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- बुद्धिनाथ मिश्र

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वे हमारे ही पिता तो थे।
जो गए थे सात सागर पार
सभ्यता की ईख बोने
आचरण की भीख देने।
औ बहाने एक सुरसरि-धार
वे हमारे ही पिता तो थे।
परकटे थे वे।
अहेरी के छलावे में
बिक गए थे,
चंद सपनों के भुलावे में।
बन गए थे बाज के आहार
वे हमारे ही पिता तो थे।
तोड़कर जब से गए थे
वे सुनहरी पाँख
फिर कभी बोली न
माँ की डबडबाई आँख
लख न पाया जिन्हें नन्हा प्यार
वे हमारे ही पिता तो थे
लाख वे रौंदे गए
फिर भी जले प्रतिपल
तन बिका था।
किंतु मन था शुद्ध गंगाजल
रच दिखाया इक नया संसार
वे हमारे ही पिता तो थे।

- गर्भनाल से साभार

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