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इंसानियत चाहे हर इंसान
- मंजूषा हांडा
Webdunia
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शर्म से भी ज्यादा आज आई शर्म
हर इंसान बैठा है आंखें मीचे
कैसे कहें नेक कौम हैं हम
कोई तो इस बात का जरा खुलासा कीजे
भयानक सन्नाटों की चीखें
आत्मा को झकझोर रही हैं
हर ओर की बेबसी से
खून के अश्कों में कई रूहें डूब रही हैं
शैतानों की बेजा हरक़त ने
ज़माने को बेज़ार किया
अब तो मां के पहलू में भी पनाह
पाने का हक इन दरिंदों ने गंवा दिया
गम-ए-जमाना यह
खुला जख्म खून बहा रहा है
पर इस नासूर को भरने वाला
कहीं मिलता नहीं है
सुनहरी धूप है
पर चेहरा बादलों से घिरा है
गर्द-ए-राह ने सूरज का
साथ चूर-चूर किया है
खुरदरी हवाओं ने
सावन को ऐसा झुलसा दिया
आस्मानी रोशनी ने भी अब
गर्म लू बरसाने का फैसला किया
इन मायूसियों को क्या नाम दें
बे-नाम ही रहने दो
शायद ख्वाहिशों की भीड़ में
गुम हो जाएं यों
माना, इंसानी जिंदगी के तजुर्बों में
गिले-शिकवे कै़द रहते हैं
पर इन्हीं तजुर्बों के खौफ से
कई आगोषे तस्सवुरफना होते हैं
आज तन्हा वो बहुत
टूटा मासूस-सा ख्वाह जिसका है
बेजार जमाने की हकीकत ने
एक और मासूमियत की कत्ल किया है
मगर हौस्ला अफ़जाई कर
जिगर-ओ-नस के इस सफ़र पर
मर-मर के जीना सीखा दिया
एहसानात कई खुदा के
जिगर देके इस माहौल में भी
आरजुओं का सिलसिला चलने दिया
लेकिन आरजुओं के इस जोश में
तुम यह न भूल जाना
बड़बड़ाना हमारी फितरत है
पर है तो यह बे-खयाली ही ना
और ख़याल हैं जो निर्माण करें
वही है हमारी हकीकत जो
पर शब्दों का चुनाव ही
उजागर करे हकीकत को
फिर यह भी सही, ख्यालों और
हकीकत का तालमेल मुश्किल बहुत
और इनके दर्मियां जो खला है
वोह सस्ती बहुत
इस खला को हटाने का
चैन बहुत महंगा बिकता है
अब तो हर पल यही
तालमेल हासिल करने के
इंतजार में निकलता है
और वक्त ने भी अफसानों की तह को
अभी नहीं है खोला पूरा
इसी में सचाई जाने कितनी जीत और
आजमाइशें हैं बाकी हैं वक्त के पहलू में समाई
चलो यही सही, आओ बक्शे
बीते कल के जख्म-ओ-निशान मिलके भरते हैं
पुरानी यादें बदल के आने वाले कल को
सुनहरा बनाने की जद्दोजहद में लगते हैं
दुरुस्त यही, नाकामी छू नहीं सकती
फकत रहेंगे बुर्दबार हम
इंसानियत को सुनहरे अक्षरों में
लिखने का बेसबरी से करेंगे इंतजार
यूं ही रहेंगे इन्हीं इरादों के आसपास हम
के इसी को हौसला-ए-बुलंदी कहते हैं
हम इन्हीं इरादों के उजालों में
उम्मीदों का सामान जुटाते रहते हैं।
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