क्या आप एड्स के बारे में कुछ कहेंगे? ओशो ने कहा- मैं तो फर्स्ट एड के बारे में भी नहीं जानता, और तुम मुझसे लास्ट एड्स के बारे में पूछ रहे हो! लेकिन ऐसा लगता है कि मुझे इसके बारे में कुछ कहना ही पड़ेगा। और इस संसार में वे लोग परमात्मा के बारे में बोल सकते हैं जो खुद को नहीं जानते, और वे लोग स्वर्ग-नरक के बारे में बोल सकते हैं जिन्हें इस पृथ्वी का भूगोल तक नहीं मालूम, तो मेरे एड्स पर बोलने में क्या हर्ज है। मैं कोई फिजिशियन नहीं हूँ, लेकिन एड्स भी कोई बीमारी नहीं है। एड्स बीमारी से कुछ ज्यादा है, कुछ जो मेडिकल व्यवसाय की सीमाओं में नहीं समाता।
मेरे देखे, एड्स दूसरी बीमारियों जैसी बीमारी है, इसीलिए वह खतरनाक है। शायद उससे दो-तिहाई मनुष्य मारे जाए। एड्स में बीमारियों से लड़ने की क्षमता नष्ट हो जाती है। धीरे-धीरे व्यक्ति हर तरह के आक्रमण का शिकार होता चला जाता है, और उन आक्रमणों के खिलाफ प्रतिरोध की कोई क्षमता शरीर में नहीं रहती।
मेरे अनुसार, मनुष्य अपने जीने की इच्छा खो रहा, इच्छा समाप्त होने लगती है, तो तत्क्षण उसकी प्रतिरोधक क्षमता गिर जाती है क्योंकि शरीर मन का अनुसरण करता है। शरीर मन का बड़ा आज्ञाकारी सेवक है, मन की हर बात मानता है। यदि मन जीने की इच्छा खो देता है तो शरीर एकदम से हर रोग और मृत्यु के खिलाफ अपनी प्रतिरोधक क्षमता खो देगा। और फिजिशयन उसका कारण खोजने के लिए कभी भी जीवेषणा तक नहीं पहुँच पाएँगे, यही कारण है कि मैंने सोचा, मैं इस विषय पर कुछ कहूँ।
मेरा यह तरीका नहीं है। मैं कोई आँकड़े इकट्ठे नहीं करता। और मेरा काम कोई शोध करने का भी नहीं है, अंतर्दृष्टि देने का है। मैं हर समस्या में जितने गहरे हो सके, देखने की कोशिश करता हूँ
एड्स पूरी दुनिया में इतनी बड़ी समस्या होने वाली है कि किसी भी दिशा से आने वाले सुझाव का स्वागत होना चाहिए। अकेले अमेरिका में ही, इस वर्ष (यह प्रवचन जनवरी 1985 का है) चार लाख लोग एड्स से प्रभावित हुए हैं, और हर वर्ष यह संख्या दुगुनी होती जाएगी। इस तरह यह बीमारी फैलती जाएगी। अरबों डॉलर की जरूरत पड़ेगी, और तब भी उन मरीजों के बचने की कोई आशा नहीं है।
शुरू-शुरू में सोचा जा रहा था कि यह होमोसेक्सुअल लोगों को होने वाली बीमारी है। और दुनियाभर के शोधकर्ताओं ने इस धारण का समर्थन किया था कि यह होमोसेक्सुअल बीमारी है और ऐसा पाया गया था कि यह बीमारी स्त्रियों से ज्यादा पुरुषों को हो रही है।
लेकिन दक्षिण अफ्रीका से कल ही एक रिपोर्ट आई है, जिसने पूरी धारणा बदल दी है। दक्षिण अफ्रीका में एड्स पर काफी खोज चल रही है क्योंकि वहाँ इस बीमारी का प्रभाव सबसे ज्यादा है। दक्षिण अफ्रीका में एड्स एक महामारी की तरह फैली हुई है, इसीलिए वहाँ एड्स पर इतनी खोज चल रही है।
उनकी रिपोर्ट बड़ी हैरान करने वाली है। उसमें कहा गया है कि एड्स कोई होमोसेक्सुअल बीमारी नहीं है, हेट्रोसेक्सुअल बीमारी है। अगर तुम अपने पार्टनर बदलते रहो, बार-बार नई स्त्रियों और नए पुरुषों के साथ जाओ तो यह बीमारी हो जाती है। उनकी रिपोर्ट के अनुसार होमोसेक्सुअलिटी का एड्स से कोई लेना-देना नहीं है। अब यूरोप और अमेरिका के सारे शोधकर्ता एक तरफ हैं, और साउथ अफ्रीका से आई यह रिपोर्ट दूसरी ओर है।
मेरे लिए यह बात बहुत महत्वपूर्ण है।
एड्स का न तो हेट्रोसेक्सुअलिटी से कुछ लेना-देना है, न होमोसेक्सुअलिटी से। हाँ, उसका संबंध सेक्स से जरूर है। सेक्स से क्यों? क्योंकि जीने की इच्छा, जीवेषणा, सेक्स की नींव पर खड़ी होती है। अगर जीवेषणा समाप्त होने लगे तो मृत्यु को निमंत्रित करने के लिए सेक्स जीवन का सबसे संवेदनशील अंग बन जाता है।
इसे अच्छी तरह याद रखो कि मैं कोई मेडिकल क्षेत्र का व्यक्ति नहीं हूँ, और मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ, वह बिलकुल अलग ही दृष्टिकोण से आ रहा है। लेकिन इस बात की ज्यादा संभावना है कि तुम्हारे तथाकथित शोधकर्ता जो कह रहे हैं, उनसे ज्यादा मेरी बात सही हो, क्योंकि उनकी शोध उथली है। वे केवल आँकड़ों की भाषा में सोचते हैं।
मेरा यह तरीका नहीं है। मैं कोई आँकड़े इकट्ठे नहीं करता। और मेरा काम कोई शोध करने का भी नहीं है, अंतर्दृष्टि देने का है। मैं हर समस्या में जितने गहरे हो सके, देखने की कोशिश करता हूँ। ऊपर-ऊपर के तथ्यों की मैं बिलकुल उपेक्षा कर देता हूँ, वह शोध करने वालों के लिए हैं।
मैं गहरे में जीने की कोशिश करता हूँ। और मैं बिलकुल स्पष्ट देख रहा हूँ कि सेक्स जीवेषणा से सबसे गहरा जुड़ा हुआ विषय है। अगर जीवेषणा कम होती तो सेक्स सबसे पहले प्रभावित होगा। फिर होमोसेक्सुअलिटी या हेट्रोसेक्सुअलिटी का कोई सवाल नहीं है।
यूरोप और अमेरिका में सबसे पहले इसे होमोसेक्सुअल बीमारी माना गया था, क्योंकि पहले-पहल सारे केस होमोसेक्सुअल लोगों के ही थे। उसका कारण यह है कि होमोसेक्सुअल लोग हेट्रोसेक्सुअल लोगों के बजाय अपनी जीने की इच्छा को ज्यादा खो चुके हैं। सारी की सारी शोध कैलिफोर्निया तक ही सीमित थी, और उस थोड़ी-सी शोध में जितने केस सामने आए वे सब होमोसेक्सुअल लोगों के थे। सो शोध करने वालों ने एड्स को होमोसेक्सुअल के साथ जोड़ दिया। अगर किसी हेट्रोसेक्सुअल व्यक्ति को एड्स पाया भी गया तो यही सोचा गया कि किसी होमोसेक्सुअल व्यक्ति के संपर्क में आने से उसे एड्स हुआ होगा।
लेकिन एड्स का कारण है सेक्स, जो कि जीवेषणा के समाप्त होने के कारण प्रभावित हो रहा है। मेरे देखे एड्स की बीमारी आध्यात्मिक है।
मनुष्य ऐसे बिंदु पर पहुँच गया है, जहाँ उससे आगे कोई रास्ता नहीं बचा है। पीछे लौटने में कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि पीछे का तो सब कुछ वह देख चुका है, जी चुका है और उसमें उसे कुछ भी नहीं मिला। सब कुछ व्यर्थ था। तो पीछे लौटने में कोई अर्थ नहीं है और आगे जाने के लिए कोई मार्ग नहीं है : सामने बस एक अथाह खाई है। इस परस्थिति में अगर वह जीने की अपनी इच्छा खो देता है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
यह बात कई प्रयोगों से सिद्ध हो चुकी है कि यदि बच्चे का पालन-पोषण प्रेमपूर्ण लोगों द्वारा न किया जाए तो तुम चाहे उसे भरपेट भोजन देते रहो लेकिन उसका शरीर सूखता चला जाएगा। तुम उसे उसकी जरूरत की हर चीज दे सकते हो, उसके स्वास्थ्य की पूरी देखभाल कर रहे हो, लेकिन बच्चा सिकुड़ता चला जाएगा। क्या उसका इस तरह सूखना कोई बीमारी है? हाँ, मेडिकल व्यवसाय के लिए तो यह बीमारी ही है। वे सारे लक्षण की जाँच करेंगे और कोई न कोई कारण खोज निकालेंगे, लेकिन यह बीमारी नहीं है।
बच्चे की जीवेषणा अभी जगी भी नहीं। उसके लिए थोड़ी प्यार की गरमी चाहिए, आसपास आनंदित चेहरे चाहिए, नाचते-कूदते बच्चे चाहिए, माँ का प्यार चाहिए, इन सब चीजों से वह वातावरण बनता है जिसमें उसे लगता है कि जीवन में खोजने के लिए कई अथाह खजाने हैं, बड़ा आनंद है, जीवन कोई रूखा-सूखा मरुस्थल नहीं है, यहाँ बड़ी संभावनाएँ छिपी हुई हैं।
इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम कोई चित्र बना रहे हो, कोई मूर्ति गढ़ रहे हो या किसी मरते हुए मनुष्य की सेवा कर रहे हो, तुम क्या कर रहे हो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इस बात से पड़ता है कि क्या तुम इस क्षण में पूरी तरह तल्लीन हो?
ये सब संभावनाएँ उसे अपने आसपास की आँखों में दिखाई देनी चाहिए। तभी उसकी जीने की इच्छा जगेगी, जैसे झरना फूटता है। वरना वह सिकुड़ता जाएगा और मर जाएगा। उसको कोई शारीरिक बीमारी नहीं होगी, वह बस सिकुड़कर मर जाएगा।
अनाथ बच्चा इसीलिए सिकुड़कर मर जाता है क्योंकि उसकी जीवेषणा अंकुरित ही नहीं होती, कभी उसकी जीवेषणा का झरना फूटता ही नहीं।
एड्स इसी घटना का दूसरा छोर है।
अचानक तुम्हें लगता है कि अस्तित्वगत रूप से तुम अनाथ हो गए हो। यह अनाथ होने का भाव तुम्हारी जीवेषणा को मार डालता है। और जब जीवेषणा समाप्त हो जाती है तो सेक्स सबसे पहले प्रभावित होता है क्योंकि सेक्स से जीवन शुरू होता है; जीवन सेक्स का बाई-प्रोडक्ट है।
तो तुम तभी तक जी सकते हो, तभी तक तुममें श्वास चल सकती है, तुम्हारा हृदय धड़क सकता है, जब तक आने वाले कल से तुम्हें आशा बँधी रहे। अगर आने वाले कल से तुम्हें कोई आशा हो तो तुम पुराने कल की सारी व्यर्थता को नजरअंदाज कर सकते हो, तुम्हें लगता है कि आज सब व्यर्थ ही सही, लेकिन कल जब सूरज उगेगा तो सब कुछ बदल जाएगा। सभी धर्म तुम्हें इस तरह की आशा देते रहे हैं। वे धर्म असफल हो गए हैं।
बाहर-बाहर से तुमने अभी भी उन धर्मों के लेबल चिपकाए हुए हैं, लेकिन वे लेबल मात्र ही रह गए हैं। भीतर से तुम आशा खो चुके हो। धर्म तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सके, क्योंकि उनके सब आश्वासन झूठे थे। राजनीतिज्ञ भी क्या मदद करते? वे तो कभी तुम्हारी मदद करना चाहते ही नहीं थे, उनका तो पूरा का पूरा ध्येय तुम्हारा शोषण करना था। लेकिन यह झूठी आशा चाहे राजनैतिक हो कि धार्मिक हो, कब तक तुम्हें सहारा दे सकती है? देर या सवेर कभी तो मनुष्य प्रौढ़ होगा ही, वही प्रौढ़ता आज आ रही है।
मनुष्य प्रौढ़ हो रहा है। उसे पता चल रहा है कि उसके नेताओं, उसके धर्मगुरुओं, उसके मंदिरों, उसके माँ-बाप ने उसको धोखा दिया है। हर किसी ने उसे धोखा दिया है, झूठी आशाओं का सहारा दिया है। जिस दिन कोई प्रौढ़ होता है और उसे इस धोखे के जाल का पता चलता है तो जीने की इच्छा मिटने लगती है। और इसके कारण सबसे पहले तुम्हारे सेक्स पर चोट पड़ेगी। मेरे देखे यही एड्स है।
जब तुम्हारी सेक्सुअलिटी सिकुड़ने लगती है तो तुम्हें लगने लगता है कि ऐसा कुछ हो जिससे तुम हमेशा की नींद से चले जाओ। एड्स का और कोई लक्षण ही नहीं है, बस यही लक्षण है कि तुम्हारी प्रतिरोधक क्षमता कम होती चली जाती है। अगर तुम भाग्यशाली हो और तुम्हें कोई इनफेक्शन नहीं होता, तो तुम ज्यादा से ज्यादा दो साल जी सकते हो। हर इनफेक्शन ऐसी होगी जिसका इलाज न हो सके और हर इनफेक्शन तुम्हें कमजोर से कमजोर करती जाएगी। एड्स का मरीज ज्यादा से ज्यादा दो साल ही जी सकता है। और इसके लिए कोई चिकित्सा काम नहीं आएगी, क्योंकि कोई भी चिकित्सा तुम्हारी जीने की इच्छा कल लौटाकर नहीं ला सकती।
मैं यहाँ जो कह रहा हूँ, वह बहुआयामी काम है। तुम्हें अभी पूरी तरह पता नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूँ; शायद मेरे जाने के बाद ही तुम्हें पता चले कि मैं क्या कर रहा था। मैं तुम्हें भविष्य में कोई आशा नहीं दे रहा, क्योंकि भविष्य की सारी आशाएँ झूठी सिद्ध हुई हैं।
मैं तुम्हें एक आशा दे रहा हूँ जो अभी और यहीं है। कल की चिंता क्यों करनी?, कल तो कभी आया ही नहीं। सदियों से कल तुम्हें घसीटता रहा है, और इतनी बार इस कल ने तुम्हें धोखा दिया है कि उससे चिपके रहने में अब कोई सार नजर नहीं आता। अब तो कोई मूर्ख ही कल से चिपका रह सकता है। जो अभी भी भविष्य में जी रहे हैं वे यही सिद्ध कर रहे हैं कि वे बिलकुल वेवकूफ हैं।
मैं इसी क्षण को ऐसी गहन परितृप्ति बनाने की कोशिश कर रहा हूँ कि जीवेषणा की कोई जरूरत ही न रहे। जीवेषणा की जरूरत इसीलिए पड़ती है, क्योंकि तुम जीवित न हो। जीवेषणा किसी तरह तुम्हें सहारा देती रही है; तुम नीचे की ओर फिसलते रहते हो और जीवेषणा तुम्हें उठाकर खड़ा करती है। मैं तुम्हें कोई नई जीवेषणा देने की कोशिश नहीं कर सका हूँ, मैं तुम्हें जीना सिखा सकता हूँ, बिना किसी इच्छा के, और आनंदित होकर।
और आनंदित होकर जीने की क्षमता सबमें है। यह कल की आशा है जो तुम्हारे आज को विषाक्त करती रहती है। बीते हुए कल को भी भूल जाओ, आने वाले कल को भी भूल जाओ। आज ही सब कुछ है, आज ही हमारा है। इसी का हम उत्सव मनाएँ, और इसी को जीएँ।
और इसको जीने से ही तुम इतने मजबूत हो जाओगे कि जीवेषणा के बिना ही तुम हर तरह की बीमारी का प्रतिरोध कर पाओगे। पूरी तरह से जीना, अपने आप में इतनी बड़ी शक्ति है कि न केवल तुम जीओगे बल्कि औरों में भी जीवन की ज्योति को जला सकोगे।
और इस बात को सभी जानते हैं...। जब कभी कहीं कोई महामारी फैलती है तो बड़े आश्चर्य की बात है कि डॉक्टरों और नर्सों पर उसका असर नहीं पड़ता। वे भी तुम्हारी ही तरह मनुष्य हैं और वे ज्यादा काम करते हैं, सारे समय मरीजों के बीच घिरे रहते हैं, उन्हें तो सबसे ज्यादा प्रभावित होना चाहिए।
महामारी के दिनों में डॉक्टर, नर्सें और रेडक्रॉस के लोग महीनों तक रोज सोलह-सोलह घंटे काम करते हैं, और इन्हें महामारी का कोई असर नहीं होता। क्या बात होगी? ये भी तो दूसरे लोगों जैसे लोग हैं। कोई कमीज पर रेडक्रॉस लगा लेने से तो बीमारी नहीं घबराती। अगर ऐसा होता तो सबकी कमीज पर रेडक्रॉस लगा दो, लेकिन ऐसी बात नहीं है।
नहीं, ये लोग दूसरों की मदद करने में इतने संलग्न होते हैं कि इनके सामने कोई कल नहीं होता। यह क्षण उन्हें इतना घेर लेता है कि उनके पीछे भी कोई कल नहीं बचता। उनके पास न सोचने का समय होता है और न यह चिंता करने का समय होता है कि कहीं उन्हें इन्फेक्शन न पकड़ ले। जब लाखों लोग तुम्हारे आसपास मर रहे हों तो क्या तुम अपने बारे में सोच सकते हो? तुम्हारी पूरी ऊर्जा लोगों की मदद करने में लगी हुई है। तुम अपने को पूरी तरह भूल जाते हो, और क्योंकि तुम अपने को भूल जाते हो इसलिए तुम प्रभावित नहीं हो सकते। जो व्यक्ति प्रभावित हो सकता था वह मौजूद ही नहीं है, वह तो काम में खोया हुआ है।
इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम कोई चित्र बना रहे हो, कोई मूर्ति गढ़ रहे हो या किसी मरते हुए मनुष्य की सेवा कर रहे हो, तुम क्या कर रहे हो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इस बात से पड़ता है कि क्या तुम इस क्षण में पूरी तरह तल्लीन हो? यदि तुम अभी इसी क्षण में तल्लीन हो तो किसी भी तरह के इन्फेक्शन से तुम मुक्त हो। जब तुम इतने तल्लीन होते हो तो तुम्हारा जीवन एक उद्दाम वेग बन जाता है। और तुम देख सकते हो कि सुस्त से सुस्त डॉक्टर भी महामारी के दिनों में, जब सैकड़ों लोग मर रहे होते हैं, अपनी सुस्ती को भूल जाता है। बूढ़े डॉक्टर अपनी उम्र भूल जाते हैं।
क्यों? क्योंकि उनकी पूरी जीवन ऊर्जा इसी क्षण पर लौट आती है। मेरे हिसाब से एड्स एक अस्तित्वगत बीमारी है; यही कारण है कि मेडिकल व्यवसाय बड़ी कठिनाई में पड़ने वाला है, जब तक कि वे इसकी जड़ों को नहीं समझते। और उसके लिए मेडिसिन काम नहीं आएगी, मेडिटेशन काम आएगी। केवल ध्यान तुम्हारी ऊर्जा को इस क्षण पर लौटा सकता है। और फिर किसी आशा की या भविष्य के किसी स्वर्ग की जरूरत नहीं है। हर क्षण अपने आप में स्वर्ग है। साभार : ओशो इंटरनेशन फाउंडेशन