पिछले दस-बीस वर्षों को यदि हम देखें तो महसूस होगा कि प्रवासी भारतीयों की रस्साकशी एक ठहराव में बदल चुकी है। अब उन्हें जो चिंता सता रही है वह अपनी जगह कितनी बनावटी है और कितनी सच्ची उसका मूल्यांकन हम सरकारी तौर पर नहीं कर सकते, मगर उनकी चिंता यह है कि उनकी आने वाली पीढ़ी अपनी भाषा में लिखे-पढ़े, अपने धर्म और रीति-रिवाजों को संजोकर रखे।
विदेशों में बसे भारतीय वर्षों पूर्व मजदूरों के रूप में विश्व के अनेक देशों में ले जाए गए थे। मजदूरों के अलावा ऊँची शिक्षा प्राप्त करने और नौकरी मिलने पर वहाँ जाना और फिर चाहे-अनचाहे वहाँ बस जाना।
देश, गाँव की यादों को दिल व दिमाग में बसाने और बेहतर जिंदगी गुजारने के संघर्ष में रत पीढ़ियाँ उन देशों की नागरिक बनती चली गईं। चिंता उस समय बढ़ी, जब उनकी पहली पीढ़ी उस धरती पर जन्म लेकर उसी देश के भागौलिक, सामाजिक एवं रहन-सहन में ढलने लगीं और उन भारतीय रीति-रिवाजों को नकारने लगीं, जिनको न उन्होंने देखा और न उन बंधनों की मर्यादा को उस तरह समझा, जो उनके माँ-बाप अपने अतीत में डूबे वर्तमान में जीते हुए भी अपने को नए देश की जरूरत के अनुसार ढालते रहे थे।
इन देशों में भारतीयों की लगन, मेहनत और गुणों से उनके विभिन्ना क्षेत्रों में न केवल विकास हुआ, बल्कि एक बड़े पैमाने पर उनका आर्थिक योगदान भी रहा, जिसको इन देशों की सरकारों ने अपने बढ़ते उत्पादन के आँकड़ों को देख इस सचाई को स्वीकार भी किया। बतौर मिसाल हम इग्लैंड को लेते हैं। इस देश से हमारे लगातार संबंध रहे हैं। हम बरसों उनके गुलाम रहे हैं और इस गुलामी में इंसानी रिश्ते भी प्यार और नफरत के साथ पनपते रहे हैं ।
साठ की दहाई के अंतिम वर्षों में स्थानीय अँगरेजों और भारतीयों के बीच एक तनाव, खिंचाव, कुंठा, दबा आक्रोश था। उसमें एक-दूसरे की जरूरत के प्रति समझदारी और हमदर्दी नहीं थी, बल्कि दबी-दबी घृणा की तरंगें उनके कार्यक्षेत्र में बनी रहती थीं, जो 80 की दहाई तक आते-आते काफी हद तक कम हुईं।
पिछले दस-बीस वर्षों को यदि हम देखें तो महसूस होगा कि भारतीयों की यह रस्साकशी एक ठहराव में बदल चुकी है। उन्होंने कमा लिया। घर बनवा लिया। बच्चे बस गए। अब उन्हें जो चिंता सता रही है, वह अपनी जगह कितनी बनावटी है और कितनी सच्ची, उसका मूल्यांकन हम सरकारी तौर पर नहीं कर सकते, मगर उनकी चिंता है कि उनकी आने वाली पीढ़ी अपनी भाषा में लिखे-पढ़े, अपने धर्म और रीति-रिवाजों को संजो कर रखे।
घरेलू रिश्तों की मान-मर्यादा हिन्दुस्तानी जीवन मूल्यों पर रखे। नई पीढ़ी की अपनी परेशानियाँ हैं, जो यथार्थ के ज्यादा करीब हैं। उन्हें पहले दिन से उस समाज के अनुसार दौड़ में शामिल होना पड़ता है, जहाँ की आबोहवा में वे साँस ले रहे हैं। उन्हें अपनी अलग पहचान बनाए रखने के संघर्ष में समय बर्बाद करने की जगह उन गुणों, डिग्रियों और तकनीकी सूझबूझ को समझना और हासिल करना है, ताकि वे अपने हम उम्रों के बीच पीछे न छूट जाएँ। दादा, नाना यह सब वह भी भोगा यथार्थ जानकर भी उस दर्द से उन्हें बचाना चाहते हैं, जो याद और हकीकत के बीच वह झेलते रहे हैं। बिना इस ओर ध्यान दिए कि उनकी दो पीढ़ियाँ भारत में नहीं बरतानियाँ में जन्मी हैं।
पिछले कई वर्षों में इराक को लेकर सियासी माहौल कई स्तरों पर इंग्लैंड का गरमाया था। आतंकवाद की समस्या ने बहुतों की नींद हराम कर दी थी। एशिया के लोग शक के घेरे में आ गए। नस्लवाद की दबी जड़ें कुछ लोगों में कल्ले फोड़ने लगीं। दूसरी तरफ हिजाब का मसला गैरजरूरी बहस के बावजूद जरूरी मुद्दा बन गया। सियासत का अपना तर्क होता है। उसके अपने लाभ और हिसाब की बातें होती हैं।
आतंकवाद या कहें बम संस्कृति ने किसी भी देश को अब सुरक्षित नहीं छोड़ा है। उस बहस में न पड़कर हम रोज जिंदगी जीने की सहूलियतों पर जब नजर डालते हैं तो महसूस होता है कि भारतीय अपनी तरह से जीवन की जटिलता का सामना कर रहे हैं। बेकारी, महँगाई, फिलहाल सिर् फᆬ भारत में ही नहीं, इंग्लैंड में भी बड़े पैमाने पर नागरिकों को बेचैन किए हुए है, मगर फिर भी दोनों देशों को नजर में रखते हुए पता चलता है कि एक बेकार नागरिक, एक बच्चा और उसकी परवरिश व भविष्य को लेकर वहाँ की सरकार की विशेष नीति है, जो हमारी इस बड़ी जनसंख्या वाले देश में इतनी आसानी से लागू नहीं हो सकती है।
हम कई अर्थों में असुरक्षित हैं, जबकि भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिक वहाँ पर कई मायनों में सुरक्षित जीवन जी रहे हैं। ऐसी स्थिति में क्या वे ब्रिटिश नागरिकता छोड़कर जिंदगी को फिर जीरो से भारत में आकर शुरू करना चाहेंगे?
हमारा साहित्य, हमारे गीत, काफी हद तक प्रवासीजन-खुद एक सपनीली दुनिया में खोए हुए हैं। उस जज्बे को लेकर कि हमारा मुल्क कहीं और है और हम बसे यहाँ हैं। सियासी मार ने बहुत से जवानों को दूसरी तरह से सोचने पर मजबूर कर दिया है। शायद इसलिए कि उन्हें अपने पूर्वजों के देश का कोई मोह या पूर्वाग्रह उस तरह नहीं है, जितना उन्हें अपने जन्मस्थल पर अपने को जमाए रखने और जिंदा रखने का। वे अपनी पहचान को दो नावों पर सवार नहीं देखना चाहते।
इसीलिए आज एक नई सोच भारतीय मूल की नई पीढ़ी में उभर रही है कि आप जहाँ रहें उस देश के प्रति वफादार रहें। उसी के बारे में सोचें और लिखें। जो पीछे छूट गया, उन जड़ों को काट कर आने वाले भी मर खप गए या फिर क्रब में पैर लटकाए बैठे हैं। उनकी सोच का पीछा करना निरर्थक है और बनावटी-सा है। हमारी जरूरत और सच कुछ और है। रोटी-रोजी को लेकर इस तरह का उजड़ना और बसना जाने कब से खुदा की बनाई इस सरजमीं पर चला आ रहा है, मगर पिछले पचास वर्षों में सियासत ने जिस तरह एक देश के लोगों को दूसरे देश में शरणार्थी बना उन्हें बसाया है (उनकी आपस में शादियाँ और बच्चे पैदा हुए हैं), वह इतिहास के पुराने परिच्छेदों में दुर्लभ है।
शायद वक्त की इसी सीनाजोरी पर भटकते, बसते लोगों के लिए मानसिक क्लेश और संताप से बचने का एक व्यावहारिक कदम है, जो आज के दौर में नई पीढ़ी के जेहन में उभर रहा है। आप इस नई सोच को नकारने का हक रखते हैं अगर आप अपनी जड़ों से कटे नहीं हैं, मगर हालात ने जिनको जड़ से काटने पर मजबूर किया है, उन्हें क्या आप अपनी जड़ें फिर से बनाने का मौका नहीं देंगे। आप उसे विडंबना कहें या पलायन, विकास कहें या मजबूरी, मगर जो भी है वह एक ठोस यथार्थ है।
इस यथार्थ की जड़ें उस विश्वास में गहरे धँसी हुई हैं, जो भारतीयों में वर्षों के अंतराल में जड़ें जमा चुकी है कि इस ग्रेट ब्रिटेन के विकास और आर्थिक व्यवस्था में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसलिए उन्हें वहाँ रहने का, वहाँ के कानून और सहूलियतों के मिलने का उतना ही अधिकार है जो एक ब्रिटिश नागरिक को मिला हुआ है। आज नई पीढ़ी उसी तेवर के साथ अपने अधिकारों पर गहरी नजर रखे है और उसी धरती से नाता रखना चाहती है जो रोज की आवश्यकताओं को पूरी कर उनके सुरक्षित भविष्य का आश्वासन देती है।