहर से दूर उन्होंने एक हवेली बनवाई जिसे देखने वाले देखते ही रह जाते थे। असल में उसे हवेली नहीं, बल्कि महल कहना चाहिए। बीस बीघे के बीचों-बीच खड़ा वह आलीशान आशियाना लोगों के दिल में तीर की तरह चुभता था। उन्होंने इसे अपने बहू और बेटे के लिए बनवाया था नई-नवेली दुल्हन के साथ बेटा इसी नए मकान में रहेगा। यह उनका सपना था । विदेशी दिखावट वाली वह हवेली वाकई में उनके शानौ-शौकत को दर्शाती थी। वे इसका बहुत ख्याल रखते थे। उसकी देखभाल के लिए पाँच लोग रखे गए थे, लेकिन सुनहरीलाल को किसी पर विश्वास नहीं था। जब तक स्वयं न देख ले, उन्हें संतोष नहीं होता था ।

पत्नी को दिल की बीमारी थी। परहेज में हमेशा कोताही करती थी। एक बार ऐसा दौरा पड़ा कि दुनिया ही छोड़कर चली गई। पैसा था, खर्च भी किया। लेकिन काम नहीं आया। पुत्र राजकुमार को पढ़ने के लिए विदेश और बेटी को पुणे में कॉलेज में दाखिला दिलवाने के बाद अकेला घर काटने को दौड़ता था। तो एक कदम थाणे में और दूसरा कदम विदेश में होता था। लेकिन यार दोस्तों के बीच बैठना खूब भाता था। इसलिए शहर में आना जाना लगा रहता था।

प्रतिदिन प्रात: मंदिर में जाना उनकी विशेष आदत थी। मंदिर तो कई लोग जाते हैं। उनके मशहूर होने का कारण था मंदिर के लिए दा न- दक्षिणा और चढ़ावा। कहते हैं कि एक बार तिरूपति-तिरूमला बालाजी के मंदिर में एक लाख नकद चढ़ा आए थे, तब से लोग-बाग उनसे पैसों की माँग कुछ ज्यादा ही करने लगे थे। लोगों का सोचना गलत नहीं था। जो व्यक्ति मंदिर के लिए इतना चढ़ावा चढ़ा सकता है वह गरीबों व भिखारियों को कुछ तो दान करेगा? लेकिन भिखारी के नाम से उन्हें चिढ़ थी। जबकि मंदिर के आसपास के भिखारियों को खूब पता था कि वे कौन से महापुरूष थे और उनके वहाँ पहुँचते ही पीछे पड़ जाते थे।

सेठ जी बिना सुधि लिए हमेशा की तरह मंदिर से बाहर निकलकर अपनी लंबी सी मर्सीडीज में बैठ जाते थे। भूखे-नंगे बच्चे तब तक उनकी कार का पीछा करते जब तक वह उनके पहुँच के बाहर नहीं हो जाती। उनकी अपनी मजबूरी चाहे जो भी हो, दान-पुण्य के नाम पर मंदिरों में चाहे जितना चढ़ावा चाहे कितना ही चढ़ा आए, लेकिन माँगने वालों और भिखारियों के लिए उनके पास फूटी-कौड़ी भी नहीं थी। भिखारियों से तो समझो घृणा ही थी । ’जब देखो मुँह बाये, हाथ फैलाए सामने खड़े हो जाते है । ‘वे भुनभुनाते जब कभी कोई भिखारी पैसे की माँग करता उनके पीछे पड़ जाता था । ’तिनका-तिनका जोड़कर मकान बनता है। इन्हें क्या पता कि कैसे एक-एक पैसा जोड़कर मैंने अपना व्यवसाय खड़ा किया है? खून-पसीने की कमाई है ये। कोई बेगार से नहीं मिली। अरे इन्हें क्या, साले कुछ काम तो करते नहीं बस दूसरों की कमाई पर ही नजर टिकी रहती है । ‘
क्रमश:..

( साभार : गर्भनाल)
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