बाँधों न मुझको

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- रिदुपमन चौधरी

जो उठा हृदय की वीणा से, वह‍ नैसर्गिक स्‍वर बन जाने दो
बाँधो ना मुझको यूँ सरले, उड़ मुक्‍त गगन में जाने दो

दी त्रासदी और अबूझ प्‍यास
फिर पा न हुआ करुणा रस का
क्‍यों बरस पड़ीं तुम मृदु मेघों-सी
यह भी कारण असमंजस का
छलक रहा जो सजल नयन में मोती बन ढल जाने दो
बाँधों ना मुझको यूँ सरले, उड़ मुक्‍त गगन में जाने दो

झूठे अनुबंधों में रह जाए तो
मन को सुख है कब पाता
थीं तुम सपनों के संचय में अब थाह नहीं तो जाने दो
बाँधों ना मुझको यूँ सरले, उड़ मुक्‍त गगन में जाने दो

तेरे ही सुख की वर्षा से मैं
धन्‍य हुआ हूँ आज प्रिये
पर तेरे इन त्राणों का बंधन
है न मुझे स्‍वीकार प्रिये
सूखी-सी इस डाली को तुम फिर कुछ-कुछ हिल जाने दो
बाँधो ना मुझको यूँ सरले, उड़ मुक्‍त गगन में जाने दो।

चला क्षितिज के पार स्‍वप्‍न जब
हाथ लिए आशा की गठरी
गिरा रहीं क्‍यों सूखे अधरों पर
सुमुखी! भरी लोचन की गगरी
बस हृदय की तप्‍त अग्नि से, सब मरुस्‍थल हो जाने दो
बाँधो ना मुझको यूँ सरले, उड़ मुक्‍त गगन में जाने दो।

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