मेरी माँ

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- देवेश पांडेय

SubratoND
1984 में इलाहाबाद में जन्म। वर्तमान में मेडिकल यूनिवर्सिटी, चीन में एमबीबीएस के तीसरे वर्ष के विद्यार्थी हैं। व्यंग्य, कहानी और कविताएँ लिखते हैं ।

माँ तो आखिर माँ होती है
माँ जैसी कोई कहाँ होती है?
फाड़ के सीना देखो तो सबके
सीने में माँ ही माँ होती है!

ममता अपनी सदा लुटाए
तेरे लिए जग से लड़ जाए
माँ का आँचल हो जिसके सिर
उसको पीर कहाँ होती है?

तू हँसता तो वो हँसती है
तू रोता तो वो रोती है
तेरे बिना जी न पाए
इतनी प्यारी माँ होती है!

खुद भूखी रह तुझे खिलाए
सोए न बिन तुझे सुलाए
तुझे देख भूले सारा गम
ऐसी तो बस माँ होती है!

पहली बार आँख खोली तो
जिसको देखा वो अम्मा थी
सबसे पहले मैंने जिसका
नाम उचारा वो अम्मा थी
चलना सीखा जिसकी उँगली
पकड़-पकड़कर
वो अम्मा थी!
डरकर कभी रातों को जागा
थपकियाँ देती वो अम्मा थी
बिस्तर गीला जब करता था
मैं जाड़े की रातों में
मुझे सुलाकर सूखे में
खुद गीले में सोती
वो अम्मा थी
चाय की प्याली लिए हाथ में
सुबह उठाती
वो अम्मा थी
गलती कभी की जो मैंने
डाँट पिलाती
वो अम्मा थी
पापा जब भी गुस्साते थे
मुझे बचाती वो अम्मा थी
हुआ कभी बुखार जो मुझको
जाग सिरहाने रोती
अम्मा थी
तपते हुए बदन पर मेरे
पट्टियाँ देती अम्मा थी
उदास असफल हुआ कभी तो
उत्साह बढ़ाती वो अम्मा थी
हुआ घाव जो मन पर मेरे
दर्द उठाती वो अम्मा थी
गले लगाकर मुझको मेरे
दर्द मिटाती
मेरी अम्मा थी।

- साभार- गर्भनाल

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