प्रेम, ध्यान और मृत्यु

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- ओशो रजनी श
यह विधि प्रेम से संबंधित है, क्योंकि तुम्हारे शिथिल होने के अनुभव में प्रेम का अनुभव निकटतम है। अगर तुम प्रेम नहीं कर सकते हो तो तुम शिथिल भी नहीं हो सकते। और अगर तुम शिथिल हो सके तो तुम्हारा जीवन प्रेमपूर्ण हो जाएगा।

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एक तनावग्रस्त आदमी प्रेम नहीं कर सकता है। क्यों? क्योंकि तनावग्रस्त आदमी सदा उद्देश्य से, प्रयोजन से जीता है। वह धन कमा सकता है, लेकिन प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम प्रयोजन रहित है। प्रेम कोई वस्तु नहीं है। तुम उससे अपने अहंकार की पुष्टि नहीं कर सकते हो। सच तो यह है कि प्रेम सबसे अर्थहीन काम है; उससे आगे उसका कोई अर्थ नहीं है, उससे आगे उसका कोई प्रयोजन नहीं है। प्रेम अपने आप में जीता है, किसी अन्य चीज के लिए नहीं।

तुम धन कमाते हो, किसी प्रयोजन से। वह एक साधन है। तुम मकान बनाते हो- किसी के रहने के लिए। वह भी एक साधन है। प्रेम साधन नहीं है। तुम क्यों प्रेम करते हो? किसलिए करते हो?

प्रेम अपना लक्ष्य आप है। यही कारण है कि हिसाब-किताब रखने वाला मन, तार्किक मन, प्रयोजन की भाषा में सोचने वाला मन प्रेम नहीं कर सकता। और जो मन प्रयोजन की भाषा में सोचता है वह तनावग्रस्त होगा। क्योंकि प्रयोजन भविष्य में ही पूरा किया जा सकता है, यहाँ और अभी नहीं।

प्रेम सदा यहाँ है और अभी है। प्रेम का कोई भविष्य नहीं है। यही वजह है कि प्रेम ध्यान के इतने करीब है। यही वजह है कि मृत्यु भी ध्यान के इतने करीब है। क्योंकि मृत्यु भी यहाँ और अभी है, वह भविष्य में नहीं घटती।

क्या तुम भविष्य में मर सकते हो? वर्तमान में ही मर सकते हो। कोई कभी भविष्य में नहीं मरा। भविष्य में कैसे मर सकते हो? या अतीत में कैसे मर सकते हो? अतीत जा चुका है, वह अब नहीं है। इसलिए अतीत में नहीं मर सकते। और भविष्य अभी खोया नहीं है, इसलिए उसमें कैसे मरोगे?

मृत्यु सदा वर्तमान में होती है। मृत्यु, प्रेम और ध्यान, सब वर्तमान में घटित होते हैं। इसलिए अगर तुम मृत्यु से डरते हो तो तुम प्रेम नहीं कर सकते। अगर तुम मृत्यु से भयभीत हो तो तुम ध्यान नहीं कर सकते। और अगर तुम ध्यान से डरे हो तो तुम्हारा जीवन व्यर्थ होगा। किसी प्रयोजन के अर्थ में जीवन व्यर्थ नहीं होगा, वह व्यर्थ इस अर्थ में होगा कि तुम्हें उसमें किसी आनंद की अनुभूति नहीं होगी। जीवन अर्थहीन होगा।

इन तीनों को- प्रेम, ध्यान और मृत्यु को- एक साथ रखना अजीब मालूम पड़ेगा। वह अजीब है नहीं। वे समान अनुभव हैं। इसलिए अगर तुम एक में प्रवेश कर गए तो शेष दो में भी प्रवेश पा जाओगे।

जब तुम्हें प्रेम किया जाता है तो अतीत समाप्त हो जाता है और भविष्य नहीं है। तुम वर्तमान के आयाम में गति कर जाते हो, तुम अब में प्रवेश कर जाते हो। क्या तुमने कभी किसी को प्रेम किया है? यदि कभी किया है तो जानते हो कि उस क्षण मन नहीं होता है।

इसलिए पहली चीज कि प्रेम के क्षण में अतीत और भविष्य नहीं होते हैं। तब एक नाजुक बिंदु समझने जैसा है। जब अतीत और भविष्य नहीं रहते तब क्या तुम इस क्षण को वर्तमान कह सकते हो? यह वर्तमान है दो के बीच, अतीत और भविष्य के बीच; यह सापेक्ष है। अगर अतीत और भविष्य नहीं रहे तो इसे वर्तमान कहने में क्या तुक! वह अर्थहीन है। इसीलिए शिव वर्तमान शब्द का व्यवहार नहीं करते; वे कहते हैं; नित्य जीवन। उनका मतलब शाश्वत से है- शाश्वत में प्रवेश करो।

प्रेम पहला द्वार है। इसके द्वारा तुम समय के बाहर निकल सकते हो। यही कारण है कि हर आदमी प्रेम चाहता है, हर आदमी प्रेम करना चाहता है और कोई नहीं जानता है कि प्रेम को इतनी महिमा क्यों दी जाती है? प्रेम के लिए इतनी गहरी चाह क्यों? और जब तक तुम यह ठीक से न समझ लो, तुम न प्रेम कर सकते हो और न पा सकते हो। क्योंकि इस धरती पर प्रेम गहन से गहन घटना है।

हम सोचते हैं कि हर आदमी, जैसा वह है, प्रेम करने को सक्षम है। वह बात नहीं है। और इसी कारण से तुम प्रेम में निराश होते हो। प्रेम एक और ही आयाम है। यदि तुमने किसी को समय के भीतर प्रेम करने की कोशिश की तो तुम्हारी कोशिश हारेगी। समय के रहते प्रेम संभव नहीं है।

प्रेम अनंत का द्वार खोल देता है- अस्तित्व की शाश्वतता का द्वार। इसलिए अगर तुमने कभी सच में प्रेम किया है तो प्रेम को ध्यान की विधि बनाया जा सकता है। यह वही विधि है : 'प्रिय देवी, प्रेम किए जाने के क्षण में प्रेम में ऐसे प्रवेश करो जैसे कि वह नित्य जीवन हो।'

बाहर-बाहर रहकर प्रेमी मत बनो, प्रेमपूर्ण होकर शाश्वत में प्रवेश करो। जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो क्या तुम वहाँ प्रेमी की तरह होते हो? अगर होते हो तो समय में हो, और तुम्हारा प्रेम झूठा है, नकली है। अगर तुम अब भी वहाँ हो और कहते हो कि मैं हूँ तो शारीरिक रूप से नजदीक होकर भी आध्यात्मिक रूप से तुम्हारे बीच दो ध्रुवों की दूरी कायम रहती है।

प्रेम में तुम न रहो, सिर्फ प्रेम रहे; इसलिए प्रेम ही हो जाओ। अपने प्रेमी या प्रेमिका को दुलार करते समय दुलार ही हो जाओ। चुंबन लेते समय चूमने वाले या चूमे जाने वाले मत रहो, चुंबन ही बन जाओ। अहंकार को बिलकुल भूल जाओ, प्रेम के कृत्य में घुल-मिल जाओ। कृत्य में इतने गहरे समा जाओ कि कर्ता न रहे।

और अगर तुम प्रेम में नहीं गहरे उतर सकते तो खाने और चलने में गहरे उतरना कठिन होगा, बहुत कठिन होगा। क्योंकि अहंकार को विसर्जित करने लिए प्रेम सब से सरल मार्ग है। इसी वजह से अहंकारी लोग प्रेम नहीं कर पाते हैं। वे प्रेम के बारे में बातें कर सकते हैं, गीत गा सकते हैं, लिख सकते हैं; लेकिन वे प्रेम नहीं कर सकते। अहंकार प्रेम नहीं कर सकता है।

प्रेम ही हो जाओ। जब आलिंगन में हो तो आलिंगन हो जाओ, चुंबन हो जाओ। अपने को इस पूरी तरह भूल जाओ कि तुम कह सको कि मैं अब नहीं हूँ, केवल प्रेम है। तब हृदय नहीं धड़कता है, प्रेम ही धड़कता है। तब खून नहीं दौड़ता है, प्रेम ही दौड़ता है। तब आँखें नहीं देखती हैं, प्रेम ही देखता है। तब हाथ छूने को नहीं बढ़ते, प्रेम ही छूने को बढ़ता है। प्रेम बन जाओ और शाश्वत जीवन में प्रवेश करो।

प्रेम अचानक तुम्हारे आयाम को बदल देता है। तुम समय से बाहर फेंक दिए जाते हो, तुम शाश्वत के आमने-सामने खड़े हो जाते हो। प्रेम गहरा ध्यान बन सकता है - गहरे से गहरा। और कभी-कभी प्रेमियों ने वह जाना है जो संतों ने उस केंद्र को छुआ है जो अनेक योगियों ने नहीं छुआ।

लेकिन जब तक तुम अपने प्रेम को ध्यान में रूपांतरित नहीं करते तब तक यह एक झलक होगी। तंत्र का अर्थ ही है प्रेम का ध्यान में रूपांतरण। अब तुम समझ सकते हो कि तंत्र क्यों प्रेम और कामवासना के संबंध में इतनी बात करता है। क्यों? क्योंकि प्रेम वह सरलतम स्वाभाविक द्वार है जहाँ से तुम इस संसार का, इस क्षैतिज का आयाम का अतिक्रमण कर सकते हो।

काम का काम नहीं रहना है, यही तंत्र की शिक्षा है। उसे प्रेम में रूपांतरित होना ही चाहिए। और प्रेम को भी प्रेम ही नहीं रहना है, उसे प्रकाश में, ध्यान के अनुभव में, अंतिम, परम रहस्यवादी शिखर में रूपांतरित होना चाहिए। प्रेम को रूपांतरित कैसे किया जाए?

अगर यह यात्रा ध्यानपूर्ण हो जाए, अर्थात अगर तुम अपने को बिलकुल भूल जाओ और प्रेमी-प्रेमिका विलीन हो जाएँ और केवल प्रेम प्रवाहित होता रहे, तो -शाश्वत जीवन तुम्हारा है।'

साभार : तंत्र-सूत्र
सौजन्य : ओशो फाउंडेशन इंटरनेशन ल
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