मैं तुम्हारा शंख हूँ

- प्रतिभा सक्सेना

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ज्योति से करतल किरण-सी अँगुलियों में
मैं तुम्हारी चेतना का उच्छलित कण,
मैं तुम्हारा शंख हूँ!

परम काल प्रवाह का बाँधा गया क्षण,
तुम्हीं से होता स्वरित मैं सृष्टि स्वप्न हूँ!
मैं तुम्हारी दिव्यता का सूक्ष्म कण हूँ!

महाकाशों में निनादित आदि स्वर का
दस दिशाओं में प्रवर्तित गूँजता रब,
हो प्रकंपित, दिशा के आवर्तनों के शू्न्य भर-भर,
पंचभौतिक काय में निहितार्थ लेकर,
मैं तुम्हारी अर्चना का लघु कलेवर!

फूँक दो वे कण कि हो जीवंत मृणता,
इस ‍िवनश्‍वर देह में वह गूँज भर दो,
पंचतत्वों के विवर को शब्द देकर
आत्म से परमात्म तक संयुक्त कर दो
सार्थकत्व प्रदान कर दो!

मैं तुम्हारा शंख हूँ, स्वर दो बजाओ!
उस परम चैतन्य पारावार की चिरमग्नता से,
किसी बहकी लहर ने झटका किनारे,
और अब इस काल की उत्तप्त बालू में अकेला
आ पड़ा हूँ!

उठो लो कर में, मुझे धो स्वच्छ कर दो!
भारती माँ, वेदिका पर स्थान दे दो!
फूँक भर-भर कर बजाओ आरती में,
जागरण के मंत्र में
अनुगूँज मेरी भी मिलाओ!

मैं तुम्हारी चेतना का उच्छलित कण,
मैं तुम्हारा शंख हूँ,
तुम फूँक भर-भर कर बजाओ!
मैं तुम्हारा अंश हूँ,
वह दिव्यता स्वर में जगाओ!

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