अपनापन

- सुदर्शन प्रियदर्शिनी

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बहुत-सी यादें हैं
तुम्हारे आंगन की
मेरी छनकती
पायल की
रुनझुन-तुम्हें
सुहाती थी
जैसे बेटी थी
मैं तेरे घर की।

लुटाते थे
आंखों से
सारे बाग-बगीचे
की संपदा
तुम मुझ पर
मैं कौतुक और भौंचक
देखी करती।

कैसे होते हैं
रिश्ते-नाते
या संबंध
जो अपनों की
बिलकुल
अपनों की
देहरियां
लांघकर भी
बना लेते
हैं घर और
ठिकाना।

दूसरों के घर
और पता
नहीं चलता
कौन-सा घर-
कौन-सा आंगन-
और उस एक
शब्द में
घुल-मिल
जाती है
सारी वसुधा
जिसे कहते
हैं- अपनापन।
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