पेट काटकर भी सुशील को दूध पिलाया

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नजफगढ़ के गाँव बापड़ौला से प्रत्येक दिन चार किलो दूध लेकर साइकिल से तीस किलोमीटर से भी दूर छत्रसाल स्टेडियम पर पहलवानी कर रहे अपने पुत्र सुशील कुमार को इस उम्मीद के साथ दीवानसिंह पहुँचाते थे कि उनका यह चिराग किसी दिन उनका नाम र ोशन करेगा। बीजिंग ओलिम्पिक में 56 साल बाद कुश्ती में काँस्य पदक जीतकर सुशील ने उस दूध का हक अदा कर दिया।

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एमटीएनएल में साधारण नौकरी करने वाले सुशील के पिता दीवानसिंह ने बताया यह बात सही है कि मैंने 30 किलीमीटर का रास्ता तय करके अपने पहलवान पुत्र सुशील कुमार को दूध पहुँचाया है।

सुशील के ओलिम्पिक पदक जीतने के बाद चौतरफा लाखों रुपए के इनामों और अचानक हुई मीडिया की चकाचौंध के बावजूद अपने पाँव जमीन पर टिकाए दीवानसिंह ने सभी को धन्यवाद देते हुए कहा कि हम किस काबिल हैं। हमें तो भगवान ने केवल माध्यम बनाया है।

यह पूछने पर कि भारी इनामों को देखते हुए सुशील कुमार के भविष्य के बारे में क्या योजना है? उन्होंने कहा कि वैसे अभी समय ही नहीं मिला है योजना के बारे में सोचने का, लेकिन वह पहले की तरह ही अपना सारा समय पहलवानी में बिताएगा और 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों, एशियन कुश्ती और फिर लंदन ओलिम्पिक के लिए गंभीरता से तैयारी में जुटेगा।

दीवानसिंह ने बताया कि उनका पूरा गाँव फिलहाल सुशील कुमार के बीजिंग से भारत लौटने पर उसके भारी स्वागत की तैयारियों में जुटा है। बापडौला और उसके आसपास के गाँव से सैकड़ों गाड़ियों और कई बसें स्वागत के लिए हवाई अड्डे पर जाएँगी।

इस बीच पालम 360 खाप पंचायत के प्रधान रामकरण ने सुशील कुमार के घर पहुँचकर सुशील के माता-पिता को बधाई दी और पंचायत की ओर से सुशील के दूध-दही के लिए एक लाख रुपए दिए गए। दीवानसिंह ने कहा कि चारों तरफ से मिल रहे इनाम और बधाइयों के बावजूद सुशील पहले की तरह ही पहलवानी करता रहेगा।

सुशील ने भारतीय खेलों के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराते हुए बीजिंग ओलिम्पिक में 66 किलो फ्रीस्टाइल कुश्ती का काँस्य पदक जीता। निशानेबाज अभिनव बिंद्रा के स्वर्ण के बाद इन खेलों में सुशील ने भारत की झोली में दूसरा पदक डाला था और बाद में भारत के एक और पदक मुक्केबाजी में भी मिला।

ओलिम्पिक खेलों के इतिहास में भारतीय दल पहली बार तीन पदकों के साथ लौटेगा। कशाबा जाधव (हेलसिंकी ओलिम्पिक 1952) के बाद कुश्ती में काँस्य पदक जीतने वाले सुशील पहले भारतीय पहलवान हैं।

दिल्ली के नजफगढ़ से क्रिकेट को एक भले एक नायाब हीरा मिला हो, लेकिन बीजिंग ओलिम्पिक में सुशील कुमार ने पदक जीतकर इस क्षेत्र ने कुश्ती को भी एक नया सितारा दिया है। तीन भाई के अपने परिवार में सुशील कुमार सबसे बड़े हैं और उनका जन्म इसी गाँव में 1982 में हुआ था।

उनके एक रिश्तेदार के अनुसार सुशील बचपन से ही कुश्ती का शौकीन था और उसने दिल्ली में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के साथ इस शौक को भी परवान चढ़ाया। रेलवे में कार्यरत और महाबली सतपाल के शिष्य सुशील ने सन 2006 में दोहा एशियन खेलों में काँस्य पदक जीतकर अपनी अंतरराष्ट्रीय कुश्ती में प्रतिभा का परिचय देना शुरू किया था।

छत्रसाल स्टेडियम में प्रतिदिन सुबह चार बजे उठकर कुश्ती के दाँव-पेंच सीखने वाले सुशील ने अगले ही साल मई 2007 में सीनियर एशियन चैम्पियनशिप में रजत पदक जीता और फिर अगले माह कनाडा में आयोजित राष्ट्रमंडल कुश्ती प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतकर बीजिंग ओलिम्पिक से पदक लाने के इरादे जाहिर कर दिए।

अजरबेजान में हुई विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में सुशील हालाँकि आठवें स्थान पर पिछड़ गए थे, लेकिन उन्होंने यहीं से बीजिंग ओलिम्पिक खेलों के लिए क्वाल‍िफाई कर लिया था।

ओलिम्पिक खेलों के लिए पटियाला के राष्ट्रीय क्रीड़ा संस्थान में विदेशी कोच से ट्रेनिंग लेने वाले सुशील ने इस साल कोरिया में आयोजित सीनियर एशिया कुश्ती चैम्पियनशिप में काँस्य पदक जीता था।

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