क्या आपका व्यक्तित्व चोरी का है?

ओशो
चोरी का अर्थ ही क्या है? चोरी का गहरा आध्यात्मिक अर्थ है कि जो मेरा नहीं है, उसे मैं मेरा घोषित करूँ। बहुत कुछ मेरा नहीं है, जिसे मैंने मेरा घोषित किया है, यद्यपि मैंने कभी किसी की चोरी नहीं की है।

शरीर मेरा नहीं है, लेकिन मैं मेरा घोषित करता हूँ। चोरी हो गई, अध्यात्म की दृष्टि से
चोरी हो गई। शरीर पराया है, शरीर मुझे मिला है, शरीर मेरे पास है। जिस दिन मैं घोषणा करता हूँ कि मैं शरीर हूँ, उसी दिन चोरी हो गई। आध्यात्मिक अर्थों में मैंने किसी चीज पर दावा कर दिया, जो दावा अनाधिकारपूर्ण है, मैं पागल हो गया। लेकिन हम सभी शरीर को अपना, अपना ही नहीं बल्कि मैं ही हूँ, ऐसा मान कर चलते हैं।

माँ के पेट में एक तरह का शरीर था, आपके पास। आज अगर आपके सामने उसे रख दिया जाए तो खाली आँखों से देख नहीं सकेंगे। बड़ी खुर्दबीन चाहिए जिससे दिखाई पड़ सकेगा और कभी न मानने को राजी होंगे कि कभी यह मैं था। फिर बचपन में एक शरीर था जो रोज बदल रहा है। प्रतिदिन शरीर बह रहा है। अगर हम एक आदमी के जिंदगी भर के चित्र रखें सामने, तो वह आदमी हैरान हो जाएगा कि इतने शरीर मैं था! और मजे की बात है कि इन सारे शरीरों में यात्रा करते वक्त हर शरीर को उसने जाना कि यह मैं हूँ।

अभिनय चोरी है या कला?
एक अमेरिकन अभिनेता का जीवन मैं पढ़ता था। कई बार संन्यासियों के जीवन थोथे होते हैं, उनमें कुछ भी नहीं होता। जिन्हें हम तथाकथित अच्छे आदमी कहते हैं, अक्सर उनके पास कोई जिंदगी नहीं होती। इसलिए अच्छे आदमी के आसपास कहानी लिखना बहुत मुश्किल है। उसके पास कोई जिंदगी नहीं होती। वह थोथा, समतल भूमि पर चलने वाला आदमी होता है, कोई उतार-चढ़ाव नहीं होते।

अक्सर जिसको हम बुरा आदमी कहते हैं, उसमें एक जिंदगी होती है, और उसमें उतार-चढ़ाव होते हैं और अक्सर बुरे आदमी के पास जिंदगी के गहरे अनुभव होते हैं। अगर वह उनका उपयोग कर ले तो संत बन जाए। अच्छा आदमी कभी संत नहीं बन पाता। अच्छा आदमी बस अच्छा आदमी ही रह जाता है- सज्जन। सज्जन यानी मिडियॉकर। जिसने कभी बुरे होने की भी हिम्मत नहीं की, वह कभी संत होने की भी सामर्थ्य नहीं जुटा सकता।

इस अभिनेता की मैं जिंदगी पढ़ रहा था। उसकी जिंदगी बड़े उतार-चढ़ाव की जिंदगी है। अँधेरे की, प्रकाशों की, पापों की, पुण्यों की- लेकिन उसका अंतिम निष्कर्ष देखकर मैं दंग रह गया। अंतिम उसने जो निष्कर्ष दिया है, पूरी जिंदगी में जिस बात ने उसे सबसे ज्याद बेचैन किया है, वह आपको भी बेचैन कर सके।

आखिरी बात उसने यह कही है कि मेरी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मैंने इतने प्रकार के अभिनय किए, जिंदगी में मैंने इतनी एक्टिंग की, मैं इतने व्यक्ति बना कि अब मैं तय नहीं कर पाता हूँ कि मैं कौन हूँ? कभी वह शेक्सपियर के नाटक का कोई पात्र था, कभी वह किसी और कथा का कोई और पात्र था। कभी किसी कहानी में वह संत था, और कभी किसी कहानी में वह पापी था। जिंदगी में इतने पात्र बना वह कि आखिर में कहता है कि मुझे अब समझ नहीं पड़ता कि असली में मैं कौन हूँ? इतने अभिनय करने पड़े, इतने चेहरे ओढ़ने पड़े कि मेरा खुद का चेहरा क्या है, वह मुझे कुछ पक्का नहीं रहा।

दूसरी बड़ी गहरी बात उसने कही है कि जब भी मैं किसी पात्र का अभिनय करने मंच पर जाता हूँ, तब एट-ईज होता हूँ। क्योंकि वहां स्वयं होने की जरूरत नहीं होती, एक अभिनय निभाना पड़ता है, तो मैं एकदम सुविधा में होता हूँ, मैं निभा देता हूँ। 'टु स्टेप इन ए रोल इज ईजीयर।' उसने लिखा है कि एक अभिनय में कदम रखना आसान है। 'बट टु स्टेप आउट ऑफ इट बिकम्स कांप्लेक्स।' जैसे ही मैं मंच से उतरता हूँ, उस अभिनय को छोड़कर, वैसे ही मेरी दिक्कत शुरू हो जाती है कि अब मैं कौन हूँ? तब तक तो तय होता है कि मैं कौन था, अब मैं कौन हूँ?

हजार अभिनय करके यह तय करना उसे मुश्किल हो गया है कि मैं कौन हूँ? कहना चाहिए कि उसकी जिंदभी में अचौर्य का क्षण निकट आ गया है, लेकिन हमारी जिंदगी में हमें पता नहीं चलता। सच बात तो यह है कि कोई अभिनेता इतना अभिनय नहीं करता, जितना अभिनय हम सब करते हैं। मंच पर नहीं करते हैं, इससे खयाल पैदा नहीं होता है। बचपन से लेकर मरने तक अभिनय की लंबी कहानी है। ऐसा एक भी आदमी नहीं है जो अभिनेता नहीं है। कुशल-अकुशल का फर्क हो सकता है, लेकिन अभिनेता नहीं है, कोई ऐसा आदमी नहीं है। और अगर कोई आदमी अभिनेता न रह जाए तो उसके भीतर धर्म का जन्म हो जाता है।

हम चेहरे चुराकर जीते हैं। हम शरीर को अपना मानते हैं, वह भी अपना नहीं है, और हम जिस व्यक्तित्व को अपना मानते हैं, वह भी हमारा नहीं है। वह सब उधार है। और जिन चेहरों को हम अपने ऊपर लगाते हैं; जो मास्क, जो परसोना, जो मुखौटे लगाकर हम जीते हैं, वह भी हमारा चेहरा नहीं है। बड़ी से बड़ी जो आध्यात्मिक चोरी है, वह चेहरों की चोरी है, व्यक्तित्वों की चोरी है।

हम सब बाहर से ही साधते हैं धर्म को। अधर्म होता है भीतर, धर्म होता है बाहर। चोरी होती है भीतर, अचौर्य होता है बाहर। परिग्रह होता है भीतर, अपरिग्रह होता है बाहर। हिंसा होती है भीतर, अहिंसा होती है बाहर। फिर चेहरे सध जाते हैं। इसलिए धार्मिक आदमी जिन्हें हम कहते हैं, उनसे ज्यादा चोर व्यक्तित्व खोजना बहुत मुश्किल है।

चोर व्यक्तित्व का मतलब यह हुआ कि जो वे नहीं है, वे अपने को माने चले जाते हैं, दिखाए चले जाते हैं। आध्यात्मिक अर्थों में चोरी का अर्थ है- जो आप नहीं हैं, उसे दिखाने की कोशिश, उसका दावा। हम सब वही कर रहे हैं, सुबह से साँझ तक हम दावे किए जाते हैं।

वह अमेरिकी अभिनेता ही अगर भूल गया हो कि मेरा ओरिजनल-फेस, मेरा अपना चेहरा क्या है, ऐसा नहीं है; हम भी भूल गए हैं। हम सब बहुत-से चेहरे तैयार रखते हैं। जब जैसी जरूरत होती है, वैसा चेहरा लगा लेते हैं। और जो हम नहीं हैं, वह दिखाई पड़ने लगते हैं। किसी आदमी की मुस्कुराहट देखकर भूल में पड़ जाने की कोई जरूरत नहीं है, जरूरी नहीं है कि भीतर आँसू न हों। अक्सर तो ऐसा होता है कि मुस्कराहट आँसुओं को छिपाने का इंतजाम ही होती है। किसी आदमी को प्रसन्न देखकर ऐसा मान लेने की कोई जरूरत नहीं है कि उसके भीतर प्रसन्नता का झरना बह रहा है, अक्सर तो वह उदासी को दबा लेने की व्यवस्था होती है। किसी आदमी को सुखी देखकर ऐसा मान लेने का कोई कारण नहीं है कि वह सुखी है, अक्सर तो दुख को भुलाने का आयोजन होता है।

आदमी जैसा भीतर है, वैसा बाहर दिखाई नहीं पड़ रहा है, यह आध्यात्मिक चोरी है। और जो आदमी इस चोरी में पड़ेगा, उसने वस्तुएँ तो नहीं चुराईं, व्यक्तित्व चुरा लिए। और वस्तुओं की चोरी बहुत बड़ी चोरी नहीं है, व्यक्तित्वों की चोरी बहुत बड़ी चोरी है।

ध्यान रहें, वस्तुओं के चोरों को तो हम जेलों में बंद कर देते हैं, व्यक्तित्वों के चोरों के साथ हम क्या करें? जिन्होंने पर्सनेलिटीज चुराई हैं, उनके साथ क्या करें? उन्हें हम सम्मान देते हैं, उन्हें हम मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में आदृत करते हैं।

ध्यान रहें, वस्तुओं के चोर ने कोई बहुत बड़ी चोरी नहीं की है, व्यक्तित्व के चोर ने बहुत बड़ी चोरी की है। और वस्तुओं की चोरी बहुत जल्दी बंद हो जाएगी, क्योंकि वस्तुएँ ज्यादा हो जाएँगी, चोरी बंद हो जाएगी, लेकिन व्यक्तित्वों की चोरी जारी रहेगी। हम चुराते ही रहेंगे, दूसरे को ओढ़त ही रहेंगे।

इसे आप जरा सोचना कि आप स्वयं होने की हिम्मत जिंदगी में चुटा पाए, या नहीं जुटा पाएँ? अगर नहीं जुटा पाए तो आपके व्यक्तित्व की अनिवार्य आधारशिला चोरी की होगी। आपने कोई और बनने की कोशिश तो नहीं की है? आपके चेतन-अचेतन में कहीं भी तो किसी और जैसा हो जाने का आग्रह तो नहीं है? अगर है, तो उस आग्रह को ठीक से समझ कर उससे मुक्त हो जाना जरूरी है। अन्यथा अचौर्य, नो-थेफ्ट की स्थिति नहीं पैदा हो पाएगी।

और यह चोरी ऐसी है कि इससे आपको कोई भी रोक नहीं सकता, क्योंकि व्यक्तित्व अदृश्य चोरियां हैं। धन चुराने जाएँगे, पकड़े जा सकते हैं। व्यक्तित्व चुराने जाएँगे, कौन पकड़ेगा? कैसे पकड़ेगा? कहाँ पकड़ेगा? और व्यक्तित्व की चोरी ऐसी है कि किसी से कुछ छीनते भी नहीं और आप चोर हो जाते हैं। व्यक्तित्व की चोरी आसान और सरल है। सुबह से उठकर देखना जरूरी है कि मैं कितनी बार दूसरा हो जाता हूँ। हम व्यक्ति नहीं हो पाते व्यक्तित्वों के कारण। पर्सनेलिटीज के कारण पर्सन पैदा नहीं हो पाता।

ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया पुस्तक से संकलित
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

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